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अस्तित्व

अस्तित्व यह कैसा खेल रच रहा धरती को चिलम बना उसमें जीवन का तंबाखू डाल और तारों की सुलगती अग्नि भर जलते कश भर रहा और धुंध भरी सांसे उगल रहा ।

डूबना-उबरना

हम गिरते रहे भावना के एक ही कुँए में रोज और डूब गए डूबते को तिनके का सहारा भी न मिला और हम टूट गए इस कदर कि अब रोज भावना से मिलना होता है, हम प्रतिबिंबित भी होते हैं उसमें पर डूबते नहीं ... सार समझ में आ गया ! ( स्वप्न मंजूषा शैल जी (अदा जी), ने इस अभिव्यक्ति को शीर्षक भी दिया और लेबल भी, मैं ह्रदय से आभारी हूँ ।)

प्रतिध्वनि

एक व्यक्ति अपने नन्हें बेटे के साथ पहाड़ों की यात्रा पर था । एक जगह अचानक बेटे का पैर फिसला , उसे चोट लगी और मुँह से आह ! की तेज ध्वनि निकली । बच्चे ने सुना कि घाटियों में कोई और भी है जो उसके जैसी ही आवाज निकाल रहा है । उसने जोर से चिल्लाकर पूछा -" तुम कौन हो ?" जवाब मिला - " तुम कौन हो ?" लड़का फिर बोला -" मैं तुम्हें देखना चाहता हूँ ?" उत्तर आया - " मैं तुम्हें देखना चाहता हूँ ?" बच्चे ने आश्चर्य से अपने पिता से इसका रहस्य जानना चाहा । पिता ने मुस्कराते हुए कहा - " बेटा , यह तुम्हारी ही आवाज़ है , जो घाटियों द्वारा वापस लौटा दी गई है । विज्ञान इसे इको ( प्रतिध्वनि ) कहता है । लेकिन मेरे देखे हमारा जीवन भी कुछ ऐसा ही है । तुम जो कुछ इसे दोगे यह वापस कर देता है । यह हमारे कर्मों का प्रतिबिंब है । तुम दुनिया में जितना प्यार देखना चाहते हो , उतना प्यार स्वयं में पैदा करो , जितनी क्षमता दुनिया म

झूठ और सच

एक बहुत पुरानी कथा है, शायद तब की जब कि परमात्मा ने यह दुनिया बनाई । कहते हैं कि परमात्मा ने जब यह दुनिया बनाई तो बहुत एक रूप और साम्यबद्ध बनाई । फिर परमात्मा ने देखा कि पृथ्वी पर कोई हलचल नहीं है । सब एकरूप और शिथिल सा है । तब परमात्मा ने पृथ्वी पर विरोधी तत्वों की कामना की । और एक सच की देवी तथा एक झूठ की देवी बनाई । दोनों में विपरीत्त गुण भरे । और उन दोनों को पृथ्वी पर भेजा । आकाश से जमीन पर आते-आते उनके कपड़े मैले हो गए । रास्ते की धूल जम गई । जब वे जमीन पर उतर रही थी, तो भोर के अंतिम तारे डूब रहे थे। सूर्य निकलने के करीब था । थोड़ी देर थी सूरज निकलने में । इसके पहले कि वे परमात्मा के संदेश के अनुसार पृथ्वी की यात्रा पर जाएं और अपना काम शुरु करें , झूठ की देवी ने सच की देवी से सरोवर में स्नान का प्रस्ताव रखा । दोनों देवियाँ कपड़े उतारकर सरोवर में स्नान करने को उतरी । सच की देवी तैरती हुई आगे चली गई, उसे कुछ भी पता न था कि उसके पीछे कोई धोखा हो जाने को है । झूठ की देवी किनारे पर वापस आई और सच की देवी के कपड़े पहन कर भाग खड़ी हुई, और तो और स्वयं के कपड़े भी साथ ही लेते गई । जब लौटकर सच की

विडम्बना

मां दुखी पिता परेशान कि बेटा छब्बीस का होने को आया पर मिली नहीं नौकरी बाप परेशान कि दे नहीं सकता घूस में लाखों मां दुखी कि बेटा यूनिवर्सिटी तक प्रथम श्रेणी में रहकर भी है बेकार और बेटा ... अर्थ से बेअर्थ हुआ जो कुछ अर्थ पाता ले जाकर उसको खरीदता कविता की पुस्तकें ताकि अपना खोया संतुलन पा सके और संयमित हो सके

मां-बेटी

हर मां एक बेटी फिर भी वह बेटा चाहती शायद वह जानती है बेटी होने का दुख !

