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मई, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

तादात्म्य और चित्त की जटिलता

(पिछली पोस्ट में हमने जाना कि मनुष्य की सरलता खोती है उसके बनाए आदर्शों से,अनुकरण और अनुसरण से,अपने से अलग कुछ और बनने की कोशिश में। इस सरलता के खोने में एक और तत्त्व जिम्मेवार है और वह है तादात्म्य,आइए देखें कि तादात्म्य कैसे हमें जटिल बनाता है और खंडित करता है।) यह स्मरण रखें कि जीवन में जितना कम द्वंद्व,जितना कम संघर्ष,जितने कम व्यर्थ के तनाव,व्यर्थ के खंड कम हों,उतनी सरलता उत्पन्न होगी। मनुष्य जितना अखंड हो उतनी सरलता उपलब्ध होती है। हम खंड-खंड हैं। और हम अपनी अखंडता को अपने हाथों से तोड़े हुए हैं। हम अपनी अखंडता को कैसे तोड़ देते हैं?  हम अपनी अखंडता को तादात्म्य से,आइडिन्टटी से तोड़ देते हैं। होता क्या है? मैं एक घर में पैदा हुआ। उस घर के लोगों ने मुझे एक नाम दे दिया और मैंने समझ लिया कि वह नाम मैं हूं। मैंने एक आइडिन्टटी कर ली। मैंने समझ लिया कि यह नाम मैं हूं। फिर मैं कहीं शिक्षित हुआ। फिर मुझे कोई उपाधि मिल गई। फिर मैंने उन उपाधियों को समझ लिया कि ये उपाधियां मैं हूं। फिर किसी ने मुझे प्रेम किया,तो मैंने समझ लिया कि लोग मुझे प्रेम करते हैं और वह प्रेम की तस्वीर मैंन

सरलता

ओशो ने चित्त की शांति के लिए तीन सूत्रों की बात बार-बार की है। ये सूत्र हैं:सरलता,सजगता और शून्यता। आज  की इस पोस्ट में हम जानेंगे कि सरलता क्या है? सरलता क्या नहीं है? सरलता के मार्ग क्या हैं?सरलता कैसे आए? जो भी बाहर से ओढ़ा जाता है वह हमें जटिल बनाता है। बाहर से ओढ़ी गई सादगी,सरलता,विनम्रता मनुष्य को जटिल बनाती है और जो लोग भीतर जटिल होते हैं अक्सर बाहर सादगी,सरलता और विनम्रता का वेश बना लेते हैं;केवल इसलिए नहीं कि दुनिया को धोखा दे सकें बल्कि स्वयं को भी धोखा दे सकें। दुनिया में जटिल लोग सरल होने का अभ्यास कर लेते हैं। इस ओढ़ी हुई सरलता का कोई मूल्य नहीं। कोई अत्यंत विनम्रता प्रदर्शित करे,उससे वह सरल नहीं हो जाता है। क्योंकि विनम्रता के पीछे अक्सर अहंकार खड़ा रहता है और विनम्र आदमी हाथ जोड़कर सिर तो झुकाता है,लेकिन अहंकार नहीं झुकता है और विनम्र आदमी को यह भाव बना रहता है कि मुझसे ज्यादा और कोई भी विनम्र नहीं है और उसको यह भी आकांक्षा होती है कि मेरी विनम्रता और मेरी सरलता स्वीकृत की जाए और वह सम्मानित हो। सरलता को इस प्रकार अभ्यास से ऊपर से साधना आसान है,लेकिन उसका कोई मूल्य न

चित्त की झील में तूफान

सुबह-सुबह एक झील के किनारे से नौका छूटी। कुछ लोग उस पर सवार थे। नौका ने झील में थोड़ा ही प्रवेश किया होगा कि जोर का तूफान आ गया और बादल घिर आए। नौका डगमगाने लगी। आज की नौका नहीं थी,दो हजार वर्ष पहले की थी। उसके डूबने का डर पैदा हो गया। जितने लोग उस नौका पर थे,सारे लोग घबरा गए। प्राणों का संकट खड़ा हो गया। लेकिन उस समय भी उस नौका पर एक आदमी शांत सोया हुआ था। उन सारे लोगों ने जाकर उस आदमी को जगाया और कहा कि क्या सो रहे हो और कैसे शांत बने हो!!!प्राण संकट में हैं,मृत्यु निकट है और नौका बचने की कोई उम्मीद नहीं है। तूफान बड़ा है और दोनों किनारे दूर हैं।  उस शांत सोए हुए व्यक्ति ने आंखें खोली और कहा--कितने कम विश्वास के तुम लोग हो,कितनी कम श्रद्धा है तुममें। कहो झील से कि शांत हो जाए। वे लोग हैरान हुए कि झील किसी के कहने से शांत होती है! यह कैसी पागलपन की बात है! लेकिन वह शांत सोया हुआ आदमी उठा और झील के पास गया और उसने जाकर झील से कहा,झील! शांत हो जाओ! और आश्चर्यों का आश्चर्य कि झील शांत हो गई।  यह आदमी जीसस क्राइस्ट था और झील गैलीली झील थी और उनके साथ दस-बारह मित्र थे। यह कहानी ए

