विवाह के उद्देश्य


धर्म
पिछली पोस्ट में हमने जाना कि हिंदू दर्शन में विवाह एक संस्कार है।भारतीय दर्शन में धर्म का बहुत महत्त्व है।विवाह के प्रमुख उद्देश्य में भी धर्म सर्वोपरि है।स्त्री-पुरुष के मिलन से समाज की जो इकाई बनती है,वह परिवार कहलाता है।दाम्पत्य जीवन के बिना पारिवारिक जीवन दुष्कर ही नहीं वरन असंभव है। परिवार के जन्म के साथ ही मनुष्य में कर्त्तव्य-भाव का विकास दिखाई देता है। हिंदु-दर्शन के अनुसार प्रत्येक मनुष्य के कुछ निश्चित कर्त्तव्य हैं और विवाह इन कर्त्तव्यों को उचित ढ़ंग से निष्पादित करने में सहायक है। हिंदु-धर्म के अनुसार मनुष्य जीवन के पंच महायज्ञ स्वीकार किए गए हैं। ये पांच महायज्ञ हैं: ब्रह्म यज्ञ, पितृ यज्ञ, देव यज्ञ, भूत यज्ञ और नृ यज्ञ। इन पांचों यज्ञों को पूरा करने के लिए पत्नी का सहयोग परम आवश्यक है।
ब्रह्म यज्ञ :: ब्रह्म यज्ञ से अभिप्राय: है :इस सृष्टि और ब्रह्मांड के रहस्य को समझना। इस ब्रह्मांड में निरंतर सृजन और विनाश जारी है। विवाह सृजन में सहायक है। विवाह से ही सृष्टि का क्रम निरंतर बना रहता है। व्यक्ति को निरंतर अपने ज्ञान-चक्षुओं को खुला रखना ही ब्रह्म-यज्ञ है। प्राचीन समय में ज्ञान को वेद कहा गया,इसलिए वेदों के अध्ययन को ब्रह्म-ज्ञान का प्रमुख स्रोत कहा गया।

पितृ यज्ञ :: साधारणतया इसे मृत पितरों से संबंधित तर्पण आदि से जोड़ दिया गया है। जिसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति पर पितरों का ऋण होता है और इस ऋण से उऋण होने के लिए पुत्र प्राप्त करना जरूरी समझा गया। जिसके लिए विवाह आवश्यक हो जाता है। लेकिन पितृ यज्ञ का गहरा अर्थ यह है कि सृष्टि के चक्कर को बनाए रखा जाए। पति पत्नी के गर्भ से संतति को जन्म दे।वह पिता बने और पत्नी मां। पिता बनने पर ही व्यक्ति अपने पितृ यज्ञ को पूरा कर सकता है। भारतीय संस्कृति में इसी लिए पितामह होने पर व्यक्ति को जो खुशी मिलती है,उसका कोई पारावार नहीं। हिंदु धर्म में विश्व एक निरंतरता है। इस निरंतरता में विवाह एक सेतु है। जो वर्तमान पीढ़ी को उसकी भूत और भविष्य पीढ़ी से जोड़ती है। पितरों को तर्पण करना भी इस महत श्रृंखला का द्योतक है।

देव यज्ञ :: देव कौन हैं? जो भी इस ब्रह्मांड की सृष्टि में सहायक शक्तियां हैं वे देव हैं। मनुष्य का धर्म है कि वह इन शक्तियों को पहचाने व इनके संरक्षण में सहायक बने। पृथ्वी,वायु,आकाश,जल,अग्नि जैसे तत्वों से मनुष्य के शरीर का निर्माण हुआ है। इस दृष्टि से ये देव हैं।पति और पत्नी इन तत्वों के संरक्षण में सहायक बन सकते हैं। इसी लिए किसी भी यज्ञ को पत्नी के बिना पूरा नहीं किया जा सकता। जब मनुष्य में अपने वातावरण में मौजूद हर जीवित,अजीवित वस्तु के प्रति प्रेम भाव उमगता है; तो वह देव यज्ञ में सहभागी हो रहा होता है। स्त्री से प्रेम व्यक्ति के जीवन में संपूर्ण ब्रह्मांड के प्रति प्रेम भाव जागृत करने में सहायक है। 