सृजन की वेदना

सृजन के पथ पर निकली हर आह प्रसव वेदना को सहने का संबल है जो मन मंजूषा भरी है भावों से, उनकी आभा पीली है क्योंकि हर भाव अपनी परिपक्वता में इसी रंगत में आकर टूट जाता है पीड़ा अपने चरम पर आकर बिखर जाती है सृजन की अंतिम घड़ियों में वीणा से संगीत भी शांत हो जाता है और धीरे से आह निकलती है कोई जन्म ले रहा है ।

जीवन-रहस्य

एक लहर उठी और गिर गई एक पतंग उड़ी और कट गई एक दोस्त मिला और बिछुड़ गया एक फूल खिला और मूर्झा गया एक आशा बंधी और निराशा बनी एक सुख आया और दुख हो गया एक दोस्त बना और दुश्मन हो गया एक सांस आई और एक सांस गई एक ऋतु आई और दूसरी ऋतु गई एक अपेक्षा की और उपेक्षा हो गई एक जमाना आया और दूसरा जमाना गया क्या परिवर्तन का दूसरा नाम जीवन नहीं है ? या कुछ है शाश्वत अमिट, अमृत, आनंद हे जीवन तुम्हीं रहस्य खोलो

सौंदर्य-परख

मैं चंडीगढ़ में था । फरवरी का महीना था । चंडीगढ़ के रोज़-गार्डन में रोज़-फैस्टिवेल लगा था । मैं एक मित्र के साथ रोज़-फैस्टिवेल देखने गया था । पहले तो हमने मेले में लगे विभिन्न स्टालों को देखा । फिर गार्डन के एक ओर एकांत में जाकर बैठ गए और आस-पास की चहल-पहल के बारे में बात करने लगे । तभी मैंने पास की एक क्यारी से गुलाब का एक सुंदर फूल तोड़ लिया और उसे सूंघते हुए अपने मित्र से पूछा -" क्या तुम्हें गुलाब सुंदर नहीं लगते ?" मित्र ने कहा- "मुझे फूल इतने प्रिय और सुंदर लगते हैं कि इन्हें डाल से तोड़ते हुए भी मुझे पीड़ा होती है ।" मित्र के इस जवाब से मैं सन्न रह गया । मुझे अपनी भूल का अहसास होने लगा था ।

बेदर्दों की दुनिया

कितनी पीड़ा होती है जब किसी पेड़ पर खुदा दिल,तीर और प्रेम संदेश देखता हूँ पर बेबस मैं कर ही क्या सकता हूँ बस एक ही ख्याल मन में आता है बार-बार क्या प्रेम इतना अंधा और संवेदनहीन होता है कि दर्द नहीं होता ऐसे पेड़ की छाती को चीरते हुए क्या ऐसा प्रेम प्रेमिका की छाती का दर्द समझता है या यूं ही उसे चीरने का सुख लेता है और फिर छोड़ उसे एकाकी दूर निकल जाता है एक दर्द का निशान हमेशा उसके कलेजे पर छोड़ फिर देखता हूँ - कि पेड़ के जख्म भरते जाते हैं और दिल,तीर उभरते जाते हैं और नाम छाती में अमिट बने रहते हैं मानो कह रहें हों कहानी उस प्रेम की जो न केवल अंधा और संवेदनहीन है बल्कि बेदर्द और बेसबब भी है जो किसी को दर्द दे वह किसी को सुख कैसे दे देता है पेड़ से इस बारे में एक दिन पूछ बैठा पेड़ ने कहा मत पूछो उस दर्द की कहानी - बस बेदर्दों की दुनिया में जीना है तो छाती चिरवाने में खुशी समझो ।

