साहित्य क्या है


साहित्य का आनंद हर पढ़े-लिखे व्यक्ति ने जिंदगी में अपने-अपने ढंग से लिया ही है और जब कभी वह कुछ अच्छा पढ़ता है तो उसे दूसरों में बाँटने का भाव भी उसमें उमगता ही है । आपस में बांटने के लिए उस आनंद का कुछ ब्यौरा भी देना पड़ता है । उसे यह बताना पड़ता है कि जो अच्छा लगा वह क्या है और वह उसे क्यों अच्छा लगा । इस अच्छे लगने के पीछे शब्द और उसके अर्थ-ग्रहण का भाव निहित है । 


संस्कृत में एक शब्द है : वाङ्मय अर्थात भाषा में जो कहा गया या लिखा गया हो वह वाङ्मय है । वाङ्मय के अंतर्गत समस्त ज्ञान आ जाता है ।  वाङ्मय के दो भेद माने गए हैं : शास्त्र और काव्य । शास्त्र के अंतर्गत सभी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान- चाहे वे भौतिक विज्ञान हों या फिर समाज विज्ञान या मानविकी । लेकिन जिसे साहित्य कहा जाता है वह विशुद्ध रूप से काव्य है । यह काव्य साहित्य क्यों कहा जाने लगा, इसे समझ लेना चाहिए । संस्कृत में काव्य की प्राचीनतम परिभाषा है : शब्दार्थो सहितौ काव्यम । शब्द और अर्थ का सहित भाव काव्य है । इस परिभाषा में सहित शब्द इतना महत्वपूर्ण है कि कालांतर में यह सहित भाव ही साहित्य के रूप में काव्य के लिए स्वीकृत कर लिया गया । आचार्य विश्वनाथ महापात्र ने साहित्य दर्पण ग्रंथ लिख कर साहित्य शब्द को प्रचलन में ला दिया ।

इस सहित शब्द में ऐसी कौन सी विशेषता रही जिसके कारण शब्द और अर्थ साहित्य के गुणधर्म को प्राप्त होते हैं ? साधारणत: देखें तो शब्द और अर्थ तो हर जगह साथ-साथ ही रहते हैं । क्या शास्त्र में शब्द और अर्थ साथ-साथ नहीं रहते ? फिर साहित्य के शब्द और अर्थ में क्या विशेष जुड़ जाता है कि वह एक अलग कोटि में रखा जाता है ? 

आचार्य कुंतक ने इन प्रश्नों का बहुत सुंदर समाधान प्रस्तुत किया । वे कहते हैं कि जब शब्द और अर्थ के बीच सुंदरता के लिए स्पर्धा या होड़ लगी हो तो साहित्य की सृष्टि होती है । सुंदरता की इस दौड़ में शब्द अर्थ से आगे निकलने की कोशिश करता है और अर्थ शब्द से आगे निकल जाने के लिए कसम खाता है और निर्णय करना कठिन हो जाता है कि कौन अधिक सुंदर है । शब्द और अर्थ की यह स्पर्धा ही सहित भाव है और साहित्य का मूल गुणधर्म भी यही है ।

तुलसी की एक पंक्ति है : वरदंत की पंगति कुंद कली अधराधर पल्लव खोलन की । यह राम के शिशु रूप का वर्णन है । शब्द भी सुंदर हैं और अर्थ भी । लेकिन कौन अधिक सुंदर है, यह कहना कठिन है । शब्द और अर्थ के बीच जैसे स्पर्धा लगी है । यह स्पर्धा ही सहित भाव है । इसलिए यह साहित्य है ।

सहित का जो भाव साहित्य का अपना धर्म है, वही मनुष्य के समाज की भी बुनियाद है । इसे परस्परता या आपसी संबंधों के रूप में देखा जा सकता है । मनुष्य सामाजिक प्राणी है । इसलिए वह अपने अलावा दूसरों के कृत्यों में भी रस लेता है औरों के सुख-दुख में शामिल होता है तथा औरों को भी अपने सुख दुख में साझीदार बनाना चाहता है । इतना ही नहीं बल्कि वह अपने इर्द-गिर्द की दुनिया को समझना चाहता है और इस दुनिया में कोई कमी दिखाई पड़ती है तो उसे बदल कर बेहतर बनाने की भी कोशिश करता है । परस्परता के इस वातावरण में ही प्रसंगवश वह चीज पैदा होती है जिसे साहित्य की संज्ञा दी गई है । दूसरी ओर जब मनुष्य की कोई वाणी समाज में परस्परता के इस भाव को मजबूत बनाती है तो वह भी साहित्य कहा जाता है । इस प्रकार साहित्य में निहित सहित शब्द का एक व्यापक सामाजिक अर्थ भी है जो उसके उद्देश्य और प्रयोजन की ओर संकेत करता है । 

जब कोई अपने और पराये की संकुचित सीमा से ऊपर उठ कर सामान्य मनुष्यता की भूमि पर पहुँच जाए तो समझना चाहिए कि वह साहित्य धर्म का निर्वाह कर रहा है । आचार्य राम चंद्र शुक्ल ने इसी को ह्रदय की मुक्तावस्था कहा है । 

इस प्रकार साहित्य के संसार में शब्द और अर्थ सौंदर्य के लिए आपस में स्पर्धा करते हुए लोकमंगल के ऊँचे आदर्श की ओर अग्रसर होते हैं ।   

टिप्पणियाँ

  1. मनुष्य को मानवता की पृष्ठभूमि में मानवता की मुख्य भूमि पर लाना ही साहित्य की परम गति है. -भारत भूषण उवाच (इसे गंभीरता से मत लीजिएगा)

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  2. मनोज भाई!
    सबसे पहले तो इतने सुन्दर लेख के लिये हार्दिक बधाई!

    "शब्द और अर्थ के बीच का यह स्पर्धा भाव" बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति है, जैसे दो छोटे बच्चे आपस में रेस लगाते आकर आपसे लिपट जायें, और फिर उन दोनों को अपने दायें और बायें कन्धे पर बैठा कर हम सहित्य का लालित्य भाव लिये झूमते हुए आगे बढ़ जाये।

    अभिभूत कर दिया, आज तों!

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  3. मनोज जी,
    हमरे अनुरोध को मानकर आप ई पोस्ट लिखे, भले ही देर से…मन खुस हो गया.. आपका सब्द अऊर अर्थ समाहित होकर हमए अंतस में बईठ गया है... आभार आपका!!

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