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पुरुषार्थ

पुरुषार्थ क्या है? पुरुषार्थ हिंदू सामाजिक व्यवस्था का मनो-सामाजिक आधार है।हिंदू सामाजिक दर्शन के अंतर्गत प्रतिपादित पुरुषार्थ की अवधारणा,जीवन के प्रमुख लक्ष्य की व्याख्या करती है। इसके अंतर्गत चार पुरुषार्थ स्वीकृत हैं,जो मानव के उन चार लक्ष्य-स्तम्भों की ओर संकेत करते हैं,जिनकी प्राप्ति मानव जीवन के लिए अनिवार्य है। भारतीय दर्शन के अनुसार,मानव जीवन का परम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है।अर्थ तथा काम इस लक्ष्य तक पहुंचने के माध्यम हैं। इन माध्यमों का प्रयोग किस प्रकार किया जाय,इसे स्पष्ट करने वाला महानियम धर्म है। इस प्रकार हिंदू दर्शन ने मानव जीवन के लिए धर्म,अर्थ,काम व मोक्ष को स्वीकार किया है।हमारा स्पष्ट मत है कि"पुरुषार्थ व्यक्ति के होने का अर्थ सिद्ध करता है।"काम तो प्रत्येक मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है।काम और अन्य जीवन आवश्यकताओं की पूर्ति तथा समाज की जीवन व्यवस्था का साधन है-अर्थ अर्थात धन। धर्म वह महानियम है जिसके नियंत्रण में काम और अर्थ का संयमित उपयोग होने पर जीवन का परम लक्ष्य मोक्ष सहज ही प्राप्त हो जाता है। वैशेषिक दर्शन के अनुसार,जिससे इस लोक में मनुष्य की

गोत्र या प्रवर की वैज्ञानिकता

सगोत्र और सप्रवर निषेध में समाजशास्त्री कोई वैज्ञानिकता नहीं देखते। वे इसे सामाजिक विकास का एक प्रारूप मात्र स्वीकार करते हैं।उनके अनुसार यह कोई सनातन परम्परा नहीं है,क्योंकि यज्ञ के लिए चुने गए ऋषि स्वेच्छिक हैं,न कि यह उनके साथ कोई रक्त संबंध का द्योतक है और कोई भी व्यक्ति स्पष्टत: अपने गोत्र या प्रवर का दावा नहीं कर सकता। फलत: समाज शास्त्रियों के लिए गोत्र और प्रवर प्रत्यय केवल धर्मशास्त्रीय शब्द मात्र हैं। लेकिन हमारा मत है कि हिंदू धर्म इस बात को समझता रहा है कि विवाह के लिए  संबंधों में  रक्त निकटता  नहीं होनी चाहिए। इससे अनेक आनुवंशिक विसंगतियां पैदा होती हैं। इसलिए उन्होंने विवाह के लिए गोत्र व प्रवर का  प्रावधान किया। यदि सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत इसका अनुपालन किया जाए तो बेहतर संतति की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। ओशो का कथन है कि स्त्री-पुरुष जितनी अधिक दूरी पर विवाह करते हैं उनकी संतान उतनी ही अधिक प्रतिभाशाली और गुणी होती है। उनमें आनुवंशिक रोग होने की संभावनाएं कम से कम होती हैं। उनके गुणसूत्र बहुत मजबूत होते हैं और वे जीवन-संघर्ष में परिस्थितियों का दृढ़ता के साथ मुका

हिंदू विवाह के निषेध

हिंदुओं में विवाह के कुछ निषेध निश्चित हैं। हिंदू अपने ही गोत्र और प्रवर में विवाह नहीं करते। आइए इस पोस्ट में यह जाने कि गोत्र और प्रवर क्या हैं? और अपने ही गोत्र और प्रवर में विवाह वर्जित क्यों माना गया है। गोत्र : गोत्र के संबंध में धर्मशास्त्रों,सूत्रों में विभिन्न विचार मिलते हैं।सत्यपाठ हिरण्यकेशी श्रौतसूत के अनुसार-विश्वामित्र,जमदग्नि,भारद्वाज,गौतम,अत्रि,वशिष्ठ,कश्यप और अगस्त नामक आठ ऋषियों की संतान गोत्र कहलाती है।वैदिक साहित्य में गोत्र शब्द का प्रयोग गौओं की रक्षा के लिए बनाए गए बाड़े के रूप में किया गया है। मैक्समूलर भी इस धारणा को मानते हैं कि जिन लोगों की गायें एक ही स्थान(बाड़े में)पर बंधती थी,वे उस स्थान पर रहने वाले एक ही पूर्वज ऋषि की संतान समझे जाते थे,बाद में यह लोग एक ही गोत्र के सदस्य समझे जाने लगे।  पाणिनि ने अपने एक सूत्र में पोते तक की संतान को गोत्र कहा है। पतंजलि के महाभाष्य में कहा गया है कि ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले 80 हजार ऋषि हुए,किंतु उनमें से केवल आठ ऋषियों की संतान का प्रसार हो पाया। इसलिए इन्हीं आठ ऋषियों की संतान ही गोत्र कहलाती है।