टूटते-सपने

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चीन में एक अद्भूत फकीर हुआ च्वांगत्से । एक रात जब वह सोया था, तो उसने एक सपना देखा । उसने सपने में देखा कि वह तितली हो गया । खुले आकाश में, हवाएँ बह रहीं हैं और मुक्त तितली उड़ रही है । सुबह च्वांगत्से उठा और रोने लगा । उसके संबंधियों ने पूछा कि क्यों रोते हो ? च्वांगत्से ने कहा, मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूँ । रात मैंने एक सपना देखा कि मैं तितली हो गया हूँ और बाग-बगीचे में फूल-फूल पर डोल रहा हूँ । संबंधियों ने कहा, सपने हम सभी देखते हैं, इसमें परेशानी की क्या बात है ? च्वांगत्से ने कहा, नहीं, मैं परेशान इसलिए हो रहा हूँ कि अगर च्वांगत्से रात सपने में तितली हो सकता है, तो यह भी हो सकता है कि तितली अब सपना देख रही हो कि वह च्वांगत्से नाम का आदमी हो गई है । जब आदमी सपने में तितली बन सकता है तो क्या तितली सपने में आदमी नहीं बन सकती ? मैं इसलिए मुश्किल में पड़ गया हूँ कि मैं च्वांगत्से हूँ, जिसने तितली का सपना देखा है या मैं हकीकत में एक तितली हूँ , जो अब च्वांगत्से का सपना देख रही है ! वस्तुत: न तो च्वांगत्से सपने में तितली बनता और न तितली च्वांगत्से । एक अदृश्य शक्ति दो तरह के सपने देखती

जीवन के प्रतिबिंब

जीवन क्या है ? निश्चित ही जीवन आधा-अधूरा नहीं है। क्योंकि मैंने इसमें पूर्णता का प्रतिबिंब देखा है और जिसमें पूर्णता प्रतिबिंबित हो सके,वह आधा-अधूरा कैसे हो सकता है ? यह व्यर्थ और सारहीन भी नहीं है। क्योंकि इसमें जो घटता है, उससे कहीं बड़ा है इसका विस्तार । कितनी ही चीजें इस जीवन में आई और हमें उनकी व्यर्थता दिखाई पड़ी । लेकिन खुद जीवन, जो चीजों की परिभाषा बुनता है, अपरिभाष्य है । क्योंकि जिस जीवन में चीजों की व्यर्थता दिखाई पड़ती है,वह खुद व्यर्थ नहीं हो सकता । अर्थहीन चीज अर्थ को कैसे जन्म दे सकती है । इसलिए यह जीवन सार्थक है, क्योंकि यह अर्थों को परिभाषित करता है । जीवन की कोई पगडंडियाँ नहीं होती । इन्हें तो व्यक्ति-व्यक्ति को खुद ही बनाना पड़ता है । हर व्यक्ति के लिए जीवन का अर्थ उतना ही होता है, जितना कि वह जीता है और वह उतना ही जीता है, जितना कि वह अपने लिए आकाश देखता है । आकाश अनंत है,लेकिन आप उसे किस नजर से देखते हैं, यह आप पर निर्भर है । आपकी दृष्टि ही सृष्टि बनती है । जीवन को देखने की कितनी ही दृष्टियाँ रहीं हैं । लेकिन फिर भी जीवन रहस्यमय बना रहता है । इन विभिन्न दृष्टियों मे

रेत और पत्थर

एक कहानी कहती है कि दो दोस्त एक रेगिस्तान से गुजर रहे थे । यात्रा में किसी क्षण दोनों के बीच किसी मुद्दे को लेकर बहस हुई और बहस इस कदर बढ़ गई कि एक मित्र ने दूसरे के गाल पर थप्पड़ मार दिया । दूसरे ने अपमानित महसूस किया । लेकिन बिना कुछ बोले, उसने रेत पर लिखा – "आज मेरे सर्वोत्तम मित्र ने मुझे थप्पड़ मारा ।" वे चलते रहे । तब वे एक मरु उद्यान में पहुँचे । जहां एक तालाब था । उन्होंने तालाब में स्नान करने की सोची । थप्पड़ खाया हुआ दोस्त दलदल में धँसने लगा, लेकिन दूसरे मित्र ने उसे दलदल से बचा कर बाहर निकाल लिया । तालाब से बाहर आने के बाद पहले मित्र ने पत्थर पर लिखा – "आज मेरे सर्वोत्तम मित्र ने मेरी जान बचाई ।" दूसरे मित्र ने पहले मित्र से पूछा, "जब मैंनें थप्पड़ मारा तो तुमने रेत पर लिखा और अब पत्थर पर लिख रहे हो, ऐसा क्यों ?" दूसरे मित्र ने जवाब दिया, "जब कभी कोई हमें अपमानित करे तो हमें रेत पर लिखना चाहिए, ताकि क्षमा की हवा इसे मिटा सके, लेकिन जब कभी कोई हमारा अच्छा करे, तो इसे पत्थर पर उकेरना चाहिए, ताकि इसे कोई हवा न मिटा सके ।" अपने अपमानों को रेत

