अनाड़ी हाथ

झेन आश्रमों में चाय बनाना और उसे पीना भी ध्यान की एक विशेष विधि है । वस्तुत: यह" कार्य करते हुए ध्यान" का एक अनूठा प्रयोग है । साधक एक-एक चीज़ होशपूर्ण ढंग से करता है । चुल्हे का जलाना, उस पर चाय की केतली रखना, उसमें पानी डालना, उसे उबलते हुए देखना, उसमें विशेष मात्रा में चाय की पत्तियाँ उँडेलना, दूध डालना और फिर चाय की महक को महसूस करना और फिर विशेष ढंग से बने नाजुक प्यालों में चाय को डालना और फिर उसकी धीरे-धीरे करके चुस्कियाँ लेना । इस पूरे उपक्रम में साधक घंटों व्यतीत करते हैं । यह उनका चाय ध्यान होता है । 

एक बार ऐसे ही चाय-ध्यान के अवसर पर  एक वरिष्ठ साधक एक नवीन साधक के साथ था । चाय  के नाजुक प्याले को पकड़ते हुए, उसने वरिष्ठ साधक से पूछा, "ये चाय के प्याले इतने नाजुक क्यों बनाए जाते हैं कि जरा-सी चूक होते ही टूट जाएँ ।" 

वरिष्ठ साधक ने कहा," प्याले नाजुक नहीं होते, जिन हाथों में प्याले टूटते हैं, वे अनाड़ी होते हैं ।"

टिप्पणियाँ

  1. महाप्रभु!
    हमारे बच्चे भी ऐसे ही प्याले हैं जिनका भविष्य हमारे सधे/अनाड़ी हाथों में आकर टूटता/सँवरता है! अत्यंत प्रेरणादायी कथा!

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  2. बहुत सुंदर बात कही गई है. चाय, उसके बनाने की विधि, कपों के साथ व्यवहार आदि सभी मिल कर समाधि में ले जाने वाले साधन बन जाते हैं.

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