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लकीर का फकीर

एक कवि एक सुंदर बाग के एकांत में सरोवर तट पर एक लंबे घने वृक्ष के नीचे बैठा कविता लिख रहा था। आसपास कोई भी नहीं था। एक कोवा वृक्ष की डाल पर बैठा था। कवि अपनी पहली कविता कहता है : सारी दुनिया की संपत्ति का मैं मालिक सोलोमन का खजाना भी मैंने पा लिया कुबेर का खजाना भी मैंने पा लिया ऊपर बैठा कौवा कांव-कांव करता है और कहता है “सो व्हॉट? , इससे क्या हुआ? कवि बहुत हैरान हुआ। कवि कह रहा है मैं कुबेर हो गया,सारी संपत्ति मेरी हो गई और कौवा कह रहा है सो व्हॉट? कवि ने क्रोध में ऊपर देखा, और कहा,” ना समझ कौवे तू क्या समझेगा?” कौवे ने कहा, ठीक कहते हैं आप, धन की बात कोई दूसरा कौवा भी नहीं समझेगा। धन की बात सिवाए आदमी के कोई भी नहीं समझेगा। ना कोई विश्वास करेगा।“ लेकिन तुम समझते हो कि हम धन की बात नहीं समझते, इसलिए ना समझ हैं। तो यह बात नहीं है। सच बात तो ये है कि हम किसी चीज को बिना खोजे विश्वास नहीं करते। कवि ने कहा , ठीक है, तुम्हें विश्वास नहीं आता तो दूसरी कविता सुनाता हूं :- सारी पृथ्वी का राज्य मैंने पाया चक्रवर्ती सम्राट मैं कहलाया स्वर्ण सिंहासनों पर विराज

सिटनालटा

एक बार विद्वान लोगों के एक समूह ने ओशो को बोलने के लिए आमंत्रित किया। ओशो ने आमंत्रण सहर्ष स्वीकार किया और नियत दिन सभा को संबोधित करने पहुंचे। ओशो ने इस समूह के साथ चर्चा का जो विषय चुना वह था : "सिटनालटा- एक अनोखा समाज"। उन्होंने उस समाज के संबंध में बोलते हुआ कहा कि हमारे शरीर में सात चक्र नहीं,बल्कि सत्रह चक्र होते हैं। सिटनालटा समाज ने यह खोज निकाला था। यह पुरातन विद्या अब लुप्त हो गई है। लेकिन निर्वाणप्राप्त 'सिटनालटा' के इस इस गुप्त,गुह्य रहस्य को जानने वालों की एक  गुप्त संस्था आज भी सक्रिय है। इन लोगों को जीवन के सभी रहस्यों का पता है। उनके पास ऐसी-ऐसी शक्तियां हैं,जिनकी सामान्य लोग कल्पना भी नहीं कर सकते। सभा के अंत में सभापति ओशो से बोले कि उन्हें सिटनालटा के बारे में पता है। एक और व्यक्ति आकर कहने लगा कि वह सिटनालटा का सदस्य है। फिर उनके पास पत्र आने लगे उन लोगों के जो दावा करते थे कि वे भी उस रहस्यमयी संस्था के सदस्य हैं। ओशो मन ही मन हंसे,क्योंकि सत्य तो यह था कि भाषण से पहले ओशो एटलांटिस नामक महाद्विप के बारे में पढ़ रहे थे। ऐसा माना जाता है कि यह

वह अकेला आदमी ::3::

राम आश्रय सुरेश का बड़ा भाई गांव से एक कोस दूर दूसरे गांव में पढ़ने जाता था। बीच में एक अहिरों का खेत था। खेत में कूंआ था। कूएं के पास ही उनका घर था। एक दिन राम आश्रय ने स्कूल जाते हुए उनके वहां एक सुंदर कुत्ता देखा। जो बहुत बड़ा नहीं था। अहिरों ने उसे खेत और घर की सुरक्षा के लिए पाला था। कुत्ता सफेद रंग का था, जिस पर काले रंग की धारियां उसे और भी आकर्षक बना रही थी। राम आश्रय को वह कुत्ता बहुत आकर्षक लगा। उसने उस कुत्ते को वहां से उठा लेने की योजना बना ली। एक दिन स्कूल से घर लौटते हुए वह उस कुत्ते को वहां से उठा लाया। जब वह गांव में कुत्ते के साथ अपने घर जा रहा था, तो उसको मनु ने देख लिया। उसने राम आश्रय से पूछा, "चच्चा, यह कुत्ता तो बहुत सुंदर है। कहां से लाए?" राम आश्रय ने कहा, "स्कूल के पास मिला। अच्छा कोई अनजान आदमी इसके बारे में पूछे तो कहना तुम्हें कुछ नहीं मालूम। मैं इसे पालूंगा।" "क्या तुम इसे किसी के घर से उठा लाए हो?" मनु ने पूछा। "नहीं, नहीं, ...मुझे तो यह आवारा मिला। पर हो सकता है किसी का हो और वह इसे ढ़ूंढते हुए यहां आए और इसके बारे में पूछ

