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सिद्धार्थ : हरमन हेसे का उपन्यास :: 01 ::

भाग-1 ब्राह्मण का बेटा  घर की छाया तले,नदी के किनारे,नावों के निकट धूप में साल और अंजीर की छांव में सिद्धार्थ ,ब्राह्मण का सुंदर बेटा, अपने मित्र गोविंदा के संग पला-बढ़ा। नदी किनारे उसके  पवित्र स्नान और पवित्र बलि-कर्म करते हुए भी सूर्य ने उसके छरहरे कंधों को सांवला बना दिया था। अमराई तले खेलते हुए , मां के गुनगुनाए हुए गीतों को सुनते हुए,अपने पिता की शिक्षाओं को सुनते हुए व ज्ञानियों की संगत करते हुए उसकी आंखों से छवियां गुजरती रही। सिद्धार्थ ने  बहुत समय तक ज्ञानियों के साथ चर्चाएं की, गोविंदा के साथ अनेक बार बहसें हुई और उसके साथ मनन-चिंतन के साथ ध्यान-साधना का अभ्यास किया। वह पहले से जानता था कि कैसे ओम - शब्दों के शब्द-महाशब्द,  का अंतस्थ में मौन उच्चारण किया जाए। सांस को कैसे भीतर लेना है और कैसे बाहर छोड़ना है,संपूर्णता के साथ। ऐसा करते समय उसका मस्तक दमकता था, अंत:करण के प्रकाश से।  वह जानता था कि अपने अस्तित्व की गहराई में कैसे आत्मा को पहचाना जाए। जो अनश्वर है और ब्रह्मांड के साथ एकाकार।  उसके पिता के हृदय में खुशी थी क्योंकि उसका बेटा बुद्धिमान व ज्ञान-पिपासु था। वे