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ओशो की डायरी से :2:

यह मत कहो कि मैं प्रार्थना में था,क्योंकि उसका अर्थ है कि आप प्रार्थना के बाहर भी होते हो। जो प्रार्थना के बाहर भी होता है,वह प्रार्थना में नहीं हो सकता। प्रार्थना क्रिया नहीं है। प्रार्थना तो प्रेम की परिपूर्णता है। जीवन की खोज में आत्मतुष्टि से घातक और कुछ नहीं। जो स्वयं से संतुष्ट हैं,वे एक अर्थ में जीवित ही नहीं हैं। स्वयं से जो असंतुष्ट है,वही सत्य की दिशा में गति करता है। स्मरण रखना कि आत्मतुष्टि से निरंतर ही विद्रोह में होना धार्मिक होना है। मृत्यु से घबड़ाकर तो आपने ईश्वर का आविष्कार नहीं कर लिया है? भय पर आधारित ईश्वर से असत्य  और कुछ भी नहीं है। जो सदा वर्तमान है,वही सत्य है। निकटतम जो है,वही अंतिम सत्य है। दूर को नहीं,निकट को जानों क्योंकि जो निकट को ही नहीं जानता है, वह दूर को कैसे जानेगा? और जो निकट को जान लेता है,उनके लिए दूर शेष नहीं रह जाता है। मैं कौन हूँ?  पूछो- स्वयं से। मैं कहां हूँ? खोजो- स्वयं में।जब तुम कहीं भी स्वयं को नहीं पा सकोगे तो जान जावोगे कि तुम कौन हो। मैं की अनुपलब्धि में ही मैं का रहस्य छिपा हुआ है। सत्य यदि ज्ञात नहीं है,तो शास्त्र व्यर्थ है और

नियति का सुख

जिंदगी में कुछ चीजें निश्चित सी होती हैं या कहें कि नियति चाहती है कि हम वो करें। स्कूल के दिनों में मेरे संस्कृत के अध्यापक ने मेरी अच्छी लिखावट को देख कर मुझे एक कार्य नियमित रूप से करने को कहा। हमारे स्कूल के मुख्य द्वार पर एक बोर्ड था,जिस पर रोज एक सुविचार लिखा जाता था। इस कार्य के लिए मुझे चुना गया। यह कार्य करते हुए मुझे भी अच्छा लगता था। क्योंकि मैं अखबार,पत्रिकाओं में छपने वाले महापुरुषों के अनमोल विचारों को सदा पढ़ता और उनका संग्रह अपनी नोट बुक में करता।मुझे नहीं मालूम की मेरे इस गुण को मेरे वह अध्यापक समझते थे या नहीं।   आज वर्षों बाद भी, मैं जिस संस्थान में कार्य कर रहा हूँ, वहाँ भी मुख्य द्वार पर 'आज का सुविचार' बोर्ड लगा है। और उस पर विचार लिखने का कार्य मेरा ही है। फर्क सिर्फ इतना है कि स्कूल के बोर्ड पर मैं जो विचार लिखता था, वह 'ब्लैक बोर्ड' पर 'खड़िया मिट्टी' से लिखता था और आज 'वाइट-बोर्ड'पर 'मार्कर पैन'से लिखता हूँ।' इस कार्य को करते समय अनेक अनुभव हुए हैं। कभी विचार लिखे जाने के समय कोई कर्मचारी आकर सुविचार की तारीफ करने

पवित्र छाया

एक सूफी कहानी : ओशो मुख से एक बार की बात है,एक इतना भला फकीर था कि स्वर्ग से देवदूत यह देखने आते थे कि किस प्रकार से एक व्यक्ति इतना देवतुल्य भी हो सकता है। यह फकीर अपने दैनिक जीवन में, बिना इस बात को जाने,सदगुणों को इस प्रकार से बिखेरता था जैसे सितारे प्रकाश और फूल सुगंध फैलाते हैं। उसके दिन को दो शब्दों में बताया जा सकता था- बांटों और क्षमा करो - फिर भी ये शब्द कभी उसके होंठों पर नहीं आए। वे उसकी सहज मुस्कान,उसकी दयालुता,सहनशीलता और सेवा से अभिव्यक्त होते थे।  देवदूतों ने परमात्मा से कहा: प्रभु,उसे चमत्कार कर पाने की भेंट दें। परमात्मा ने उत्तर दिया, उससे पूछो वह क्या चाहता है?  उन्होंने फकीर से पूछा, क्या आप चाहेंगे कि आपके छूने भर से ही रोगी स्वस्थ हो जाए। नहीं, फकीर ने उत्तर दिया, बल्कि मैं तो चाहूँगा परमात्मा ही इसे करें। क्या आप दोषी आत्माओं को परिवर्तित करना और राह भटके दिलों को सच्चे रास्ते पर लाना पसंद करेंगे? नहीं, यह तो देवदूतों का कार्य है, यह मेरा कार्य नहीं कि किसी को परिवर्तित करुं। क्या आप धैर्य का प्रतिरूप बन कर लोगों को अपने सदगुणों के आलोक से आकर्षित करते हुए और इ