अनजाना जीवन

हमारे चित्त की पूरी व्यवस्था ऐसी है कि वह कहता है कि कहीं चलो। पूरा चित्त ही इस तनाव से बना है कि कहीं चलो-वहां जहां कहीं दूर मंजिल है। मन जीवित रहता है तनाव में। यह तनाव गहरे में कहीं पहुंचने का तनाव है-चाहे धन हो,चाहे यश हो,चाहे मोक्ष। मन उस वक्त मर जाता है जिस वक्त आपने कहा--कहीं नहीं जाना है। जहां हम खड़े हैं यदि वहीं हम अपनी सारी डिजायर को,सारे विचार को,सारी कामना को रोक लें तो हम जो हैं वह हमें पता चल जाएगा। मजे की बात है कि मंजिल यहीं मौजूद है,अभी इसी वक्त। कहीं जाना नहीं है खोजने,सिर्फ ठहर जाना है।...असल में मजा यह है कि रास्ता मात्र बाहर जाने का होता है,क्योंकि अंदर तो हम हैं। लेकिन विचार बाहर कि यात्रा करता है।विचार में आप यहीं होते हुए भी कलकत्ता में हो सकते हैं। इसलिए भीतर जाने का सवाल नहीं है। हम बाहर किन-किन रास्तों से चले गए हैं,उन रास्तों को छोड़ देने का सवाल है असल में। विचार चला गया है वासना के वाहन पर बैठ कर और हम वहीं हैं यानी यह आधारभूत सत्य खयाल में आ जाना चाहिए कि हम वहीं हैं,वासना के वाहन पर बैठ कर विचार चला गया है।विचार न जाए तो आप फौरन पाएंगे

अतीत की मृत्यु और शून्यता

एक संन्यासी ने अपने शिष्य को एक दिन कहा कि तू बहुत दिन मेरे पास रहा है। अब मैं तुझे कहीं और भेजता हूं। ताकि मैंने तुझसे जो कहा है वह और ठीक से समझ ले। तो उसको एक दूसरे संन्यासी के पास भेजा कि तू जा और उसके पास रह और उसकी जीवन चर्या को देख। वह वहां गया। सुबह से शाम तक उसने दिनचर्या को देखा। उसमें कुछ भी नहीं था। वह संन्यासी एक छोटी-सी सराय का रखवाला था। वह संन्यासी भी नहीं था। साधारण कपड़े पहनता था। लेकिन उसके गुरु ने उसे वहां भेजा,तो गया। वह सुबह से शाम तक देखता रहा,वहां तो कुछ भी नहीं था। वह आदमी है,रखवाला है,रखवाली करता है। सराय साफ करता है। मेहमान ठहरते हैं,उनके कमरे साफ करता है। मेहमान जाते हैं,उनके कमरे साफ करता है। उसने दो-चार दिन देखा तो ऊब गया। वहां तो कोई बात ही नहीं थी,चर्या की कोई बात ही नहीं थी। चलते वक्त उसने कहा,सब देख लिया,जिसके लिए मेरे गुरु ने भेजा था। सिर्फ दो बातें मैं नहीं देख पाया हूं: रात को सोते समय आप क्या करते हैं,वह मुझे पता नहीं है और सुबह उठते वक्त आप क्या करते हैं,वह मुझे पता नहीं। यह मुझे बता दें। मैं वापस लौट जाऊं। संन्यासी ने कहा,कुछ नहीं करता।

