अर्थ

हिंदू जीवन दर्शन में 'अर्थ' को दूसरा पुरुषार्थ कहा गया है। अर्थ का शाब्दिक अर्थ 'वस्तु' या 'पदार्थ' है। इसमें वे सभी भौतिक वस्तुएं आती हैं जिन्हें जीवन यापन के लिए मनुष्य अपने अधिकार-क्षेत्र में रखना चाहता है।अर्थ से ही मनुष्य अपने उदर की पूर्ति करता है।कर्त्तव्य-निर्वहण में अर्थ की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। अर्थ में केवल धन या मुद्रा ही नहीं बल्कि वे सभी चीजें शामिल हैं जिनसे भौतिक सुखों की प्राप्ति होती है। भारत में कभी भी अर्थ को उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देखा गया। बल्कि इसे धर्म का साधन कहा गया है। संस्कृत में एक श्लोक है-'धनाद् धर्म' अर्थात् धन से धर्म की सिद्धि होती है। भारतीय धर्मशास्त्रों में धर्म-संबंधी ही चर्चा नहीं है,बल्कि उनमें अर्थनीति,राजनीति,दंडनीति आदि विषयों पर भी चर्चा हुई है। समाज व्यवस्था में अर्थ का नियोजन बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।कौटिल्य ने अपने 'अर्थशास्त्र' में बहुत से विषयों जैसे राजकुमारों की शिक्षा-दीक्षा,मंत्री-मंडल,जासूस,राजदूत,निवास,शासन-व्यवस्था,दुष्टों की रोकथाम,कानून,वस्तुओं में मिलावट,मूल्य-नियंत्रण,झूठे नाप-तौल को रोकने के उपाय,कूटनीति,युद्ध-संचालन,गुप्त-विद्या आदि बहुत से विषयों पर सुलझे हुए विचार दिए हैं; जो उसके अर्थशास्त्र से जुड़े हुए हैं। आधुनिक परिप्रेक्ष्य में भी ये विचार न केवल व्यवहारिक बल्कि समीचीन भी हैं।वात्स्यायन ने अपने 'कामसूत्र' में अर्थशास्त्र के अंतर्गत पशु,अनाज,सोना,चांदी,मित्र,शिक्षा आदि की उन्नति को सम्मिलित किया है। इन सब शास्त्रों में अर्थ पर विचार करते हुए इस बात का उल्लेख हुआ है कि अर्थ का इस्तेमाल धर्म के साधन रूप में किया जाए, न कि साध्य के रूप में। इस प्रकार भारतीय संस्कृति में भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार की उन्नति मनुष्य का लक्ष्य है।अर्थ मनुष्य की उन्नति के लिए है,उसके पतन के लिए नहीं। इसलिए यह अन्य पुरुषार्थों का साधन है न कि स्वयं साध्य। 

मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकताएं रोटी,कपड़ा और मकान अर्थ से ही पूरी होती हैं।शिक्षा,स्वास्थ्य और सुविधा भी अर्थ से ही पूरी होती हैं। इसी लिए भारतीय धर्मशास्त्रों में मनुष्य की दूसरी अवस्था (गृहस्थ आश्रम) में धन कमाना मनुष्य का लक्ष्य कहा गया है। एक श्लोक में कहा गया है कि जिस मनुष्य ने अपनी पहली अवस्था(ब्रह्मचर्य आश्रम) में विद्या नहीं ग्रहण की, दूसरी अवस्था (गृहस्थ आश्रम) में धन नहीं अर्जित किया, तीसरी अवस्था (वानप्रस्थ आश्रम)में तप नहीं किया, वह चौथी अवस्था(संन्यास आश्रम) में क्या कर सकेगा अर्थात् उसका जन्म व्यर्थ है -
आद्ये वयसि नाद्योतं द्वितीये नार्जिते धनम्।
तृतीय न तपस्तप्तं चतुर्थे किं करिष्यति ॥
द्वितीय अवस्था में धन कमाना इसलिए जरुरी है क्योंकि इस अवस्था में व्यक्ति गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है। उसका परिवार बनता है। परिवार की आवश्यकताओं के लिए धन का होना जरुरी है। इस तरह से धर्म(कर्त्तव्य) और काम की पूर्ति का साधन अर्थ है।धर्म समाज को धारण करता है और काम समाज में प्रवाह बनाए रखता है।

अर्थ को भारतीय संस्कृति में वहीं तक महत्व प्राप्त है,जहां तक वह मनुष्य को शिष्ट और सभ्य बनाए अर्थात उसके विवेक में सहायक हो। मनुष्य के जीवन के लिए अर्थ है,मनुष्य स्वयं अर्थ के लिए नहीं।इसलिए भारतीय संस्कृति में धन के एकत्रीकरण को महत्त्व नहीं दिया गया है।धन को साध्य मान लेने पर समाज का स्वाभाविक पतन होने लगता है।किसी ने सही कहा है- Where wealth accumulates man degenerates.इसलिए संभवत: हिंदू-दर्शन में दान की परम्परा है। ताकि किसी के पास जरूरत से अधिक धन का संचय न हो। धर्म,अर्थ और काम में सबसे ऊँचा धर्म है क्योंकि धर्म ही अर्थ और काम के सही उपयोग का पथ-प्रदर्शक है।पंचतंत्र और हितोपदेश के बहुत से नीति-श्लोकों में इस बात को समझाया गया है। 

आधुनिक संदर्भ में देखें तो अर्थ में सभी आर्थिक-क्रियाएं समाहित हैं।संपत्ति का उत्पादन,उपभोग,विनिमय,वितरण आदि।हमारी सरकार को अर्थ का नियोजन-विनियोजन इस प्रकार से करना चाहिए कि धन का प्रवाह बना रहे।वह कुछ लोगों के पास एकत्रित न हो। जिससे कि समाज के सभी वर्गों तक धन पहुंचे और उसे अपनी समाज-व्यवस्था और आर्थिक नीतियां इस रूप में तैयार करनी चाहिए जिससे कि सभी का समुचित उन्नयन हो,सभी को मूलभुत सुविधाएं मिलें। अर्थ के दुरुपयोग से समाज में अपराध बढ़तें हैं लोगों में असुरक्षा का भाव आता है और लोग अपने कर्त्तव्य से च्युत होते हैं। 

टिप्पणियाँ

  1. 'Arth' ko Bharteey sanskriti me jitni ahmiyat dee gayee hai wahee theek bhee hai.

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  2. अर्थ के अर्थ पर स-अर्थ वक्तव्य रखा है आपने।

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  3. इतने विस्तार से आपने "अर्थ" के व्यापक अर्थ को समझाया है.. ऐसा कहा जा सकता है कि आपने एक शब्द नहीं, एक विषय के गहन व्याख्या की है.. बहुत कुछ सीखने को मिला, बहुत सी जानकारियों पर से धूल साफ़ हुई.. आभार मनोज जी, इस उत्तम रचना के लिए!!

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  4. जीवन के महत्वपूर्ण गतिविधि 'अर्थ' पर गंभीर चर्चा की है आपने और इसे इसकी परिभाषा के ऊपर ला खड़ा किया है. सुंदर विवरण ने इसे सार्थक बना दिया है. बहुत खूब.

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