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अमीर खुसरो की चतुराई

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एक बार गर्मियों के दिनों में अमीर खुसरो किसी गाँव की यात्रा पर निकले थे । रास्ते में उन्हें बहुत जोर की प्यास लगी । वे पानी की खोज में एक पनघट पर जा पहुँचे । वहां चार पनिहारिनें पानी भर रही थी । खुसरों ने उनसे पानी पिलाने का अनुरोध किया । उनमें से एक पनिहारिन खुसरो को पहचानती थी । उसने अपनी तीनों सहेलियों को बता दिया कि पहेलियाँ बनाने वाले यही अमीर खुसरों हैं । विदित है कि अमीर खुसरो अपनी पहेलियों,मुकरियों तथा दो-सखुनों के लिए जगत प्रसिद्ध हैं । फिर क्या था ? चारों पनिहारिनों में से एक ने कहा मुझे खीर पर कविता सुनाओ, तब पानी पिलाऊंगी । इसी तरह से दूसरी पनिहारिन ने चरखा, तीसरी ने ढोल और चौथी ने कुत्ते पर कविता सुनाने के लिए कहा । खुसरो बेचारे प्यास से व्याकुल थे । पर खुसरो की चतुराई देखिए कि उन्होंने एक ही छंद में उन सबकी इच्छानुसार कविता गढ़ कर सुना दी -               खीर पकाई जतन से, चरखा दिया जला । आया कुत्ता खा गया, तू बैठी ढोल बजा ।।                                                  ला पानी पीला ।  यह सुन कर पनिहारिनों की खुशी का ठीकाना न रहा । उन्होंने खुश होकर खुसरो को न केवल पानी

पूर्ण उपस्थिति

प्रत्येक व्यक्ति अपनी दृष्टि से ठीक है सच्चा भी, झूठा भी, पुण्यात्मा भी, पापी भी, सत्चरित्र भी, कुचरित्र भी, ईमानदार भी, ज्ञानी भी और अज्ञानी भी  अगर व्यक्ति जहां है, वहां पूरी तरह मौजूद है, उपस्थित है होश के साथ तो उक्त भेद मिट जाते हैं और व्यक्ति आत्मस्वरूप को प्राप्त होता है । 

पढ़ना और समझना

जब मैं कुछ पढ़ता हूँ  और उससे अर्थ ग्रहण करता हूँ  और जब आप कुछ पढ़ते हैं और उसका अर्थ ग्रहण करते हैं यह जरूरी नहीं कि हमने जो पढ़ा  और उसका जो अर्थ ग्रहण किया वह वही है जो कि लेखक का रहा होगा नहीं, बहुत कम संभावनाएँ हैं  कि कोई लेखक अपना वास्तविक संदेश  लोगों तक संप्रेषित कर पाए । यही कारण है कि बहुत सी पुस्तकों की  बहुत सी टीकाएँ की जाती हैं  व्यक्ति किसी बात से  वही अर्थ लेता है जो वह समझता है  और वह वही समझता है जो कि वह जीता है  उसका जीवन दृष्टिकोण ही चीजों को अर्थ देता है बहुत से लोग जो वातावरण से प्रदूषित हैं उनका स्वयं का कोई दृष्टिकोण नहीं होता  क्योंकि उनका स्वयं का कोई जीवन ही नहीं होता .

संसार के पाँच शाश्वत नियम

संसार में पाँच शाश्वत नियम हैं : स्वार्थ : संसार का पहला नियम । धोखा : संसार का दूसरा नियम । लालच : संसार का तीसरा नियम । संग्रह : संसार का चौथा नियम । दुख : संसार का पाँचवाँ नियम । पहले चार नियम स्वैच्छिक हैं, पाँचवाँ इनके पीछे स्वत: चला आता है ।

जर जोरु और जमीन

एक पुरानी कहावत है कि हर झगड़े की जड़ जर,जोरु और जमीन ही होती है । यह कहावत आदिकाल युग और सामंतवादी युग तथा औद्योगिक युग की अपेक्षा इस उत्तर आधुनिक युग में अधिक सही प्रतीत होती है । आज समाज में नारी की स्थिति एक वस्तु से ज्यादा नहीं है और स्वयं नारी ने अपने रूप और सौंदर्य के बाजार में भाव लगाने शुरु कर दिए हैं । कोई अपने कौमार्य की बोली लगा रही है तो कोई स्वयं की खूबसूरती के जादू को बाजार में बेच रही है ।

