ज्ञान-गंगा : 6

मनुष्य के चित्त-विश्लेषण से जो केंद्रिय तत्त्व उपलब्ध होता है, वह है परिग्रह की दौड़ । चाहे यश हो, चाहे धन हो,चाहे ज्ञान हो,लेकिन प्रत्येक स्थिति में मनुष्य किसी न किसी भांति स्वयं को भरना चाहता है और संग्रह करता है । संग्रह न हो तो तो वह स्वयं को स्वत्वहीन अनुभव करता है । और संग्रह हो तो उसे लगता है कि मैं भी कुछ हूँ । संग्रह, शक्ति देता हुआ मालूम पड़ता है । और संग्रह स्व या अहं को भी निर्मित करता है । इसलिए जितना संग्रह उतनी शक्ति और उतना अहंकार । इस दौड़ का क्या मूलभूत कारण है ? इसे बिना समझे जो इस दौड़ के विरोध में दौड़ने लगते हैं, वे ऊपर से भले ही अपरिग्रही दिखाई पड़ें, लेकिन अंतस् में उनके भी परिग्रह ही केंद्र होता है । जो व्यक्ति स्वर्ग के लिए, बैकुण्ठ के लिए या बहिस्त के लिए सम्पत्ति और संग्रह छोड़ देते हैं, उनका छोड़ना (त्याग) कोई वास्तविक छोड़ना नहीं है । क्योंकि जहां भी कुछ पाने की आकांक्षा है, वहां परिग्रह है । फिर चाहे यह आकांक्षा परमात्मा के लिए हो या चाहे मोक्ष के लिए, चाहे निर्वाण के लिए । वासना परिग्रह की आत्मा है । लोभ ही उसका श्वांस-प्रश्वांस है । इस भांति धन को जो धर्म या पुण्य के लिए छोड़ते हैं, वे भी किसी और बड़े धन के पाने की अभिलाषा रखते हैं । यही कारण है कि यदि हम भिन्न-भिन्न धर्मों द्वारा कल्पित स्वर्ग पर विचार करें, तो उसमें हमें मनुष्य के लोभ का ही विस्तार उपलब्ध होगा । कामनाओं और वासनाओं ने ही उसका सृजन किया है । जो सुख और ऐन्द्रिक तृप्ति इस लोक में चाही जाती है, उसकी ही पूर्ति के वहां और भी सुलभ साधन प्रस्तुत किए गए हैं । कामधेनु है या कल्पवृक्ष, चिरयौवन अप्सराएं हैं या हूरें, शराब की नदियां हैं और काम भोग के सभी उपकरण हैं ।
दान-पुण्य और त्याग से यदि यही सब उपलब्ध करना है, तो ऐसे दान - पुण्य, त्याग को आत्म वंचना ही मानना होगा । यह वासना का ही विकृत्त रूप है । और परमात्मा के नाम से परिग्रह की ही तृप्ति है । यह भी हो सकता है कि कोई न स्वर्ग चाहता है, न अन्य तरह की कामनापूर्ति, लेकिन इन सब से मुक्ति चाहता हो । किंतु बहुत गहरे में देखने पर यह भी चाह का आत्यंतिक रूप है । वासनाओं से यदि दुख अनुभव होता है, तो उनसे मुक्ति चाहने में भी सुख की वासना उपस्थित है । वस्तुत: त्याग किसी भी भांति की इच्छा के साथ संभव नहीं है ।
परिग्रह की इतनी गहरी दौड़ क्यों है ?उसे छोड़ते हैं, तो भी वह उपस्थित रहता है । त्याग में भी वह खड़ा है, भोग में भी । तब क्या उससे छुटकारा संभव नहीं ? क्योंकि जो उससे छूटने की कोशिश करते हैं, वे परिवार को तो छोड़ते हुए अनुभव करते हैं, लेकिन खाई में गिरते दिखाई पड़ते हैं । उनका त्याग भोग का ही शीर्षासन करता हुआ रूप मालूम होता है । गृहस्थ और तथाकथित संन्यासी में कोई आधारभूत अंतर नहीं होता । गृहस्थ जिस ओर भागता है, संन्यासी ठीक उसके विपरीत भागता हुआ मालूम होता है । इससे संन्यासी गृहस्थ से भिन्न है, ऐसी भ्रांति पैदा होती है। लेकिन विपरीत्त दिशाओं में भागते हुए भी उनकी मूल तृष्णा में कोई भेद नहीं है । बल्कि तथाकथित त्यागवादी और अधिक काम और लोभ से ग्रसित मालूम होंगे, क्योंकि क्षणिक लौकिक सुख उन्हें तृप्त नहीं कर पाते, उनकी अभीप्सा तो शाश्वत सुख के लिए है । और यदि उस शाश्वत सुख के लिए वे इन क्षणिक सुखों को लात मार देते हों तो न तो यह अलोभ है न त्याग, न अपरिग्रह । यह तो किसी भावी लाभ की आकांक्षा में संपत्ति विनिवेश(इन्वेस्टमेंट) है ।
