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सोलह संस्कार

भारतीय संस्कृति में जीवन के विकास क्रम में सोलह संस्कारों की बहुत महत्ता है । ये संस्कार गर्भाधान से शुरु होकर अंत्येष्टि तक हैं । ये संस्कार परिवार द्वारा प्रवृत्त होते थे, परिवार की संस्था के साथ ही इनका आविर्भाव हुआ । परिवार वस्तुत: इन्हीं संस्कारों द्वारा संचालित था । ये सोलह संस्कार इस प्रकार हैं : 1. गर्भाधान : श्रेष्ठ संतान की इच्छा से यह संस्कार किया जाता है । पच्चीस वर्ष के पुरुष और सोलह वर्ष की स्त्री विवाह बंधन के बाद इस संस्कार के लिए पात्र होते हैं । जीवन के उद्देश्य को स्मरण करके, अपने आदर्शों के अनुकूल मनोदशा रख कर व उत्तम विचारों को धारण करते हुए, स्त्री-पुरुष संतानोत्पत्ति के लिए संसर्ग करें और बच्चे के लिए माँ गर्भ धारण करे । यही इस संस्कार का उद्देश्य है । 2.पुंसवन : गर्भ के तीसरे मास के भीतर गर्भ की रक्षा और बच्चे के उत्तम विकास के लिए यह संस्कार किया जाता है । इस संस्कार में स्त्री-पुरुष प्रतिज्ञा करते हैं कि वे कोई भी ऐसा कार्य मनसा,वाचा,कर्मणा नहीं करेंगे जिससे गर्भ में विकसित हो रहे बच्चे के विकास में बाधा पहुँचे । 3. सीमंतोन्नयन : यह संस्कार गर्भ के सातवें या

सम्यक निरीक्षण

सामने शून्य जगत में जो परिवर्तन हो रहे हैं वे अज्ञान के कारण ही यथार्थ दीख पड़ते हैं ; सत्य के पीछे दौड़ने की कोशिश मत करो , केवल मन की सारी आस्थाओं और विचारों को छोड़ दो । - ओशो   ज्योंही सत-असत का द्वैत खड़ा होता है ,  भ्रांति पैदा होती है , मन खो जाता है ।   हम अपने मन को पहचाने , देखें ।   इसकी गति-विधि का निरीक्षण करें  । जिसे तुम चाहते हो , उसे   उसके विरुद्ध खड़ा कर देना, ; जिसे तुम नहीं चाहते - मन का सबसे बड़ा रोग है ।   जब पथ के गूढ़ अर्थ का पता नहीं होता ,  तब मन की शांति भंग होती है , जीवन व्यर्थ होता है ।   मूक दर्शक रहें , पक्ष ग्रहण न करे , बल्कि अपनी वासनाओं , विचारों को ऐसे ही देखे जैसे कोई सागर पर खड़ा हो , सागर की लहरों को देखता हो । कृष्णमूर्ति ने इसे निर्विकल्प सजगता कहा है । यह बिल्कुल तटस्थ निरीक्षण है ।

स्वयं होना काफी है

1. सिर्फ अज्ञान के कारण ही दो व्यक्ति किसी एक बात पर राजी होते हैं । 2. किसी भी तरह की प्रभावित करने की चेष्टा बहुत गहरे में दूसरे व्यक्ति को गुलाम बनाने की चेष्टा है । 3. प्रभावित होने से बचना हो तो पक्ष-विपक्ष से बचना पड़ता है । नहीं तो प्रभाव पड़ ही जाता है । 4. प्रत्येक व्यक्ति अद्वितीय है । दूसरों से तुलना न करें । 5. एक-एक मनुष्य अतुलनीय है । 6. न मानने की फिक्र करना, न न मानने की । 7. आदमी एक अनंत घटना है । उसमें अनंत रूप हैं । 8. स्वयं की विचार प्रक्रिया को समझें । 9. आदमी का मन बहुत आश्चर्यजनक है, उसके लिए निषेध ही आमंत्रण है । 10. मित्र जब दुखी होते हैं, तो दुश्मनी से कम पर नहीं रुकते । 11. मैं मित्र नहीं बनाता, क्योंकि मित्रता में पोटेंशियल शत्रु छिपा है । 12. जिंदगी बहुत इनकंसिस्टेंट है, सिर्फ मौत कंसिस्टेंट है । 13. अधिकतर संत सैडिस्ट होते हैं या मेसोचिस्ट होते हैं ।या तो वे दूसरे को सताते हैं या स्वयं को सताते हैं । और जो खुद को सताने में कुशल होता है वह दूसरे को सताने का अधिकार पा जाता है । 14. जब तक सीधे सत्यों को देखने की हिम्मत न जुटाएँ, बड़ी मुश्किल होत

ओशो के चिर-स्मरणीय दस सूत्र

1. किसी की आज्ञा कभी मत मानों, जब तक कि वह स्वयं की ही आज्ञा न हो । 2. जीवन के अतिरिक्त और कोई परमात्मा नहीं है । 3. सत्य स्वयं में है, इसलिए उसे और कहीं मत खोजना । 4. प्रेम प्रार्थना है । 5. शून्य होना सत्य का द्वार है; शून्यता ही साधन है, साध्य है, सिद्धि है। 6. जीवन है, अभी और यहीं । 7. जियो, जागे हुए । 8. तैरो मत - बहो । 9. मरो प्रतिपल ताकि प्रतिपल नए हो सको । 10. खोजो मत; जो है - है; रुको और देखो ।