निश्चल आकाश

चारों ओर उद्देश्य की आंधियाँ बह रही न जाने इन आंधियों में इस निरुद्देश्य जीवन का क्या वजूद हो नहीं जानता पर इसमें जो प्रतिबिम्ब बनते बिगड़ते रहते हैं उसके पीछे जो अनन्त आकाश है वह शाश्वत निश्चल है

वह

वह मेरी सांसों में बसता है मेरे होंठों से झरता है मेरी आंखों से देखता है मेरे कानों से सुनता है मेरी जिह्वा से स्वाद लेता है मेरे हाथों से लिखता है फिर भी ... वह मुझ से दूर है क्योंकि - मैं हूँ !!! मेरा है !!! मेरी है !!!

क्षणिका

जब-जब कुछ माँगा चाहा इच्छा की तब-तब कुछ टूटा छूटा बिखरा अब जब छूटा माँगना चाहना पकड़ना तब सब घटा अनघटा !!!

अनुभूति

वो तेरा चुपके से मेरी पलकों पर आना छू गया मेरे अंत:करण को कैसे कहूँ - उस अनुभूति को जो कहूँ वही झूठ लगता है इसलिए संकोची हो गया हूँ ।

मैं कौन हूँ ?

मैं कौन हूँ ? कैसे कहूँ ...कौन मन से बेचैन हूँ पर दिल में सब्र है सहन करता हूँ इस बेचैनी को क्योंकि - तू है !!! इसका अहसास है विरह की पीड़ा क्षण प्रतिक्षण बढ़ती जाती है तेरे बिना यह संसार अधूरा लगता है लेकिन तू है !!! इसका अहसास गहराता जाता है क्या यह पीड़ा तेरा ही गीत है जिसको गाने के लिए तू इस नासाज़ की तारें खींच -खींच कर तान बिठा रहा ? माना कि मैं खुद से बेखुदा हूँ पर तुझ से जुदा तो नहीं हूँ यह अहसास है तभी तो इस जीवन में रस है !!! रस में रम ।

कर्मों के चिह्न

एक समय की बात है । एक स्त्री के एक लड़का था । वह उसे बहुत प्यार करती थी । लेकिन बुरी संगत में पड़कर लड़का बुरे काम करने लगा । उस स्त्री ने लड़के को बहुत समझाया । पर लड़के ने अपनी मां की एक बात न सुनी । मां द्वारा पुत्र से कही सब बातें पानी पर खिंची गई लकीरें साबित हुई । और उसने बुरी संगत न छोड़ी । वह बुरे कर्म करता रहा । मां ने भी अब उसे समझाना छोड़ दिया । लेकिन अब वह एक नया काम करने लगी ।जब भी उसका बेटा कोई बुरा काम करके घर आता, तो वह घर की दीवार में एक कील ठौंक देती । धीरे-धीरे दिन बीतने लगे और घर की दीवार पर कीलों की संख्या बढ़ने लगी । एक दिन ऐसा आया कि घर की चारों दीवारें कीलों से भर गई । एक दिन जब वह स्त्री दीवार में एक और कील ठौकने की कोशिश कर रही थी, तो लड़के ने दीवार को चारों ओर से कीलों से भरा देख कर मां से पूछा - "मां, तुम दीवारों पर ये कीलें क्यों ठौकती रहती हो ?" मां ने जवाब दिया, "ये तेरे बुरे कर्म हैं, जब तू कोई बुरा कर्म करके घर लौटता है, तो मैं उन्हें याद रखने के लिए दीवार पर एक कील ठौक देती हूँ ।" लड़का यह देखकर आश्चर्य चकित रह गया कि उसने अपनी जिंदगी में कित

