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जनवरी, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

राष्ट्रभाषा, राजभाषा या संपर्कभाषा हिंदी

आज हिंदी को बहुत से लोग राष्ट्रभाषा के रूप में देखते हैं । कुछ इसे राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित देखना चाहते हैं । जबकि कुछ का मानना है कि हिंदी संपर्क भाषा के रूप में विकसित हो रही है । आइए हम हिंदी के इन विभिन्न रूपों को विधिवत समझ लें, ताकि हमारे मन-मस्तिष्क में स्पष्टता आ जाए । राष्ट्रभाषा से अभिप्राय: है किसी राष्ट्र की सर्वमान्य भाषा । क्या हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा है ? यद्यपि हिंदी का व्यवहार संपूर्ण भारतवर्ष में होता है,लेकिन हिंदी भाषा को भारतीय संविधान में राष्ट्रभाषा नहीं कहा गया है । चूँकि भारतवर्ष सांस्कृतिक, भौगोलिक और भाषाई दृष्टि से विविधताओं का देश है । इस राष्ट्र में किसी एक भाषा का बहुमत से सर्वमान्य होना निश्चित नहीं है । इसलिए भारतीय संविधान में देश की चुनिंदा भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में रखा है । शुरु में इनकी संख्या 16 थी , जो आज बढ़ कर 22 हो गई हैं । ये सब भाषाएँ भारत की अधिकृत भाषाएँ हैं, जिनमें भारत देश की सरकारों का काम होता है । भारतीय मुद्रा नोट पर 16 भाषाओं में नोट का मूल्य अंकित रहता है और भारत सरकार इन सभी भाषाओं के विकास के लिए संविधान अनुसा

प्रेम की पातियाँ

प्रेम मुक्त करता है, बांधता नहीं । प्रेम मुक्त गगन का पक्षी है, जो मानव ह्रदय में उड़ान भरता है । प्रेम बरसता है, गरजता नहीं । प्रेम खिलना जानता है,सिकुड़ना नहीं । प्रेम दो ह्रदयों के बीच एक अहसास है । प्रेम मांगना नहीं देना जानता है । प्रेम आँखों में चमकता है, मुँह से झरता है । प्रेम वह सुगंध है, जिसे सुंघने के लिए नाक की जरूरत नहीं । प्रेम वह ध्वनि है, जिसे सुनने के लिए कानों की जरूरत नहीं । प्रेम निर्भय बनाता है, भयभीत नहीं करता । प्रेम में हुआ जाता है, किया नहीं जाता । प्रेम की अनुभूति होती है, प्रदर्शनी नहीं । प्रेम हंसना जानता है, रोना नहीं । प्रेम त्याग जानता है, अधिकार नहीं । प्रेम सोचता नहीं, स्वीकारता है । प्रेम अस्तित्व का रस है और संसार का राग । प्रेम धैर्य देता है और इंतज़ार करता है । प्रेम दिल से संबंधित है, दिमाग से नहीं । प्रेम क्रिया नहीं, अक्रिया है । प्रेम शरीर नहीं, आत्मा का आत्मा से संवाद चाहता है । प्रेम अनंत की अनुभूति देता है । प्रेम सीमाओं के पार असीम की अनुभूति है । प्रेम शांति देता है, अशांति नहीं । प्रेम वह सागर है जो कभी रिक्त नहीं होता । प्रेम में अभाव नही

बहुमूल्य चीज

क्या कभी आपने गौर किया कि बहुमूल्य चीज़ अपने आरम्भिक दौर में कोड़ियों के भाव बिकी हैं या उनका मूल्य पहचाना नहीं गया, लेकिन जब उनका मूल्य पहचाना गया तो वे अनमोल हो गई । आपकी प्रतिभा भी ऐसी ही चीज़ है । यदि आप इसे पहचान लेते हैं, तो शीघ्र ही इसे संसार भी पहचान लेगा ।

भाव-उद्वेग

भाव-उद्वेग में चुप रहना सबसे बड़ा संयम है । भाव-उद्वेग की स्थिति में विवेक मनुष्य का साथ छोड़ देता है और मनुष्य अनुचित कर्म कर बैठता है । गुस्सा भाव-उद्वेग का ज्वलंत रूप है । गुस्से में जो मौन को साध कर अंतस-चित्त का अध्ययन करता है, वह शांत होना सीख जाता है ।

