अतीत की मृत्यु और शून्यता

एक संन्यासी ने अपने शिष्य को एक दिन कहा कि तू बहुत दिन मेरे पास रहा है। अब मैं तुझे कहीं और भेजता हूं। ताकि मैंने तुझसे जो कहा है वह और ठीक से समझ ले। तो उसको एक दूसरे संन्यासी के पास भेजा कि तू जा और उसके पास रह और उसकी जीवन चर्या को देख।

वह वहां गया। सुबह से शाम तक उसने दिनचर्या को देखा। उसमें कुछ भी नहीं था। वह संन्यासी एक छोटी-सी सराय का रखवाला था। वह संन्यासी भी नहीं था। साधारण कपड़े पहनता था। लेकिन उसके गुरु ने उसे वहां भेजा,तो गया। वह सुबह से शाम तक देखता रहा,वहां तो कुछ भी नहीं था। वह आदमी है,रखवाला है,रखवाली करता है। सराय साफ करता है। मेहमान ठहरते हैं,उनके कमरे साफ करता है। मेहमान जाते हैं,उनके कमरे साफ करता है। उसने दो-चार दिन देखा तो ऊब गया। वहां तो कोई बात ही नहीं थी,चर्या की कोई बात ही नहीं थी। चलते वक्त उसने कहा,सब देख लिया,जिसके लिए मेरे गुरु ने भेजा था। सिर्फ दो बातें मैं नहीं देख पाया हूं: रात को सोते समय आप क्या करते हैं,वह मुझे पता नहीं है और सुबह उठते वक्त आप क्या करते हैं,वह मुझे पता नहीं। यह मुझे बता दें। मैं वापस लौट जाऊं।

संन्यासी ने कहा,कुछ नहीं करता। दिन भर मैं सराय के जो बरतन गंदे हो जाते हैं,रात में उनको साफ करके रख देता हूं और सुबह जब उठता हूं तो रात भर उनपर थोड़ी बहुत धूल जम जाती है, तो उन्हें मैं फिर पोंछ देता हूं। बस इससे ज्यादा कुछ नहीं करता।

शिष्य ने वापस लौटकर गुरु से कहा,कहां तुमने मुझे भेज दिया। एक साधारण सराय के रखवाले के पास! उस नासमझ से मैंने पूछा,तो न तो वह प्रार्थना करता है,न ध्यान,न कुछ। वह मुझसे बोला,रात बरतन साफ कर देता हूं,जो दिन भर गंदे हो जाते हैं। और सुबह थोड़ी धूल जम जाती है तो फिर उसे पोंछ देता हूं।

उसके गुरु ने कहा--कह दिया उसने। जो कहने-जैसा था,उसने वह कह दिया। सारा ध्यान,सारी समाधि,सब कह दिया। तू समझा नहीं। दिन भर बरतन गंदे हो जाते हैं,सांझ को उन्हें पोंछ कर साफ कर दो। रात भर में सपनों की थोड़ी धूल जम जाएगी,सुबह में फिर पोंछ डालो और खाली हो जाओ।मरते जाएं,रोज-रोज धूल इकट्ठी न करें। रोज मर जाएं,सांझ को मर जाएं। जो हो गया उसके प्रति मर जाएं। वह जो बीत गया उसको मन में जगह न दें,उसे पोंछ दें,उसके प्रति मर जाएं। उसे छोड़ दें। वह स्मृति से ज्यादा कुछ भी नहीं। उस कचरे को अलग करें। शांत हो जाएं,चुप हो जाएं,शून्य हो जाएं। सुबह उठें जैसे कोई शून्य उठा हो,जिसका कोई आगा-पीछा नहीं है। दिन भर ऐसे जिएं जैसे सब शून्य है। बाहर सब हो रहा है,भीतर शून्य है। अगर सतत इस शून्य का भीतर स्मरण हो तो धीरे-धीरे वह गड्ढ़ा तैयार हो जाता है,जिसमें परमात्मा का अवतरण होता है और अमृत की वर्षा होती है। खाली हो जाएं-परमात्मा आपको भर देगा। इसके सिवा और कोई महत्त्वपूर्ण बात नहीं है। खाली हो जाएं--परमात्मा आपको भर देगा। भर जाएं--परमात्मा आपको खाली कर देगा।

टिप्पणियाँ

  1. बहुत खूब. जीवन में शांति के सारे गुर इस कथा में भर दिए गए हैं. आभार

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  2. आपकी टिप्पणियों से मेरा प्रयास सार्थक लगता है।

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  3. शून्य से पूर्ण तक।
    प्रेरक प्रसंग।

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