आकर्षणों में वास्तविक लक्ष्य से न भटकें

एक यात्री एक निर्जन पहाड़ी स्थल से गुजर रहा था । अचानक उसने देखा कि सामने से एक पागल, मदमस्त हाथी बड़ी तेजी से उसकी ओर बढ़ा आ रहा है । उसे देख कर यात्री विपरीत्त दिशा में भागने लगा । हाथी भी उसके पीछे भागने लगा । यात्री ने अपनी गति दुगुनी कर दी । लेकिन हाथी पीछा नहीं छोड़ रहा था । भागते-भागते वह पहाड़ी की कगार पर पहुँच गया, जहाँ से आगे गहरी खाई थी । लेकिन पागल हाथी उसकी ओर अभी भी बढ़ा आ रहा है । स्वयं को हाथी से बचाने के लिए वह एक लता के सहारे खाई में कूद गया । लता कमजोर है, जो अधिक समय तक उसका भार सहन नहीं कर सकती । हाथी अब भी उसके इंतजार में पहाड़ी के किनारे खड़ा है । यात्री ने देखा कि दो चूहे लता की जड़ों को कुतर रहें हैं । एक चूहा दिन की तरह सफेद है और दूसरा रात की तरह काला । जल्दी ही वे अपना काम पूरा कर लेंगे । किनारे पर ही एक बड़े वृक्ष पर मधुमक्खियों का छत्ता लगा है, जिससे बूँद-बूँद मधुर मधु टपक रहा है और वह रिसता हुआ मधु यात्री के मुख पर गिर रहा है । यात्री ने उस मधु के लिए अपना मुँह खोला और रिसते मधु का रसस्वादन करने लगा । मधु के स्वाद में पड़ा यात्री निकट खड़ी मौत भूल गया । स

पुरानी-पीढ़ी बनाम नई पीढ़ी

पुरानी पीढ़ी पुरानी किताब सरीखी नई पीढ़ी नई किताब सरीखी जैसे पुरानी किताब का बाह्य आवरण आकर्षित नहीं करता और मुद्रण भी चित्ताकर्षक नहीं होता और पुराने धब्बों व धूल से विकृत-जर्जर पर उसकी पाठ्य वस्तु भरपूर अपार ज्ञान से नई किताब का बाह्य आवरण बहुत ही आकर्षक मुद्रण भी मन-भावन विविध रंगों से भरपूर चित्र सामग्री न धूल न धब्बे फिर भी - उसकी पाठ्य वस्तु उधार बासी, ज्ञान के नाम पर कचरा न चिंतन न कोई विचार बस शब्द ज्ञान और वस्तुओं की पहचान कराना ही जैसे इनका उद्देश्य हो !!! फिर पाता हूँ पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी का फर्क भी कुछ ऐसा ही है देख रहा हूँ कि - नई पीढ़ी ज्ञान का बोझ नहीं ढ़ोती इसलिए - वह ज्यादा वर्तमान में रहती है ज्यादा सुनती, देखती है पर बुद्धि को ज्ञान के बोझ से नहीं भरती शायद- जानने से ज्यादा जीने में यकीन रखती है !!!

जीवन क्या है ?

जीवन क्या है ? सुख दुख की छाया या प्रेम,ध्यान का उत्सव जिसे जीना है हर हाल में जीवन क्या है ? दिन और रात का एक क्रम जिसमें हैं दिन के उजाले और रातों के अंधेरे जिसे काटना है किसी तरह जीवन क्या है ? अस्तित्व की एक यात्रा जिसमें वह फिर-फिर जन्मता है और नए रहस्यों के द्वार खोलता है और एक नई जीवन यात्रा की सांसे फूंकता है जीवन क्या है ? अतीत और भविष्य में त्रिशंकु की तरह लटकी आशाएं जिनमें पेंडुलम की तरह डोलता यह जीवन क्या यह यूं ही डोलता रहेगा अनंत जन्मों तक ? या कहीं लेगा विराम जहां होगा समाधान इन सब द्वैतों का क्या जीवन का हर क्षण अवसर नहीं उस सत्य को पहचानने का जहां अद्वैत घट रहा प्रति क्षण ।

धारणाओं में मत बंधिए, चीजों को पूरा परखिए

दो राजकुमार आखेट के लिए घुमते हुए किसी घने वनीय क्षेत्र में विपरीत दिशाओं से आते हुए एक स्थान पर आकर रुके, जहां एक विशाल मूर्ति स्थापित थी । पहला राजकुमार उस मूर्ति को देख कर बोला - आश्चर्य ! इतनी सुंदर, अनुपम साक्षात सौंदर्य की देवी को इस घने वन में किस कलाकार ने बनाया होगा । दूसरे राजकुमार ने, जो मूर्ति के दूसरी ओर खड़ा था, पहले राजकुमार के वचनों को सुना और बोला - अरे मूर्ख ! तुम्हें यह सौंदर्य की देवी दिखाई पड़ती है, यह तो किसी कलाकार द्वारा बनाई किसी वीर,ओजस्वी सेनापति की मूर्ति है । इस बात को लेकर दोनों राजकुमारों में ठन गई और उन्होंने अपनी मयान से तलवारें खींच ली और एक दूसरे से भीड़ गए । दोनों वीर परस्पर रक्त-रंजित हो गए । तभी वहां एक बूढ़ी स्त्री आई, जो अब तक दूर खड़ी दोनों राजकुमारों के बीच इस बहस और द्वंद्व को देख रही थी । उसने राजकुमारों से कहा, ठहरो! तुम व्यर्थ इतनी देर से झगड़ रहे हो । तुम दोनों अपनी जगह बदल कर इस मूर्ति को देखो । दोनों राजकुमारों ने लड़ना छोड़, अपनी जगह बदल कर देखा तो दोनों के हाथों से तलवार छूट गई और दोनों एक दूसरे के गले लग गए । वस्तुत: वह विशाल मूर्ति सौंदर्य