साधारणत: परिग्रह को छोड़ना कठिन है । जब तक कि उसके उद्भव के मूल कारण को न जाना जा सके । मूल कारण है, स्वयं से अपरिचित होना । इस अपरिचय और अज्ञान से आत्म अविश्वास उत्पन्न होता है । आत्म अविश्वास से असुरक्षा अनुभव होती है । असुरक्षा की भावना से बचने के लिए, परिग्रह की दौड़ आरंभ होती है । स्वयं का बोध न हो, तो संपत्ति और संग्रह से सुरक्षित होने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं रह जाता । स्वयं का होना है अज्ञात । वस्तुएं हैं ज्ञात । जो ज्ञात है, वह उपलब्ध करना सरल है । उसे जीतना आसान है । और उसके द्वारा जो अभाव भीतर काटता है, उससे भ्रांति ही सही, लेकिन छुटकारा मिलता हुआ अनुभव होता है । स्वयं के भीतर देखें तो वहां कुछ नहीं मालूम होता है, वहां तो एक शून्य है । गहन रिक्तता है । यह रिक्तता भरे बिना चैन नहीं । किसी न किसी भांति इसे भरना ही है । अभाव के साथ जिया नहीं जा सकता । रिक्तता घबड़ाती है और मृत्यु मालूम होती है । उससे बचने के लिए ही परिग्रह की शरण लेनी पड़ती है । संपत्ति, पद,यश,प्रतिष्ठा इन सबमें उस अभाव से पलायन ही हम खोजते हैं । लेकिन अभाव है आंतरिक और संपत्ति,पद,यश,प्रतिष्ठा सब बाह्य हैं । संपत्ति कितनी ही इकट्ठी करते चले जाएं, अभाव उससे नष्ट नहीं होता । भीतर का अभाव भीतर के भाव से ही नष्ट होगा । बाहर की कोई भी उपलब्धि उसे भरने में केवल इस कारण ही असमर्थ है कि वह बाहर की है । यही कारण है कि परिग्रह की दौड़ किसी और के पागलपन से पीड़ित रहती है । जो मिल जाता है, वह काम करता हुआ मालूम नहीं होता । अभाव वैसे का ही वैसा मालूम होता है । कितना ही अभाव को भोजन दें, उसका पेट भरता नहीं । वह मुंह बाए ही खड़ा रहता है । स्वभावत: बुद्धि कहती है और दो, इतने से नहीं हुआ, तो और करो और इस भांति एक अंतहीन चक्कर चलता रहता है । जिसमें हर पड़ाव पर लिखा होता है : और आगे । और ऐसा कोई पड़ाव नहीं है जहां यह न लिखा हो ।
परिग्रह की वृत्ति स्वयं की रिक्तता से पैदा होती है , तो उचित है कि हम इस रिक्तता को जानें और पहचाने । रिक्तता के ज्ञान के लिए रिक्तता में जीना जरूरी है । न तो उसे भरें और न उससे भागें । वरन् उसमें कूद जाएं । ताकि उसका पूरा अनुभव हो सके । यही है योग । रिक्तता में छलांग समाधि है, शून्य में जीना साधना है । जो व्यक्ति स्वयं की इस शून्यता में प्रवेश का साहस करता है, वह प्रविष्ट होकर पाता है कि जो रिक्तता अनुभव होती थी, वही आत्मा है और दूर से जो शून्य जैसा भासता था, वही परम सत्ता है । यह अनुभव अभाव से मुक्त कर देता है । परमात्मा उपलब्ध हो, परम सत्ता का साक्षात्कार हो, तो परिग्रह की वृत्ति सहज ही विलीन हो जाती है । जैसे जाग जाने पर स्वप्न विलीन हो जाते हैं, वैसे ही स्वयं में आने पर बाहर बाहर की कोई दौड़ शेष नहीं रह जाती । जीवन की दो दिशाएं हैं : परिग्रह या परमात्मा । स्वयं का अभाव है दोनों दिशाओं का प्रारंभ बिंदु। उससे भागिए तो परिग्रह की गति शुरु होती है, उसमें डूबिए तो परमात्मा उपलब्ध होता है ।

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