वह अकेला आदमी ::2::

एक दिन वह गांव की कच्ची गलियों में अपने हमउम्र  बच्चों के साथ खेल रहा था। खेलते-खेलते वह नीम की छांव तले  आ गया। पीछे-पीछे उसका दोस्त सुरेश भी आ गया। वह जमीन में देखने लगा। जमीन कभी गारे-गोबर से लीपी गई थी। जमीन में उसे दो चीज़ें दिखाई दी। जो गारे-गोबर के साथ जमीन में धंस गई थी। एक  नए पैसे का सिक्का और एक स्वर्ण की आभा लिए श्वेत पत्थर। पैसे से अधिक उसे पत्थर ने आकर्षित किया। उसने अपने नन्हें हाथों से खुर्च-खुर्च कर उस पत्थर को जमीन से निकालने का प्रयास किया। तब तक उसके दोस्त की निगाह एक पैसे के सिक्के पर पड़ चुकी थी। सुरेश उस सिक्के को निकालने में लग गया।कुछ देर बाद उसने वह पत्थर जमीन से बाहर निकाल लिया था। उधर सुरेश ने भी तब तक नए पैसे का सिक्का जमीन से निकाल लिया।


सुरेश ने उससे पूछा, "मनु तूने मुझ से पहले यह सिक्का देख लिया था,फिर तू यह पत्थर क्यों निकालने लगा।"


उसने कहा, "देख यह पत्थर कितना सुंदर है। इस पर यह पीले रंग की धारी कितनी सुंदर लग रही है और यह देख इसका आकार तेरे सिक्के से कितना अच्छा है-गोल-गोल। इस पत्थर को मैं हमेशा अपने पास रखूंगा। यह कोई सिक्का थोड़े ही है,जो आज तुम्हारे पास और  कल किसी और का होगा।  यह पत्थर तो कीमती है। हमेशा पास में रखने लायक। इसको देखते ही मैं जान गया था कि यह कोई साधारण पत्थर नहीं है,बल्कि हिरा है हिरा।"


सुरेश को बात जंची कि सचमुच सिक्के से वह ज्यादा से ज्यादा एक मीठी गोली खरीद पाएगा। जबकि उसे मिला वह पत्थर तो बहुत सुंदर और गले में लटकाने लायक था। सुरेश को लालच आया। उसने मनु के हाथ से पत्थर छीन लिया और वहां से भाग गया। भाग कर वह अपने घर में घुस गया। घर में जाकर फूस भरे छप्पर में घुस गया। पीछे-पीछे वह भी भागा। लेकिन सुरेश छप्पर में जा कर दुबुक गया और वहां से बोला- "नहीं दूंगा तुम्हें यह पत्थर। यह तो मैं रखूंगा।"


मनु उदास और रुआंसा हो गया। वह अपनी मां के पास गया। मां को सारा किस्सा कह सुनाया। मां उसे लेकर सुरेश के पास आयी और उसे उसका पत्थर लौटाने को कहा।


सुरेश ने कहा, "सिक्का ले ले, पत्थर न दूंगा। पत्थर तो मैं ही रखूंगा।"


मां ने उसे समझाया "बेटा तू सिक्का ले ले, पत्थर से उसे खेलने दे।"


"नहीं मां, मुझे तो वह पत्थर ही चाहिए, पैसा लेना होता तो मैं पहले सिक्के को ही चुनता। दोनों को पहले मैंने ही देखा था।"


मां ने उसे समझाया, "बेटा न वह पैसा और न पत्थर ही तेरे थे। दोनों ही मिट्टी में सने थे। तूने पत्थर को कीमती समझा और उसने पैसे को। लेकिन दोनों ही पराए हैं। न वो तेरा था न यह तेरा। सब उसका ही उसका।  तू समझदार है और उससे बड़ा भी। घर चल, बहुत देर हो गई है। भूख लगी होगी।"  

टिप्पणियाँ

  1. लेकिन दोनों ही पराए हैं। न वो तेरा था न यह तेरा। सब उसका ही उसका।

    बहुत सुंदर बोध देती कथा..

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  2. आपकी यह श्रृंखला पढते हुए बचपन में पढ़ी जैनेन्द्र कुमार की कथा "खेल" याद आ गयी. जहाँ उन्होंने एक घरौंदे का संकेत चुना, वहाएं इस कथांश में सिक्के और कीमती पत्थर के बिम्ब लिये गए हैं. कथांश का अंतिम भाग एक दार्शनिक अथवा आध्यात्मिक भाव की ओर इंगित कर रहा है.
    श्रृंखला का विस्तार आगे की कड़ियों के लिये आकर्षण बनाए रखने में सफल है. किन्तु पूरी पोस्ट को एक ही अनुच्छेद में लिख डालने से अच्छा होता यदि अनुच्छेद परिवर्तन किया गया होता तथा संवादों को अलग से दर्शाया गया होता. यह सज्जा की दृष्टि से विचारणीय है. आगे की कड़ियों की प्रतीक्षा रहेगी. कृपया दो कड़ियों के बीच अधिक अंतराल न रखें, जिससे पिछली कथा का तारतम्य बना रहे!

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