शिक्षा, प्रशिक्षण और विवेक जागरण

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सृष्टि में कोई भी वस्तु पूर्णतया पूर्ण और निर्दोष तो नहीं हो सकती, परंतु मानव हर वस्तु को निर्दोष बनाने का यत्न अवश्य करता है । चूंकि वह स्वयं पूर्ण नहीं है, इसलिए उसके समस्त कार्य अपूर्ण ही रहते हैं । हजारों वर्षों के मानव इतिहास में कभी भी शिक्षा की कोई पद्धति सर्वथा निर्दोष सर्वमान्य नहीं रही है । परंतु शिक्षा की वर्तमान पद्धति तो अत्यंत शोचनीय और चिंतनीय हो गई है । सारे संसार में कोई भी उससे संतुष्ट नहीं है । इसका मुख्य कारण यह है कि वर्तमान शिक्षा-पद्धति के माध्यम से मनुष्य को जानकारियां तो मिल जाती हैं, लेकिन सच्चे ज्ञान की उपलब्धि उसे नहीं होती । यह ज्ञान उपलब्ध न होने से स्वयं मानव का निर्माण यह शिक्षा नहीं कर पाती । तथ्यों की जानकारी से मनुष्य का मस्तिष्क तो भर जाता है, परंतु उसकी अंतरात्मा खाली की खाली बनी रहती है । न तो उसके अंत:करण का जागरण होता है, न ही उसके ह्रदय में शुभ भावना का अवतरण । इसे यों भी कह सकते हैं कि यह शिक्षा उस आहार की भांति है, जिससे भूख तो मिट जाती है, लेकिन तृप्ति नहीं होती और न ही नया रक्त और अन्य धातुओं की शरीर में अभिवृद्धि ही होती है। यही कारण है कि

बाहर-भीतर का द्वंद्व और चित्त का रुपांतरण

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आज मनुष्य के विकास में एक अद्भूत विरोधाभास दिखाई देता है । जहां एक ओर भौतिक तल पर समृद्धि और प्रगति अनुभव होती है, वहीं इस भौतिक समृद्धि और प्रगति के साथ-साथ ही आत्मिक तल पर ह्तास और पतन भी दिखाई पड़ता है । अत: वे लोग भी ठीक हैं जो कहते हैं कि मनुष्य निरंतर उन्नत हो रहा है और वे लोग भी ठीक हैं जिनकी मान्यता है कि मनुष्य का प्रतिदिन पतन होता जा रहा है । हम दोनों को ठीक इसलिए कहते हैं कि भौतिकवादी अपनी दृष्टि से आधुनिक मनुष्य को देखते हैं और आध्यात्मवादी अपनी दृष्टि से । कठिनाई यह है कि दोनों यह अनुभव नहीँ करते कि उनकी दृष्टि एकांगी है । भौतिक विचारधारा वाले तो, आत्मिकतल जैसी कोई चीज है, इसे जानते तक नहीं हैं । और आध्यात्मिक विचारधारा वाले इस सारी समृद्धि और प्रगति को निरर्थक मानते हैं । विचारणीय यह हो गया है कि विरोधी दिशाओं में खिंच रही मानव की यह स्थिति कहीं उसका अंत ही न कर दे । यह घटना असंभव घटना नहीं है । यह इसलिए है कि यदि हम भौतिकतल की उन्नति में ही लगे रहे और हमारा अंतस जैसा अभी है, वैसा ही रहा, तो यह सारी भौतिक समृद्धि नष्ट हो सकती है । भीतर रुग्णता हो और बाहर स्वस्थता दिखाई पड़े