भूत यज्ञ :: चौथा यज्ञ भूत यज्ञ है; जिसे स्मृतिकारों ने बलिवैश्वदेव भी कहा है। इस यज्ञ का तात्पर्य यह है कि कि मनुष्य प्राणि-मात्र के प्रति अपने कर्त्तव्यों को समझे। जो भूत हो चुके हैं अर्थात अब देह में नहीं हैं, जो निराधार हैं या किन्हीं कारणवश अपने उदर की पूर्ति नहीं कर सकते उन्हें भोजन आदि देकर सहायता करें। शायद इसी कारण से व्यक्ति से यह अपेक्षा की गई कि वह स्वयं भोजन करने से पूर्व वह अपने भोजन में से कुछ कुत्ते,पतित,पापी,श्वपच,रोगी,वायस,कृमि आदि को दे। इस यज्ञ के द्वारा मनुष्य अन्यों के प्रति अपने कर्त्तव्यों का निर्वहण करता है। 

नृ यज्ञ :: पांचवां नृयज्ञ कहा गया। इसे अतिथि यज्ञ भी कहते हैं। मनुष्य अतिथि की सेवा करे तो नृ यज्ञ संपन्न होता है। नृ यानी मानव की सेवा मात्र इस यज्ञ का हेतु है। 

