संदेश

जून, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ओशो की डायरी से:5:

यह सत्य है कि मनुष्य अब पशु नहीं है;लेकिन क्या यह भी सत्य है कि मनुष्य,मनुष्य हो गया है? पशु होना अतीत की घटना हो गई है पर मनुष्य होना अभी भी भविष्य की संभावना है।शायद हम मध्य में हैं और यही हमारी पीड़ा है,यही हमारा तनाव है,यही हमारा संताप है। जो प्रयास करते हैं और स्वयं के इस पीड़ा-अस्तित्व से असंतुष्ट होते हैं,वे ही मनुष्य हो पाते हैं।मनुष्यता मिली हुई नहीं है,उसे हमें स्वयं ही स्वयं में जन्म देना होता है। लेकिन मनुष्य होने के लिए यह आवश्यक है कि हम पशु न होने को ही मनुष्य होना न समझ लें और जो हैं उससे तुष्ट न हो जावें। स्वयं से गहरा और तीव्र असंतोष ही विकास बनता है। मैं तथाकथित शिक्षा से कितना पीड़ित हुआ हूं,कैसे बताऊं? सिखाया हुआ ज्ञान,विचार की शक्ति को तो नष्ट ही कर देता है। विचारों की भीड़ में विचार की शक्ति तो दब ही जाती है। स्मृति प्रशिक्षित हो जाती है और ज्ञान के स्रोत अविकसित ही रह जाते हैं। फिर यह प्रशिक्षित स्मृति ही ज्ञान का भ्रम देने लगती है। इस तथाकथित शिक्षा में शिक्षित व्यक्ति को नए सिरे से ही विचार करना सीखना होता है। उसे फिर से अशिक्षित होना पड़ता है। यही मुझे भी कर

ओशो की डायरी से :4:

समाधि में क्या जाना जाता है? कुछ भी नहीं। जहां तक जानने को कुछ भी शेष है,वहां समाधि नहीं है। समाधि सत्ता के साथ एकता है- जानने जितनी भी दूरी वहां नहीं है। संसार में संसार के होकर न रहना संन्यास है। पर बहुत बार संन्यास का अर्थ उन तीन बंदरों की भांति लगा लिया जाता है जो कि बुरे दृश्यों से बचने के लिए आंख बंद किए हैं और बुरी ध्वनियों से बचने के लिए कान और बुरी वाणी से बचने के लिए मुख। बंदरों के लिए तो यह क्षम्य है लेकिन मनुष्यों के लिए अत्यंत हास्यास्पद। भय के कारण संसार से पलायन मुक्ति नहीं वरन् एक अत्यंत सूक्ष्म और गहरा बंधन है। संसार से भागना नहीं,स्वयं के प्रति जागना है। भागने में भय है, जागने में अभय की उपलब्धि। ज्ञान से प्राप्त अभय के अतिरिक्त और कुछ भी मुक्त नहीं करता।  क्या निर्वाण और मोक्ष भी चाहा जा सकता है? निर्वाण को चाहने से अधिक असंगत बात और कोई नहीं है, क्योंकि जहां कोई चाह नहीं है, वहीं निर्वाण है। चाह ही अमुक्ति है तो मोक्ष कैसे चाहा जा सकता है? किंतु मोक्ष को चाहने वाले व्यक्ति भी हैं और तब स्वाभाविक ही है कि उनका तथाकथित संन्यास भी बंधन का एक रूप हो और संसार का ही एक

ओशो की डायरी से :3:

मैं खोजता था तो मौन से बड़ा कोई शास्त्र नहीं पा सका। और शास्त्र खोजे तो पाया कि शास्त्र व्यर्थ हैं, और मौन ही सार्थक है। कहां जा रहे हो? जिसे खोजते हो,वह दूर नहीं निकट है।और जो निकट है,उसे पाने को यदि यात्रा की तो उसके पास नहीं,उसके दूर ही निकल जाओगे। ठहरो और देखो। निकट को पाने के लिए ठहरकर देखना ही पर्याप्त है।  मुक्ति न तो प्रार्थना से पाई जाती है,न पूजा से, न धर्म-सिद्धांतों में विश्वास से। मुक्ति तो पाई जाती है अमूर्च्छित जीवन से। इसलिए मैं कहता हूँ कि प्रत्येक विचार और प्रत्येक कर्म में अमूर्च्छित होना ही प्रार्थना है,पूजा है और साधना है। उसे सोचो जिसे कि तुम सोच ही नहीं सकते हो और तुम सोचने के बाहर हो जाओगे।सोचने के बाहर हो जाना ही स्वयं में आ जाना है। जीवन के विरोध में निर्वाण मत खोजो।वरन जीवन को ही निर्वाण बनाने में लग जाओ। जो जानते हैं वे यही करते हैं। डो-झेन के प्यारे शब्द हैं- "मोक्ष के लिए कर्म मत करो,बल्कि समस्त कर्मों को ही मौका दो कि वे मुक्तिदायी बन जाएं।" यह हो जाता है, ऐसा मैं अपने अनुभव से कहता हूँ। और जिस दिन यह संभव होता है,उस दिन जीवन एक पूरे खिले ह