पढ़ने की कला

लोगों में पढ़ने की आदत दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही है । इसके कई कारण हैं । शिक्षा का ढ़ाँचा भी बहुत बदल गया है । शिक्षा ज्ञान प्राप्ति के लिए नहीं डिग्री के लिए ली जा रही है । पुस्तक पढ़ने का लोगों के पास समय नहीं है । फिर लोगों के नौकरी-पेशे ऐसे हो गए हैं कि वे उन्हीं में उलझ कर रह जाते हैं । समाज के उच्च वर्ग ने पुस्तकों की जगह अन्य साधन अपना लिए हैं । मध्यम वर्ग के लिए पुस्तकें महंगी हैं । वह पुस्तक खरीद कर पढ़ नहीं पा रहा है । पुस्तकालय जाने का चलन भी बहुत कम हो गया है । पुस्तकालयों में पुस्तके धूल चाट रहीं हैं । दूसरी ओर ज्ञान का विस्फोट भयंकर हुआ है । पिछले २० सालों में ज्ञान में जो वृद्धि हुई है, वह पिछले १००० सालों में नहीं हुई थी । किसी भी व्यक्ति से यह अपेक्षा नहीं रखी जा सकती कि वह संसार का नवीनतम ज्ञान रखता है । विषयों की बहुलता और लगातार बढ़ती पुस्तकों में से अपनी पसंद का विषय व पुस्तकें चुनना तक कठिन हो गया है । इसलिए किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए यह जरूरी है कि वह अपने पेशे से जुड़े विषय के साथ कोई एक अन्य विधा जरूर चुने जैसे साहित्य में कविता,कहानी,उपन्यास,नाटक, रिपोर्ता

कुछ मुक्तक

जिंदगी हमसे इस कदर रुठी है कि हर साँस का हिसाब माँग बैठी है मोहब्बत हमसे इस कदर रुठी है कि हर पल के साथ का हिसाब माँग बैठी है दिल था हमारा एक छोटा सा उसमें भी तुम्हारा अक्श था जो तुम्हारी साँसों से धड़कता था आज वही तार-तार है बेजान सा क्यों हमसे इतनी परीक्षा ली जा रही है हम तो बस वही थे जो तूने बनाया इसे कोरा बनाए रखना भी क्या गुनाह है इस अनुभवी लोगों की दुनिया में

बढ़ते शहर घटती कृषि योग्य जमीन

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जब मैं छोटा बच्चा था और अपने गाँव से चंडीगढ़ आना होता था, तो सड़कों के दोनों ओर कितना मनोहारी दृश्य होता था । सड़क के दोनों ओर से प्रकृति की सुंदर छटाएँ देखने को मिलती थी । रबी की फसलें जब अपने यौवन पर होती थी, तब दूर-दूर तक सरसों के पीले फूलों से पीली हुई धरती यूं लगती थी मानो धरती ने पीले वस्त्र ओढ़ लिए हों । लेकिन आज जब इन्हीं सड़कों से यात्रा करता हूँ तो खेत-खलिहान की जगह मुझे दिखाई देती हैं बड़ी-बड़ी सिमेंट कंकरीट की गगनचुंबी इमारतें । दिल्ली से चंडीगढ़ की जी.टी.रोड पर अब वो प्रकृति के नजारे कहाँ नजर आते हैं । जहां खेत होते थे वहाँ आबाद हो गए हैं शहर और शहरों में खो गए वो खेत और खलिहान । कई बार सोचता हूँ कि पंजाब और हरियाणा देश के दो बड़े अन्न उत्पादक राज्य हैं, यहीं उत्तम किस्म का चावल पैदा होता है और गेहूँ तो सारे देश को ये राज्य देते ही हैं । इन उपजाऊ भूमि वाले प्रदेशों पर कंकरीट के ये जंगल यूँ ही बढ़ते रहे तो आने वाले वर्षों में देश को अनाज कौन पैदा करके देगा । क्या हमारी सरकार के पास इस दिशा में सोचने और नीति बनाने की कोई योजना है ? जो इन राज्यों में बढ़ते शहरीकरण को रोक सके । इन प्रदे

सुनना, करना और समझना

सत्य की अनुभूति होती है । किसी ज्ञानी जन से इसके संबंध में सुनने मात्र से प्राण परितृप्त नहीं होते । इसके संबंध में शास्त्र पढ़ लेने पर भी सत्य की प्यास नहीं बुझती । इस सत्य की प्यास तब तक नहीं मिटती जब तक कि यथार्थ में उसकी अनुभूति नहीं होती । सुनने और सोचने से यह नहीं मिल सकता । ठीक उसी प्रकार जैसे कि किसी मरुभूमि में यात्रा कर रहे यात्री के पास किसी जलाशय का सारा विवरण , नक्शा मौजूद हो । लेकिन जब तक वह उस जलाशय तक की यात्रा तय नहीं कर लेता , तब तक उसकी प्यास नहीं मिट सकती । बेशक कोई व्यक्ति जो उस दिशा से आ रहा है, प्यासे व्यक्ति को रास्ते का संकेत कर सकता है कि कुछ दूर जाइए , वहाँ तुम्हें दो पगडंडियाँ मिलेंगी । एक दाहिनी ओर जाती है और दूसरी बाईं ओर जाती है । तुम दाहिनी ओर जाना । कुछ दूर जाने पर तुम्हें जलाशय मिलेगा और वहीं प्राणों को परितृप्त करनेवाला अमृत - तुल्य शीतल जल और छाँह भी । क्या जलाशय और छाँह के वर्णन मात