जिंदगी की ए बी सी

जिंदगी की ए बी सी अर्थात जिंदगी का आधार क्या है ? सार्थक जिंदगी क्या है ? जीवन को कैसे जिया जाए कि जीवन में आनंद घटित हो । अंग्रेजी के पाँच शब्दों से हम इसे समझने की कोशिश करते हैं । जीवन की ए अवेयरनेस (awareness) अर्थात सजगता है । व्यक्ति की सजगता उसके जीवन को बनाने में अहम भूमिका निभाती है । यह सजगता ही है जो व्यक्ति की रुचियाँ निर्मित करती है । जहाँ व्यक्ति सहज रूप में सजग होता है, वही उसका मूल रुचि का विषय होता है । व्यक्ति अपनी सजगता,जागरुकता का दायरा बढ़ा कर विभिन्न विषयों में रुचि पैदा कर सकता है । व्यक्ति की सजगता जितने अधिक विषयों में होगी, उतनी ही उसकी बुद्धि प्रखर होगी । जहाँ व्यक्ति में सजगता का अभाव होगा, वहाँ वह कुछ खो देगा । लेकिन जहाँ कहीं वह सजग होगा, वहाँ जरूर वह कुछ न कुछ अपनी रुचि का ढ़ूढ़ लेगा । उचित होगा यदि हम कहें कि सजगता ज्ञान की कुंजी है । सजगता के दायरे को बढ़ा कर हम अधिकतम ज्ञान अर्जित कर सकते हैं । जीवन की बी बिलीफ़ ( belief) अर्थात विश्वास या धारणा है । व्यक्ति के विश्वास या धारणाएँ कैसी हैं ? यह उसके जीवन के प्रति दृष्टिकोण को निर्धारित करते हैं । हर व

दु:ख

देखा है जिंदगी को कुछ इतने करीब से कि दुख के सिवाय सब बेगाने लगने लगे हैं जीवन में जब सुख आता है तो वह बँटना चाहता है । लेकिन जब दुख आता है तो मनुष्य संकुचित हो जाता है । स्वयं में सिमट जाना चाहता है । वस्तुत: दुख सुख की जड़ है । जिस आदमी के जीवन में दुख नहीं वह जड़ विहीन वृक्ष की तरह है, जो शीघ्र ही कुम्हला जाएगा । दुख व्यक्ति के सर्वाधिक निकट है । जो व्यक्ति दुख की गहराइयों में नहीं प्रवेश करता ,वह सुख की ऊँचाइयाँ भी नहीं छू सकता । जो दुख कि गहराइयों में प्रवेश करता है, उसके सुख की ऊँचाइयाँ इतनी बुलंद होंगी की उसकी सघन छाया में सारा संसार विश्राम करता है ।

झूठ

कुछ झूठ समाज में स्थापित मूल्य बनकर सत्य के सिंहासन पर आरुढ़ होने का दावा करते हैं । दूसरे दि न: पुनश्च : आपके मन में उक्त उक्ति से जो भी भाव आया, कृपया उसे टिप्पणी के रूप में देकर अनुगृहीत करें ।

हमारा मीडिया किस ओर जा रहा है ?

हमारा मीडिया किस दिशा में जा रहा है ? क्या आप थोड़ी देर मेरे साथ विचार करने को तैयार होंगे ? मीडिया चाहे वह प्रिंट मीडिया हो या दृश्य-श्रव्य मीडिया । क्या वह अपने उद्देश्यों पर खरा उतर रहा है ? क्या वह जनतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में अपनी भूमिका बखूबी निभा रहा है ? इन्हीं सवालों के जवाब खोजने के लिए मैं आपसे संवाद स्थापित करना चाहता हूँ । हमारे मीडिया का सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य मेरी नजर में है : लोगों को शिक्षित करना । उसका दूसरा उद्देश्य है लोगों को सूचना उपलब्ध कराना । मीडिया का तीसरा उद्देश्य है लोगो को उनके अधिकारों से अवगत कराना । मीडिया का चौथा उद्देश्य है सरकार की गलत नीतियों को जनता के समक्ष लाना और सबसे बढ़कर सरकार, न्याय और सत्ता के गलियारों की खोजबीन करना ताकि आम नागरिक के पैसों और अधिकार का दुरुपयोग न हो सके ... देश और देश की जनता के समक्ष सच को उजागर करना । मेरे देखे मीडिया आज इन कामों में से किसी को भी अंजाम नहीं दे रहा है । ऐसा प्रतीत होता है कि मीडिया स्वयं आज बीक चुका है, जो चंद लोगों के हितों का ध्यान रखता है । वह न तो लोगों शिक्षित कर रहा है । न ही सही सूचना ही लोगों