बचें हर चार सेकंड में डिमेंशिया की दस्तक से

इस समय विश्व में महामारी के स्तर पर एक रोग उभर रहा है जिसके दस प्रतिशत से अधिक शिकार भारत में हैं। रोग का नाम है डिमेंशिया। यह एक सिंड्रोम है जिसके विकास में मस्तिष्क के बहुत से विकार सहायक होते हैं। इस सिंड्रोम के चलते धीरे-धीरे या कभी बहुत तेजी से मस्तिष्क का क्षय होने लगता है और अंतत: व्यक्ति को समय और स्थान का बोध समाप्त होने लगता है,भाषा कभी समझ आती है और कभी नहीं,लोगों को पहचानने की शक्ति कम या बिल्कुल समाप्त हो जाती है,दैनिक क्रिया-कलापों को करना लगभग असंभव हो जाता है। इस समय पूरे विश्व में लगभग साढ़े तीन करोड़ लोग डिमेंशिया से ग्रस्त हैं,जिनमें से सैंतीस लाख लोग भारत में हैं। वर्ल्ड हैल्थ ऑर्गेनाइज़ेशन की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार सत्तर लाख लोग हर साल डिमेंशिया के शिकार हो रहे हैं,अर्थात हर चार सैकिंड में विश्व में कहीं न कहीं कोई इसकी चपेट में आ रहा है। डब्लू एच ओ की इस नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार सन्2030 तक छह करोड़ और 2050 तक कोई पंद्रह करोड़ लोग विश्व में डिमेंशिया से ग्रस्त होंगे। सबसे अधिक क्षति भारत,चीन और ब्राज़ील की होगी क्योंकि अपवाद छोड़कर यह रोग 60 वर्ष की आयु

मजनू की आंख

मजनू को उसके गांव के राजा ने पकड़वा लिया था। गांव भर में चर्चा थी कि वह पागल हो गया है लैला के लिए। उसने बार-बार लैला को देखने की कोशिश की। बड़ी मुश्किल में पड़ा। लैला बहुत साधारण लड़की थी। फिर भी मजनू पागल हो गया। राजा ने मजनू को बुलाया और कहा,"तू पागल तो नहीं है! लैला बड़ी साधारण लड़की है। मैंने बहुत सुंदर लड़कियां तेरे लिए बुला कर रखी हैं,उनको देख और जो तुझे पसंद हो उसके साथ तेरा विवाह कर दें।लेकिन लैला को भूल जा। लैला बड़ी साधारण लड़की है।" मजनू हंसने लगा। उसने राजा से कहा कि शायद आपको पता नहीं,लैला को देखने के लिए मजनू की आंख चाहिए। मेरी आंख है आपके पास? राजा ने कहा,"तेरी आंख मेरे पास कैसे हो सकती है!!!" तो मजनू ने कहा,"फिर छोड़िए खयाल,आप लैला को न देख पाएंगे। लैला को मजनू देख सकता है। मजनू की आंख ही लैला को देख सकती है।"  -0-

चित्त की शांति और युद्ध

एक मुसलमान खलीफा था-उमर। सात वर्षों से एक दुश्मन के साथ उसकी लड़ाई चलती रही। यह संघर्ष बहुत भयंकर हो गया था। किसी के जीतने की कोई उम्मीद नहीं मालूम पड़ती थी। ऐसा नहीं लगता था कि कोई निर्णायक फैसला हो सकेगा। लेकिन सातवें वर्ष में निर्णायक फैसला होने के करीब आ गया। हाथ में आ गया वह क्षण जब निर्णय हो सकता था। उमर ने दुश्मन को गिरा दिया युद्ध के मैदान में और उसकी छाती पर सवार हो गया। वह कंधे में बंधे हुए भाले को निकाल कर दुश्मन की छाती पर भोंकने को है कि नीचे पड़े दुश्मन ने उमर के मुंह पर थूक दिया। मरता भी तो कुछ कर सकता है। आखरी अपमान तो वह कर ही सकता था। उमर एक क्षण रुक गया और अपने भाले को वापिस रख लिया और रूमाल से मुंह पोंछ लिया। उसने नीचे पड़े दुश्मन से कहा-"दोस्त,अब लड़ाई कल सुबह फिर शुरू होगी।" लेकिन नीचे पड़ा दुश्मन कहने लगा-"पागल हो गए हो? इस मौके की तलाश में तुम सात वर्षों से थे,आज तुम्हारे पैरों के नीचे पड़ा हूं। तुम छाती पर सवार हो,मैं निहत्था हूं। मेरा हथियार छूट गया है। मेरा घोड़ा मर गया है। इस मौके को मत छोड़ो। यह मौका दुबारा आएगा,इसकी कोई उम्मीद न करो। भ