नैतिक साहस

ओशो उन दिनों जबलपुर सागर विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक थे । एक दिन वे नीतिशास्त्र पढ़ा रहे थे । ऐसा कभी नहीं होता था कि ओशो कक्षा में व्याख्यान दे रहे हों और कोई छात्र किसी दूसरे छात्र से बातों में लगा हो । लेकिन उस दिन सामने की बैंच पर बैठी दो छात्राएँ आपस में बाते कर रही थी । ओशो का ध्यान जब इन छात्राओं की ओर गया तो ओशो ने व्याख्यान बीच में रोक कर कहा कि अब हम विराम लेते हैं और सामने बैठी छात्राओं की बातें सुनते हैं ; क्योंकि मेरे व्याख्यान से भी अधिक महत्वपूर्ण इनकी बातें हैं, हमें इन्हें सुनना चाहिए । तब ओशो ने छात्राओं को इंगित कर कहा कि जिस विषय पर तुम बात कर रही हो, वह हम सबके साथ बाँटों । ताकि हम भी उससे लाभान्वित हों । लेकिन ओशो की बात सुन कर छात्राएँ चुप बैठी रही । तब ओशो ने छात्राओं को कहा कि नीतिशास्त्र पढ़ती हो और इतना भी नैतिक साहस नहीं जुटा पा रही कि कुछ देर पहले जो बात तुम कर रही थी, उसे सभी के सामने कहने का साहस कर सको । इस घटना के बाद उन छात्राओं ने कक्षा में कभी व्याख्यान के समय आपस में बात न की ।

पशु और बुद्धत्व

एक झेन कथा :  शोदाई एरो जो ध्यान की शिक्षा ग्रहण करना चाहता था, ध्यान सीखना चाहता था । इस प्रयोजन हेतु वह बासो के पास आया । बासो ने एरो से पूछा, "तुम्हारा आना किस लिए हुआ है ?" एरो ने कहा, "मुझे ज्ञान चाहिए, मैं ध्यान सीखना चाहता हूँ और बुद्धत्व की प्राप्ति चाहता हूँ ।" "बुद्धत्व की प्राप्ति असंभव है । ऐसे ज्ञान का संबंध शैतान से है । " बासो का जवाब था । एरो बासो की बात नहीं समझा । तब बासो ने उसे सेकितो नाम के एक अन्य झेन गुरु के पास भेज दिया । एरो ने सेकितो के पास जाकर पूछा, " बुद्धत्व क्या है ? " सेकितो ने कहा, "तुममें बुद्धत्व के लक्षण नहीं हैं । " एरो ने पूछा, "क्या पशु बुद्ध हो सकते हैं ?" सेकितो ने कहा,"हाँ, वे हैं ।" एरो ने स्वाभाविक जिज्ञासा से प्रश्न किया - "फिर मैं बुद्ध क्यों नहीं हो सकता ?" सेकितो ने जवाब दिया,"क्योंकि तुम पूछते हो " झेन गुरु सेकितो के उक्त कथन से एरो की उलझन मिट गई और उसे ज्ञान हो गया ।

सरलता

बहुचित्तता से जटिलता आती है । एक चित्तता से सरलता आती है । बहुचित्तता चीजों के साथ तादात्म्यता है । चीजों के साथ तादात्म्यता काट देने से एक चित्तता आएगी । व्यक्ति सरल होगा । बच्चे की सरलता स्वाभाविक है । व्यक्ति की सरलता एक अर्जित गुण है... जिसे बहुचित्तता के बाद...तादात्म्य को काट कर पाना है । जटिल होकर फिर से बच्चे जैसी सरलता पाना ही बुद्धत्व है ।

क्या तटस्थ होना बुरा है ?

क्या तटस्थ होना बुरा है ? तटस्थता क्या है ? मनुष्य तटस्थ क्यों होता है ? आइए आज इन्हीं विषयों पर चर्चा करें । तटस्थता का मतलब त्याग , संन्यास या वैराग्य नहीं है । तटस्थता का मतलब अतिवादी होना भी नहीं है । तटस्थता का मतलब किसी विचार के पक्ष या विपक्ष में खड़े होना भी नहीं है । तटस्थता का अर्थ मध्यम मार्ग भी नहीं है । तटस्थ होने का अर्थ है मन की एक ऐसी अवस्था जब व्यक्ति विचार और व्यवहार में एकरूपता नहीं देखता । दोनों के बीच एक गहरी खाई देखता है । इस वैचारिक द्वंद्व के चलते व्यक्ति के पास विश्लेषण तो होता है , लेकिन यथार्थ की भूमि नहीं होती । यह अवस्था साक्षी भाव की ओर ले जाने वाली द्वंद्वात्मक स्थिति है । यानि इस स्थिति में व्यक्ति स्वयं के भीतर झांकता है और चीजों को देखता है । लेकिन उस संबंध में निर्णय देने की स्थिति में नहीं होता । इस स्थिति से उबरना तभी संभव है जब व्यक्ति वैचारिक स्तर और व्यवहारिक स्तर पर कोई संतुलित सत्य

दूरदर्शिता

दूरदर्शिता व्यवहारिक हो सकती है, लेकिन व्यवहारिकता कभी दूरदर्शी नहीं हो सकती ।