यजुर्वेद का संबंध यज्ञ से है।ज्ञान को कर्म में परिणित करना इसका उद्देश्य है।कर्म के लिए प्रेरित करने वाला शास्त्र होने के कारण ही इसे कर्मवेद के रूप में भी पहचाना जाता है।यजुर्वेद के पहले मंत्र में ही कर्म करने का आदेश है: देवो व: सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणे। अर्थात सबका सृजन करने वाला देव ! तुम सबको श्रेष्ठ कर्म करने के लिए प्रेरित करो। इसी तरह यजुर्वेद के अंतिम चालिसवें अध्याय के दूसरे मंत्र में कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीने की इच्छा रखने को कहा गया है: कुर्वन्नवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समा:। इस वेद में यज्ञ के समय उपयोग में लाए जाने वाले नियमों एवं मंत्रों का वर्णन है। यह प्रमुखत: गद्य में है। यजुर्वेद मुख्यत: अध्वर्यु पुरोहितों की दिग्दर्शिका है; जो कर्मकांडों के नियमों का पालन करते थे।यजुर्वेद संहिता के दो भाग हैं: 1.कृष्ण यजुर्वेद 2. शुक्ल यजुर्वेद। 1. कृष्ण यजुर्वेद : कृष्ण यजुर्वेद की उत्पत्ति के बारे में कहा गया है कि वेदव्यास ने अपने शिष्य वैशम्पायन को यजुर्वेद सिखलाया। वैशम्पायन ने याज्ञवल्क्य ऋषि को इसकी शिक्षा दी।बाद में किसी बात पर रुष्ट होकर वैशम्पायन ने अपन
आध्यात्मिक विषयों पर केंद्रित यह ब्लॉग सत्य,अस्तित्व और वैश्विक सत्ता को समर्पित एक प्रयास है : जीवन को इसके विस्तार में समझना और इसके आनंद को बांटना ही इसका उद्देश्य है। एक सनातन गूंज...जो गूंज रही है अनवरत...उसी गूंज की अनुगूंज यहां प्रतिध्वनित हो रही है...