भाषा की क्लिष्टता

अक्सर लोग भाषा की क्लिष्टता की बात करते हैं । वस्तुत: भाषा क्लिष्ट नहीं होती । किसी भी भाषा में प्रयुक्त होने वाले शब्द परिचित या अपरिचित होते हैं । यदि हमें किसी भाषा के किसी शब्द का अर्थ मालूम नहीं है , तो हमें उस शब्द से परिचय प्राप्त करना चाहिए । शब्दों का परिचय विभिन्न स्रोतों से लिया जा सकता है; उदाहरणार्थ - शब्दकोश, समांतरकोश (थिजारस) आदि । शब्दों की उत्पत्ति होती है और शब्द मर भी जाते हैं । किसी शब्द की व्युत्पत्ति का अध्ययन इटायमोलॉजी में किया जाता है । शब्द तब तक जिंदा रहता है, जब तक वह व्यवहार में लाया जाता रहता है । आज शहरों में बहुत से देशज शब्द विलुप्त प्राय: हो गए हैं; क्योंकि उनका शहरों में प्रचलन बंद सा हो गया है ; जैसे कान्वेन्ट स्कूलों में पढ़े बच्चों को खाट, जुगाली, कुदाली, रैन्दा आदि शब्दों से अनभिज्ञता देखने को मिलेगी । क्योंकि शहरों में खाट (चारपाई)का प्रयोग लगभग बंद सा हो गया है, इसकी जगह अंग्रेजी का बैड या कॉट शब्द व्यवह्रत हो रहा है । शहरों में पढ़े बच्चों ने चौपायों के व्यवहार को भी नहीं देखा है, कि किस तरह से चौपाया पशु पहले बिना चबाए चारा खा जाते हैं और फिर ब

वर्ष २००९ में प्रसिद्ध हस्तियों ने क्या पढ़ा ?

हर वर्ष कुछ अच्छा लिखा जा रहा है । कुछ पुराना नए कलेवर और साज़-सज्जा के साथ पुन: प्रकाशित होता है । वर्ष २००९ में प्रसिद्ध हस्तियों ने इनमें से क्या पढ़ा, जो उन्हें पसंद आया ... इस पोस्ट में विभिन्न माध्यमों से संकलित सामग्री दे रहा हूँ... शायद आप भी कोई रचना पढ़ें और इनका आनंद ले सकें : - कवयित्री अनामिका और अर्चना वर्मा ने पुरुषोत्तम अग्रवाल की पुस्तक " अकथ कहानी प्रेम की " को बेहतरीन पाया । अनामिका की दृष्टि में कथ्य और भंगिमा की दृष्टि से यह उम्दा किताब है । निधि और संवेद अनुभव में लिखी यह पुस्तक कोमल कोलाहल मन से शांति की बात करती है । हालांकि आलोचना की पुस्तक एकेडमिक भाषा में लिखी जाती है, लेकिन लेखक ने इसमें अपनी ही शैली को तोड़ा है । अर्चना वर्मा कवयित्री और आलोचक इस पुस्तक के बारे में कहती हैं : यह हिंदी समीक्षा और मध्यकालीन समीक्षा एवं समकालीन समीक्षा के भीतरी परिवर्तन को दिखाने वाली किताब है । यहां हिंदी में उत्तर-औपनिवेशिक दृष्टिकोण दिखाई देता है । यह पुस्तक पश्चिमी दर्शन से लोहा लेते हुए भारतीय दर्शन को दर्शाती है कि हमें खुद की पहचान करनी चाहिए । इससे स्पष्ट

दफ्तर की ज़िन्दगी

दफ़्तर की जिंदगी कितनी निरस और उबाऊ होती है, इसका अहसास होने लगा है । दफ्तर में व्यक्ति का व्यक्तित्व खोने लगता है । उसकी आत्मा मरने लगती है । वह व्यक्ति नहीं बल्कि वस्तु अधिक होता है ; जिसका अधिकारी मनचाहा प्रयोग करते हैं । उसकी निजी स्वतंत्रता दफ़्तरी तंत्र में खो जाती है । एक तर्कसंगत और बुद्धिपूर्ण बात आप अपने से बड़े अधिकारी से मात्र इसलिए नहीं कह सकते कि वह आप से ऊँची कुर्सी पर बैठा है । यदि कहो तो यह बुद्धिहीनता और अनुभवहीनता को बताने वाली होती है । क्योंकि ऊँची कुर्सी पर बैठा अधिकारी चाटुकारिता का आदि है और उसकी नज़र में वह दुनिया का सबसे बड़ा समझदार व्यक्ति है । एक संवेदनशील व्यक्ति के लिए दफ़्तर नरक साबित होता है । (८ फरवरी १९९९, सोमवार को लिखी डायरी का अंश )