मनुष्यता की भूल

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सत्य की कोई भी धारणा चित्त को बंदी बना लेती है । सत्य को जानने के लिए चित्त की परिपूर्ण स्वतंत्रता अपेक्षित है । चित्त जब समस्त सिद्धांतों, शास्त्रों से स्वयं को मुक्त कर लेता है, तभी उस निर्दोष और निर्विकार दशा में सत्य को जानने में समर्थ हो पाता है । व्यक्ति जब शून्य होता है तभी उसे पूर्ण को पाने का अधिकार मिलता है । मनुष्य के सारे जीवन सूत्र उलझ गए हैं । उसके संबंध में कोई भी सत्य सुनिश्चित नहीं प्रतीत होता । न जीवन के अथ का पता है, न अंत का । पहले के समय में जो धारणाएं स्पष्ट प्रतीत होती थी, वे सब अस्पष्ट हो गई हैं । धारणाओं के पुराने भवन तो गिर गए पर नए निर्मित नहीं हुए । पुराने सब मूल्य मर गए हैं, या मर रहें हैं और कोई नए मूल्य अंकुरित नहीं हो पाते । एक ही नया मूल्य अंकुरित हुआ है कि यह भौतिक जीवन ही सब कुछ है । परंतु इस नए मूल्य ने संघर्ष, द्वंद्व और युद्ध तथा अशांति को जन्म दिया है । इस भांति जीवन दिशाशून्य होकर ठिठका सा खड़ा है । यह किंकर्तव्य-विमूढ़ता हमारी प्रत्येक चिंतना और क्रिया पर अंकित है । स्वभावत: ऐसी दशा में हमारे चित्त यदि तीव्र संताप से भर गए हों, तो कोई आश्चर्य नह

ज्ञान-गंगा : 10/ धर्म और संप्रदाय

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धर्म के प्रति आधुनिक मन में बड़ी उपेक्षा है । और यह अकारण भी नहीं है । धर्म का जो रूप आंखों के सामने आता है, वह न तो रुचिकर ही प्रतीत होता है और न ही धार्मिक । धार्मिक से अर्थ है : सत्य, शिव और सुंदर के अनुकूल । तथाकथित धर्म वह वृत्ति ही नहीं बनाता जिससे सत्य, शिव और सुंदर की अनुभूति होती हो । वह असत्य, अशिव और असुंदर की भावनाओं को बल और समर्थन भी देता है । हिंसा, वैमनस्य और विद्वेष उसकी छाया में पलते हैं । मनुष्य का इतिहास तथाकथित धर्म के नाम पर इतना रक्तरंजित हुआ है कि जिनमें थोड़ा विवेक और बुद्धि है, बहुत स्वाभाविक है कि न केवल उनके ह्रदय धर्म के प्रति उदासीन हो जाएं, बल्कि ऐसे विकृत रूपों के प्रति विद्रोह का भी अनुभव करें । यह बात विरोधाभासी मालूम होगी । किंतु बहुत सत्य है कि जिनके चित्त वस्तुत: धार्मिक हैं, वे ही लोग तथाकथित धर्मों के प्रति विद्रोह अनुभव कर रहें हैं । धर्म एक जीवंत प्रवाह है । और निरंतर रुढ़ियों, परम्पराओं और अंधविश्वासों को तोड़कर उसे मार्ग बनाना होता है । सरिताएं जैसे सागर की ओर बहती हैं, और उन्हें अपने मार्ग में बहुत सी चट्टाने तोड़नी पड़ती हैं, और बहुत सी बाधाएँ दूर