नए की खोज

(नए के प्रति ओशो का नजरिया ) 1. हर पल और हर क्षण नया होता है । 2. दुनिया में दो ही तरह के लोग हैं, एक वे जो अपने को नया करने का राज खोज लेते हैं और एक वे जो अपने को पुरानाबनाए रखते हैं । 3. उत्सव हमारे दुखी चित्त के लक्षण हैं । 4. जब तक दुनिया में दुखी आदमी हैं तभी तक उत्सव हैं । 5. जिस दिन दुनिया में प्रसन्न लोग रहेंगे उस दिन उत्सव नहींरहेंगे; क्योंकि रोज ही उत्सव का दिन होगा । 6. जब दुनिया में दुखी लोग हैं तब तक मनोरंजन के साधन हैं । जिस दिन आदमी आनंदित होगा उस दिन मनोरंजन के साधन एकदम विलीन हो जाएंगे । 7. सिर्फ दुखी आदमी मनोरंजन की खोज करता है और सिर्फ दुखी आदमी ने उत्सव ईजाद किए हैं । 8. रोज नया चित्त हो तो रोज नया दिन हो । 9. जो एक क्षण में शांत होने की तरकीब जान लेता है वहपूरी जिंदगी शांत रह सकता है ; क्योंकि एक क्षण से ज्यादाकिसी आदमी के हाथ में दो क्षण होते ही नहीं । 10. पुराना करने की तरकीबों में हम निष्णात हैं ; प्रत्येक चीजमें पुराने को खोजने को इतने आतुर हैं जिसका कोई हिसाबनहीं । 11. मनुष्य कितना विरोधाभासी सोचता है ; एक तरफ वहनिरंतर पुराने की अपेक्षा किए

क्षणिकाएँ

दु:ख सुख से पार आनंद इच्छा मन से है दु:ख इच्छा पूर्ति से है सुख मोह शोक से है बंधन मोह इच्छा शोक  गए कटे बंधन जिंदगी खिलौना फिर भी शोक 

हाइकू

चल रहा जिंदगी का खेल मुड़ती-तुड़ती सांसों में एक सपना टूटा बच्चा हँसा अहम गिरा टप...टप..टप वृक्ष से पत्ता गिरा मन में कुछ हिला कितना क्षण-भंगुर यह जीवन बिजली चमकी बादल खड़का दिल धड़का मन का शौर एक कौने में जा दुबका ऊँचे होते मकान बौने होते मूल्य खोखले होते इंसान

भावनाएँ

भावनाओं के एक ही कुवे में बार-बार डूबकी न लगाएँ । अधिक उचित होगा यदि कहें कि ... स्वयं की भावना के एक ही कुवे में बार-बार डूबकी लगाना उचित नहीं ।

डिगरी

लोगों को आप से अधिक आप की डिगरियों पर अधिक विश्वास है । वे आपको आपकी डिगरियों से पहचानते हैं । @ मनोज भारती

बिगड़े हालातों में काश्मीर का दौरा

अभी परसों ही काश्मीर घाटी से लौटा हूँ । कार्यालय के काम से श्रीनगर जाना हुआ । कुल 10 दिन श्रीनगर में रहा । इन 10 दिनों में जहाँ काश्मीर के नैसर्गिक सौंदर्य को देखने का अवसर मिला वहीं दूसरी ओर काश्मीर की वर्तमान स्थिति को देखने व समझने का एक अनुभव भी रहा । श्रीनगर शहर को अब तक आरजू, काश्मीर की कली जैसी फिल्मों और गुल गुलशन गुलफाम जैसे टी.वी. धारावाहिकों या काश्मीर पर बनी डाक्यूमेंटरी फिल्मों में ही देखा था । धरती का स्वर्ग कहा जाने वाला काश्मीर वस्तुत: स्वर्ग ही है । चारों ओर फैला नैसर्गिक सौंदर्य आँखों को अद्-भूत सुकून और आनंद देता है । श्रीनगर एअर-पोर्ट से निकलते ही जिन सुंदर वादियों, मकानों और सड़कों के दर्शन होते हैं, वे खूबसूरत अहसास देते हैं । यद्यपि मैं श्रीनगर सड़क मार्ग से जाने वाला था, लेकिन घाटी के हालात बिगड़ जाने से जम्मू-श्रीनगर रास्ता बंद कर दिया गया था । इसलिए मुझे जम्मू से श्रीनगर का सफर एअर से करना पड़ा । फिर श्रीनगर पहुँचते ही कार्यालय के कामों व मिटिंग की व्यस्तताओं में डूबा रहा । इस दौरान डल झील और लाल चौक के आस-पास के इलाके में आना जाना लगा रहा । कभी मिटिंग में शाम

स्त्री और पुरुष

कोई पुरुष कभी भी किसी स्त्री से नहीं जीत सकता । क्योंकि पुरुष का उद्-गम स्त्री से है, उसे अस्तित्व में लाने वाली स्त्री है और पुरुष स्वयं अस्तित्व से बड़ा हो नहीं सकता । - मनोज भारती