न पानी, न चाँद
चाँदनी रात थी । एक झेन साधिका लकड़ी की बाल्टी में पानी भर कर आश्रम की ओर लौट रही थी । पानी में चाँद प्रतिबिंबित हो रहा था । बाल्टी पुरानी थी । अचानक बाल्टी जिस बाँस से बंधी थी वह टूट गया और उसका पेंदा निकल गया । पानी बिखर गया । इस घटना से साधिका को ज्ञान हुआ । बाद में उसने एक कविता लिखी -
ऐसे-वैसे, जैसे-तैसे बचाया मैंने जल-पात्र को,
कि कमजोर पड़ता जा रहा था बाँस का बंधन
और आखिर टूट ही गया पेंदा उसका
न जल-पात्र में रहा पानी
न पानी में चाँद !!!
मनोज जी! हम तो इसी प्रयास में लगे हैं कि जहाँ तक हो सके इस पात्र के पेंदे को बचा सकें और जितना भी चाँद को समेट सकें समेटकर एक दिन उस अनंत की यात्रा पर निकल जाएँ. बस यह मलाल न रह जाए कि रीता ही रहा जलपात्र!!
जवाब देंहटाएंप्रेरणादायी प्रसंग !
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