वह अकेला आदमी ::2::

एक दिन वह गांव की कच्ची गलियों में अपने हमउम्र  बच्चों के साथ खेल रहा था। खेलते-खेलते वह नीम की छांव तले  आ गया। पीछे-पीछे उसका दोस्त सुरेश भी आ गया। वह जमीन में देखने लगा। जमीन कभी गारे-गोबर से लीपी गई थी। जमीन में उसे दो चीज़ें दिखाई दी। जो गारे-गोबर के साथ जमीन में धंस गई थी। एक  नए पैसे का सिक्का और एक स्वर्ण की आभा लिए श्वेत पत्थर। पैसे से अधिक उसे पत्थर ने आकर्षित किया। उसने अपने नन्हें हाथों से खुर्च-खुर्च कर उस पत्थर को जमीन से निकालने का प्रयास किया। तब तक उसके दोस्त की निगाह एक पैसे के सिक्के पर पड़ चुकी थी। सुरेश उस सिक्के को निकालने में लग गया।कुछ देर बाद उसने वह पत्थर जमीन से बाहर निकाल लिया था। उधर सुरेश ने भी तब तक नए पैसे का सिक्का जमीन से निकाल लिया। सुरेश ने उससे पूछा, "मनु तूने मुझ से पहले यह सिक्का देख लिया था,फिर तू यह पत्थर क्यों निकालने लगा।" उसने कहा, "देख यह पत्थर कितना सुंदर है। इस पर यह पीले रंग की धारी कितनी सुंदर लग रही है और यह देख इसका आकार तेरे सिक्के से कितना अच्छा है-गोल-गोल। इस पत्थर को मैं हमेशा अपने पास रखूंगा। यह कोई सिक्का

सिद्धार्थ : हरमन हेसे का उपन्यास :: 2 ::

गतांक से आगे ... लेकिन सिद्धार्थ स्वयं खुश नहीं था। अंजीर के बाग की गुलाबी पगडंडियों पर घुमते हुए,बनी की नीली छाया में बैठकर चिंतन-मनन करते हुए ,प्रायश्चित के दैनिक स्नान के दौरान अपने अंग धोते हुए, आचरण की पूरी गरिमा के साथ छायादार अमराई में हवन करते हुए,सबके प्रिय,सबकी प्रसन्नता के कारण होते हुए भी,उसके अपने हृदय में आनंद नहीं था। नदी की लहरों से,रात के आकाश में टिमटिमाते सितारों से,सूर्य की पिघलती किरणों से,सपने और बेचैन ख़याल बहते हुए उस तक आते। हवन के घुमड़ते हुए धुएं से,ऋग्वेद के मंत्रों और ऋचाओं से नि:सृत होकर,वयोवृद्ध ब्राह्मणों की शिक्षा से रिसते और टपकते हुए स्वप्न और आत्मा की उद्विग्नता उसे घेर लेती।  सिद्धार्थ को अपने भीतर असंतोष के बीज महसूस होने लगे थे।  उसे एहसास होने लगा था कि उसके माता-पिता का स्नेह और उसके मित्र गोविंदा का प्रेम भी उसे हमेशा सुखी नहीं रख पाएगा,उसे शांति नहीं दे सकेगा, न उसे संतुष्ट और परिपूर्ण कर पाएगा। उसे इस बात का आभास होने लगा था कि उसके योग्य पिता और दूसरे शिक्षक,वे ज्ञानी ब्राह्मण अब तक अपनी शिक्षा का अधिकतर और सर्वोत्तम अंश उसे सौंप चुके थ

"Why women are suffering around the world"? OSHO

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Rare recording!!! of OSHO spending time with his friends, must listen

