ज्ञान-गंगा : 3

महर्षि रमण से किसी ने पूछा कि सत्य को जानने के लिए मैं क्या सीखूं ? श्री रमण ने कहा जो जानते हो उसे भूल जाओ । यह उत्तर बहुत अर्थपूर्ण है । मनुष्य का मन बाहर से संस्कार और शिक्षाएं लेकर एक कारागृह बन जाता है। बाह्य प्रभावों की धूल में दबकर उसकी स्वयं की दर्पण जैसी निर्मलता ढक जाती है । जैसे किसी झील पर कोई आवृत्त हो जाए और सूर्य या चंद्रमा का प्रतिबिम्ब उसमें न बन सके । ऐसे ही मन भी बाहर के सीखे गए ज्ञान से इतना आवृत्त हो जाता है कि सत्य का प्रतिफलन उसमें नहीं हो पाता । ऐसे मन के द्वार और झरोखे बंद हो जाते हैं । वह अपनी ही क्षुद्रता में सीमित हो जाता है , और विराट के संपर्क से वंचित । इस भांति बंद मन ही बंधन है । सत्य के सागर में जिन्हें संचरण करना है, उन्हें मन को सीखे हुए किसी भी खूंटे से बांधने का कोई उपाय नहीं है । तट से बंधे होना और साथ ही सागर में प्रवेश कैसे संभव है ?
एक पुरानी कथा है - एक संन्यासी सूर्य निकलने के पूर्व ही नदी में स्नान करने उतरा, अभी अंधियारा था और भोर के अंतिम तारे डूबते थे । एक व्यक्ति नाव पर बैठकर पतवार चलाता था, किंतु नाव आगे नहीं बढ़ती थी । अंधरे के कारण उसे वह सांकल नहीं दिखती थी, जिससे नाव बंधी हुई थी । उसने चिल्ला कर संन्यासी से पूछा कि स्वामी जी इस नाव को क्या हो गया है। उस संन्नयासी ने कहा, मित्र पहले खूंटे से बंधी उसकी सांकल को तो खोलो । मनुष्य जो भी बाहर से सीख लेता है, वह सीखा हुआ ज्ञान ही खूंटों की भांति उसके चित्त की नाव को अपने से बांध लेता है और आत्मा के सागर में उसका प्रवेश संभव नहीं हो पाता । जिसे परमात्मा के ज्ञान को पाना हो उसे बाहर से सीखे गए अपने ज्ञान को छोड़ देना होगा । इस अवस्था को दिव्य अज्ञान कह सकते हैं । इसे साध लेने से बड़ी और कोई साधना नहीं है ।
कुछ भी जानने का भाव अहंकार को पुष्ट करता है । इसीलिए उपनिषद् के ऋषियों ने कहा है कि जो कहे कि मैं जानता हूँ, तो जानना कि, वह नहीं जानता । जो जानते हैं, उनका तो मैं खो जाता है । बाहर से आया हुआ ज्ञान मैं को भरता है; भीतर से जगा हुआ ज्ञान उसे बहा ले जाता है । ज्ञान को पाने की विधि है कि सब ज्ञान को छोड़ दो । मैं को शून्य होने दो और चित्त को मौन । उस मौन और शून्यता में ही उसके दर्शन होते हैं जो कि सत्य है ।
ज्ञान नहीं विचार सीखे जा सकते हैं । विचारों के संग्रह से ही ज्ञान का भ्रम पैदा हो जाता है । विचार कम हो सकते हैं; विचार ज्यादा भी हो सकते हैं । ज्ञान न तो कम होता है और न ज्यादा होता है । या तो ज्ञान होता है या अज्ञान होता है । यह भी स्मरण रहे कि विचार अज्ञान का अंग है । केवल अज्ञानी ही विचार करता है । ज्ञानी विचारता नहीं देखता है । जिसके आंख है, उसे दिखाई पड़ता है । वह सोचता नहीं कि द्वार कहां है, वह तो द्वार को देखता है। जिसके पास आंख नहीं, वह सोचता है और टटोलता है, विचार टटोलना मात्र है । वह आंख का नहीं अंधे होने का प्रमाण है । बुद्ध, महावीर या ईसा विचारक नहीं हैं । हमने सदा ही उन्हें द्रष्टा कहा है । वे जो भी जानते हैं, वह उनके चिंतन का परिणाम नहीं, उनके दर्शन की प्रतीति है । वे जो भी करते हैं, वह भी विचार का फल नहीं है । उनकी अंतर्दृष्टि की सहज निष्पत्ति है । इस सत्य को समझना बहुत आवश्यक है ।