हिंदू विवाह के प्रकार

हिंदू धर्मसूत्रों,शास्त्रों और स्मृतियों में विभिन्न प्रकार के विवाह बताए गए हैं। मनु ने विवाह के आठ भेद किए हैं परंतु वशिष्ठ ने छ: प्रकार के विवाह माने हैं। मनु स्मृति में कहा गया है- ब्राह्मो दैवस्तथैवार्ष प्राजापत्यस्तथासुर:। गान्धर्वो राक्षसश्चैव पैशाचश्चष्टमोधम:॥ इस प्रकार मनु ने ब्रह्म,दैव,आर्ष,प्राजापत्य,आसुर,गांधर्व,राक्षस और पैशाच आठ प्रकार के विवाह माने हैं।वशिष्ठ ने ब्राह्म,दैव,आर्ष,गांधर्व,क्षात्र(राक्षस) और मानुष(आसुर) विवाह के छ: प्रकार माने हैं।ब्राह्म विवाह, दैव विवाह,आर्ष विवाह और प्राजापत्य विवाहों को धर्म विवाह कहा गया है और ये समाज द्वारा स्वीकृत विवाह होने के कारण उत्तम विवाह कहे गए।अन्य चार विवाहों को अधर्म विवाह कहा गया है और इसीलिए ये समाज द्वारा अस्वीकृत कहे गए हैं। 1) ब्राह्म विवाह :मनुस्मृति में ब्राह्म विवाह के संबंध में लिखा है- आच्छाद्य चार्चयित्वा च श्रुति शीलवते स्वयम्। आहुय दानं कन्याय ब्राह्मो धर्म: प्रकीर्तित:॥ अर्थात कन्या को वस्त्र,अलंकार आदि से सुसज्जित करके विद्वान,शीलवान वर को आमंत्रित करके कन्यादान करने का नाम ब्रह्म विवाह है। यह

विवाह के उद्देश्य

धर्म पिछली पोस्ट में हमने जाना कि हिंदू दर्शन में विवाह एक संस्कार है।भारतीय दर्शन में धर्म का बहुत महत्त्व है।विवाह के प्रमुख उद्देश्य में भी धर्म सर्वोपरि है।स्त्री-पुरुष के मिलन से समाज की जो इकाई बनती है , वह परिवार कहलाता है।दाम्पत्य जीवन के बिना पारिवारिक जीवन दुष्कर ही नहीं वरन असंभव है। परिवार के जन्म के साथ ही मनुष्य में कर्त्तव्य-भाव का विकास दिखाई देता है। हिंदु-दर्शन के अनुसार प्रत्येक मनुष्य के कुछ निश्चित कर्त्तव्य हैं और विवाह इन कर्त्तव्यों को उचित ढ़ंग से निष्पादित करने में सहायक है। हिंदु-धर्म के अनुसार मनुष्य जीवन के पंच महायज्ञ स्वीकार किए गए हैं। ये पांच महायज्ञ हैं: ब्रह्म यज्ञ , पितृ यज्ञ , देव यज्ञ , भूत यज्ञ और नृ यज्ञ। इन पांचों यज्ञों को पूरा करने के लिए पत्नी का सहयोग परम आवश्यक है। ब्रह्म यज्ञ   :: ब्रह्म यज्ञ से अभिप्राय: है :इस सृष्टि और ब्रह्मांड के रहस्य को समझना। इस ब्रह्मांड में निरंतर सृजन और विनाश जारी है। विवाह सृजन में सहायक है। विवाह से ही सृष्टि का क्रम निरंतर बना रहता है। व्यक्ति को निरंतर अपने ज्ञान-चक्षुओं को खुला रखना ही ब्रह्म-य