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ओशो की एक प्रेस कान्फ्रेंस

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पुस्तक समीक्षा :: डॉ. सुप्रिया पी की पुस्तक हिंदी उपन्यास के विदेशी पात्र

हिंदी उपन्यासों में आए विभिन्न विदेशी पात्रों के माध्यम से समाज में आए विभिन्न परिवर्तनों और व्यक्ति की वैचारिक सोच को प्रतिबिंबित करती डॉ. सुप्रिया पी की पुस्तक "हिंदी उपन्यास के विदेशी पात्र" पढ़ने को मिली। पुस्तक में कुल पंद्रह ऐसे हिंदी  उपन्यास चुने गए हैं, जिनमें विदेशी पात्र आए हैं। ये उपन्यास हैं : अज्ञेय का "अपने अपने अज़नबी;  निर्मल वर्मा का "वे दिन": सुनीता जैन का "सफ़र के साथी" ; उषा प्रियंवदा का "रूकोगी नहीं राधिका"; प्रभाकर माचवे का "तीस चालीस पचास"; महेन्द्र भल्ला का " दूसरी तरफ"; योगेश कुमार का "टूटते बिखरते लोग"; भगवती स्वरूप चतुर्वेदी का "हिरोशिमा की छाया में"; मीनाक्षी पुरी का "जाने पहचाने अजनबी";नासिरा शर्मा का "सात नदियां एक समन्दर"; प्रभा खेतान का "आओ पेपे घर चलें"; मृदुला गर्ग का "कठगुलाब"; कमल कुमार का "हैमबरगर"; उषा प्रियंवदा का " अन्तर्वंशी"; राजी सेठ का "निष्कवच" । इस तरह छह पुरुष व आठ महिला लेखकों के उपन्या

हिंदू नव वर्ष की शुभकामनाएं

सृष्टि (पृथ्वी)की आयु (अवधि) चार अरब बत्तीस करोड़ वर्ष है। अब तक यह एक अरब छयानवे करोड़ आठ लाख त्रेपन हजार एक सौ पंद्रह वर्ष की हो चुकी है और दो अरब पैंतीस करोड़ इक्यावन लाख छयालिस हजार आठ सौ पिचासी वर्ष प्रलय होने में शेष  हैं। विक्रम संवत्सर 2073 की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं ... चैत्र नवरात्र, युगाडी,गुडी पाडवा   की हार्दिक शुभकामनाएं  स्रोत::यजुर्वेद अध्याय३१,मंत्र १; ऋग्वेदअष्टक ८,अध्याय ७, मंत्र १ व ऋग्वेद अष्टक ६,अध्याय४,मंत्र २

सिद्धार्थ : हरमन हेसे का उपन्यास :: 01 ::

भाग-1 ब्राह्मण का बेटा  घर की छाया तले,नदी के किनारे,नावों के निकट धूप में साल और अंजीर की छांव में सिद्धार्थ ,ब्राह्मण का सुंदर बेटा, अपने मित्र गोविंदा के संग पला-बढ़ा। नदी किनारे उसके  पवित्र स्नान और पवित्र बलि-कर्म करते हुए भी सूर्य ने उसके छरहरे कंधों को सांवला बना दिया था। अमराई तले खेलते हुए , मां के गुनगुनाए हुए गीतों को सुनते हुए,अपने पिता की शिक्षाओं को सुनते हुए व ज्ञानियों की संगत करते हुए उसकी आंखों से छवियां गुजरती रही। सिद्धार्थ ने  बहुत समय तक ज्ञानियों के साथ चर्चाएं की, गोविंदा के साथ अनेक बार बहसें हुई और उसके साथ मनन-चिंतन के साथ ध्यान-साधना का अभ्यास किया। वह पहले से जानता था कि कैसे ओम - शब्दों के शब्द-महाशब्द,  का अंतस्थ में मौन उच्चारण किया जाए। सांस को कैसे भीतर लेना है और कैसे बाहर छोड़ना है,संपूर्णता के साथ। ऐसा करते समय उसका मस्तक दमकता था, अंत:करण के प्रकाश से।  वह जानता था कि अपने अस्तित्व की गहराई में कैसे आत्मा को पहचाना जाए। जो अनश्वर है और ब्रह्मांड के साथ एकाकार।  उसके पिता के हृदय में खुशी थी क्योंकि उसका बेटा बुद्धिमान व ज्ञान-पिपासु था। वे