ज्ञान-गंगा : 9 / ज्ञान, ज्ञाता , ज्ञेय और अहंकार

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साधारणत: जिसे ज्ञान कहते हैं, वह ज्ञान द्वैत के ऊपर नहीं ले जाता । वहां द्वैत हमेशा बना रहता है । जहां दो का भाव हो, वहीं यह संभव होता है कि ज्ञेय और ज्ञाता अलग-अलग बने रहते हैं । इसी लिए यह ज्ञान एक बाह्य संबंध है । यह अंदर प्रवेश नहीं कर पाता । ज्ञाता ज्ञेय के कितने ही निकट पहुँच जाए, फिर भी दूर ही बना रहता है । इस तथाकथित ज्ञान के लिए दूरी अनिवार्य और अपरिहार्य है । इसलिए ऐसा ज्ञान मात्र किसी विषय का परिचय ही दे पाता है, वस्तुत: ज्ञान नहीं बन पाता । मनुष्य के लिए बड़ी से बड़ी पहेलियों में से एक यही है कि ज्ञान बिना दूरी के संभव नहीं । लेकिन जहां दूरी है,वहां सच्चा ज्ञान असम्भव है । क्या यह संभव है कि दूरी न हो और ज्ञान संभव हो जाए ? यदि यह संभव नहीं है, तो सत्य कभी भी नहीं जाना जा सकता । और साधारणत: यह संभव नहीं दिखता, क्योंकि जो भी हम जानते हैं, वह जानने के कारण ही हमसे पृथक और अन्य हो जाता है । ज्ञान ज्ञाता और ज्ञेय को तोड़ देता है । वह जोड़ने वाला सेतु नहीं, वरन् पृथक करने वाली खाई है । और यही कारण है कि जिन्हें हम ज्ञानी कहते हैं, वे अति अहंकार युक्त हो जाते हैं । जैसे-जैसे उनका ज्ञ

ज्ञान-गंगा : 8 राग, लालसा और प्रेम

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प्रेम क्या है ? इसे समझने के पहले यह जानना जरूरी है कि प्रेम क्या नहीं है । क्योंकि जिसे हम प्राय: प्रेम के नाम से जानते हैं, वह और कुछ भले ही हो, प्रेम कतई नहीं है । मानव के संबंधों में भी हमें अधिकतर राग,लालसा, आसक्ति दिखाई देती है, वह प्रेम नहीं कहा जा सकता । प्रेम की विकृति ही राग, लालसा और आसक्ति है । पहले काम को लें । यह राग से उत्पन्न होता है । काम प्रेम नहीं है । काम या यौन आकर्षण तो प्रकृति का संतति उत्पादन के लिए प्रयोग किया गया सम्मोहन है । यथार्थ में यह वैसी ही मूर्छा है, जैसी शल्य-चिकित्सक शल्य क्रिया के पूर्व उपयोग में लाता है । इस मूर्छा के अभाव में प्रकृति का संतति-क्रम चलना संभव नहीं है । इसे ही जो प्रेम समझ लेते हैं, वे भ्रांति में पड़ जाते हैं । यह मूर्छा मनुष्य में ही नहीं वरन् समस्त पशु-पक्षी, कीट-पतंग में भी ऐसी ही पाई जाती है । कई जीवधारियों की तो संभोग के बाद मृत्यु हो जाती है । शहद की मक्खी का दृष्टांत लीजिए । इस मक्खी के छत्ते में इन मक्खियों की एक रानी रहती है । इस रानी मक्खी से अनेक नर मक्खियां संभोग की इच्छा रखते हैं । अंत में जिस नर को वह रानी पसंद करती ह

ज्ञान-गंगा : 7/ चेतन, अचेतन और सृजन

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मनुष्य में और पशु में जन्म और मृत्यु की दृष्टि से कोई भेद नहीं है । न तो मनुष्य को ज्ञात है कि वह क्यों पैदा होता है और क्यों मर जाता है और न ही पशु को ।लेकिन मनुष्य को यह ज्ञात है कि वह पैदा होता है और मरता है । यह ज्ञान पशु को नहीं है । और यह ज्ञान बहुत बड़ा भेद पैदा करता है । इसके कारण ही मनुष्य पशुओं के बीच होते हुए भी पशुओं से भिन्न हो जाता है । वह जीवन पर विचार करने लगता है । जीवन में अर्थ और प्रयोजन खोजने लगता है । वह मात्र होने से तृप्त नहीं होता ।वरन् सप्रयोजन और सार्थक रूप से होना चाहता है ।इससे ही जीवन उसके लिए केवल जीना न होकर, एक समस्या और उसके समाधान की खोज बन जाता है । स्वभाविक है कि इससे तनाव, अशांति और चिंता पैदा होती है । कोई पशु न तो चिंतित है, न अशांत है । मनुष्य अकेला प्राणी है, जिसमें ऊब प्रकट होती है । और वही एकमात्र प्राणी है जो कि हँसता है और रोता है । न तो किसी और पशु को किसी भी भांति उबाया ही जा सकता है और न ही हँसाया । पशु जीते हैं सहज और सरल । कोई समस्या वहां नहीं है । भोजन, छाया या इस तरह की तात्कालिक खोजें हैं, लेकिन जीवन का कोई अनुसंधान नहीं है । न कोई अ