विचारों का संग्रह कहीं भी नहीं ले जाता । सभी प्रकार के संग्रह दरिद्रता को मिटाते नहीं, दबाते हैं । इसी लिए जो सर्वाधिक दरिद्र होते हैं, संग्रह की इच्छा भी उनकी सर्वाधिक होती है । डायोजनीज ने सिकंदर को कहा था, मैं इतना समृद्ध हूँ कि मैं कुछ भी संग्रह नहीं करता । और तेरी दरिद्रता का अंत नहीं, क्योंकि इस पूरी पृथ्वी के साम्राज्य को पा लेने पर भी तुम संग्रह करोगे । इसी लिए जब सम्राटों को संग्रह में छिपी दरिद्रता के दर्शन हुए हैं, तो उन्होंने दरिद्रता में छिपे साम्राज्य को स्वीकार कर लिया । क्या मनुष्य का इतिहास ऐसे भिखारियों से परिचित नहीं, जिनसे सम्राट बड़े कभी नहीं होते । जो धन संग्रह के संबंध में सत्य है, वह सभी प्रकार के संग्रहों के लिए भी सत्य है । विचार संग्रह भी उसका अपवाद नहीं । बाह्य संपत्ति के संग्रह से जो धनी है; वह यदि दरिद्र है, तो शास्त्रों के शब्दों से जो ज्ञानी है, वह भी अज्ञानी ही है ।शास्त्र से नहीं, जब स्वयं से और जब शब्द से नहीं बल्कि अंतस से आलोक मिलता है, तभी ज्ञान का आविर्भाव होता है ।
ज्ञान का जन्म ध्यान से होता है । ध्यान का अर्थ है : विचार छोड़कर चेतना में प्रतिष्ठित हो जाना । विचारों के प्रवाह का नाम मन है । जो इन विचारों के प्रवाह को देखता है, उसका नाम चेतना है । विचार विषय है और चेतना विषयी । विचार दृश्य है, चेतना द्रष्टा । विचार जाने जाते हैं, चेतना जानती है । विचार बाहर से आते हैं, चेतना भीतर है । विचार पर है, चेतना स्व है । विचारों को छोड़ना है और चेतना में ठहरना है । सब धर्मों की साधना का सार यही है ।
विचार प्रवाह के सम्यक् निरीक्षण से तथा तटस्थ साक्षी भाव से मात्र उन्हें देखने से वे धीरे-धीरे क्षीण हो जाते हैं । जैसे कोई बिल्ली चूहे को पकड़ती हो तो पकड़ने के पूर्व उसकी तैयारी पर ध्यान दें । कितनी सजग और कितनी शांत, कितनी शिथिल और तैयार ! ऐसे ही स्वयं के भीतर विचार को पकड़ने के लिए होना पड़ता है । जैसे ही कोई विचार उठे, बिल्ली की भांति झपटें और उसे पकड़ लें । उसे उलटें-पलटें और उसका निरीक्षण करें । किंतु उसे सोचे नहीं, मात्र देंखें । और तब पाया जाता है कि वह देखते ही देखते वाष्पीभूत हो गया है। हाथ खाली और विचार विलीन हो जाता है । फिर शांत और सजग रहें । दूसरा विचार आएगा, उसके साथ भी यही करना । तीसरा आएगा, उसके साथ भी यही । इस प्रकार ध्यान का अभ्यास करना । जैसे-जैसे अभ्यास गहरा होता है, वैसे-वैसे बिल्ली बैठी रह जाती है और चूहे विलीन हो जाते हैं । चूहे जैसे बिल्ली से डरते हैं, विचार वैसे ही ध्यान से डरते हैं । बिल्ली जैसे चूहों की मृत्यु है, ध्यान वैसे ही विचारों की मृत्यु है ।
विचार की मृत्यु पर सत्य का दर्शन होता है । तब मात्र वही शेष रह जाता है- जो है । वह सत्य है । वही परमात्मा है । उसे जानने में ही मुक्ति है और दुख व अंधकार का अतिक्रमण है ।
( यह लेख ओशो देशना पर आधारित है ।)

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