इस प्रकार इन पांच यज्ञों से मनुष्य-जीवन के सभी कर्त्तव्यों को जोड़ दिया गया है। मनु ने लिखा है कि स्त्रियों की सृष्टि माता बनने के लिए और पुरुषों की सृष्टि पिता बनने के लिए की गई। धार्मिक कार्य पुरुषों को अपनी स्त्रियों के साथ ही करना चाहिए। यही कारण है कि विवाह को हिंदु विचारधारा के अनुसार एक संस्कार अथवा शरीर संस्कार माना जाता है; जिससे शरीर शुद्धि होती है।
ऋग्वेद के अनुसार विवाह का आदर्श गृहस्थ आश्रम में प्रवेश कर देवताओं के लिए यज्ञ करना और संतान उत्पन्न करना है। 
आपस्तम्ब धर्म सूत्र के अनुसार विवाह द्वारा ही मनुष्य धार्मिक अनुष्ठानों को करने के योग्य बनता है,क्योंकि अविवाहित पुरुष अपूर्ण रहता है।
विवाह के द्वारा ही मनुष्य को पुत्र की प्राप्ति हो सकती है, जो उसे नरक से बचाता है। मनु का मत है कि संतान धारण,धार्मिक आचारों का पालन,सेवा, श्रेष्ठ आनंद और स्वर्ग प्राप्ति स्त्री के बिना संभव नहीं। अत: धर्म के पालन के लिए विवाह आवश्यक है। 
प्रजा 
हिंदू विवाह का दूसरा उद्देश्य संतति उत्पन्न करना है। पुत्र उत्पन्न करना हिंदू विचारधारा के अनुसार अति आवश्यक है। मनु संहिता और महाभारत में दी गई व्याख्या के अनुसार पुत्र का अर्थ है: नरक(पुम) में जाने से पिता की रक्षा करने वाला। पुत्र प्राप्ति को और प्रजनन क्रिया को यौन संतुष्टि का परिणाम न मानकर उसे धर्म साधन कहा गया है। वास्तव में विवाह का मुख्य आदर्श है- धर्म पालन,क्योंकि प्रजा और रति भी धर्म पालन के अंग हैं।
मनु के अनुसार पुत्र प्राप्ति इस संसार और अगले संसार दोनों में सुख का साधन समझा गया है। मनु ने लिखा है- केवल वह व्यक्ति ही पूर्ण कहलाने योग्य है,जिसके पास पत्नी और बच्चे हैं। अत: प्रत्येक हिंदू के लिए विवाह करना अनिवार्य माना जाता है। विवाह अपने पूर्वजों के प्रति एक कर्त्तव्य है।
महा भारत में एक कथा है जिसके अनुसार एक स्त्री बिना विवाह ही तपस्या करने लगी, परंतु नारद जी ने उससे कहा कि विवाह द्वारा शुद्ध हुए बिना उसे मोक्ष नहीं मिलेगा। तब उसने अपने तप का आधा फल देकर श्रृंग्वान से विवाह किया और फिर कहीं स्वर्ग को जा सकी। पुत्र का उत्पन्न होना आवश्यक है क्योंकि बिना पुत्र के अनेक धर्म नहीं हो सकते- जैसे तर्पण, पिंडदान तथा पितरों की शांति। ऐसा कहा जाता है कि जरकाल उग्र तपस्वी ऋषि थे, किंतु अपने पितरों की दयनीय दशा देककर विवाह किया और पुत्र उत्पन्न किया। 
रति
हिंदू विवाह का तीसरा उद्देश्य रति अर्थात यौनिक आनंद प्राप्ति है। रति का स्थान हिंदू विवाह में सबसे गौण रखा गया है और यौन क्रिया का सामाजीकरण ही विवाह का मुख्य आधार माना गया है। केवल यौन संतुष्टि ही विवाह का एकमात्र उद्देश्य नहीं है। विवाह में रति के गौण स्थान को सिद्ध करने के लिए कहा गया है कि नीच पुरुष ही इंद्रिय सुख के लिए विवाह करता है, जो सांसारिक और दहिक सुखों को ही सब कुछ समझता है...ऐसे पुरुष के जीवन में कोई उच्च आदर्श नहीं होता। 
हिंदु विवाह को पवित्र माना गया है और यह अविच्छेद्य होता है। हिंदु-धर्म में तलाक का कोई स्थान नहीं है। यहां तक कि पति-पत्नी मृत्योपरांत भी विवाह-बंधन में बंधे रहते हैं। इसी कारण हिंदुओं में विधवा विवाह का विधान नहीं रहा। विवाह जन्म-जनमांतर का संबंध माना गया। हिंदुओं में दाम्पत्य जीवन में संघर्ष की भावना को कोई स्थान नहीं दिया गया है। पत्नी अर्धांग्नी समझी जाती है और उनमें व्यक्तिगत स्वार्थों को कोई महत्व नहीं दिया गया। इसी भावना के कारण भारत में संयुक्त परिवार को बल मिला। पत्नी का पति से परे कोई अस्तित्व नहीं होता। सती और पतिव्रता की धारणाओं से यह सिद्ध होता है कि पत्नी पति का एक रूप मानी जाती है, उसका अपना अलग कोई स्थान नहीं। 
अत: हिंदू विवाह एक धार्मिक गठबंधन है। जिसमें पति पत्नी मृत्योपरांत भी एक बंधन में बंधे रहते हैं। विवाह एक समझौता मात्र नहीं है,बल्कि एक धार्मिक संस्कार है। इसे बिना धार्मिक कृत्यों के संपन्न नहीं किया जा सकता। इसे पुरोहित द्वारा अग्नि को साक्षी मान सम्पन्न कराया जाता है। इसमें धर्म का स्थान सर्वोपरि है। यह मानव जीवन के पुरुषार्थों को पूर्ण करने का साधन है।

टिप्पणियाँ

  1. आज आपकी पोस्ट पढते समय फिल्म 'सिलसिला' का वह दृश्य मेरे सामने से गुज़र गया जिसमें दोनों वेवाहेटर समबन्ध रखने वाले नायक-नायिका का ह्रदय परिवर्तन होता है. इनमें से एक यज्ञ के अवसर पर उन्हें अपने अधूरेपन का बोध होता है जिसका उन्होंने स्वयं वरण किया था अपने-अपने जीवन-साथी का परित्याग करके!
    इस आलेख ने हमारी परम्पराओं के दृढ होने का प्रमाण प्रस्तुत किया है!!

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