जीवन के प्रतिबिंब

जीवन क्या है ? निश्चित ही जीवन आधा-अधूरा नहीं है। क्योंकि मैंने इसमें पूर्णता का प्रतिबिंब देखा है और जिसमें पूर्णता प्रतिबिंबित हो सके,वह आधा-अधूरा कैसे हो सकता है ? यह व्यर्थ और सारहीन भी नहीं है। क्योंकि इसमें जो घटता है, उससे कहीं बड़ा है इसका विस्तार। कितनी ही चीजें इस जीवन में आई और हमें उनकी व्यर्थता दिखाई पड़ी । लेकिन खुद जीवन, जो चीजों की परिभाषा बुनता है, अपरिभाष्य है । क्योंकि जिस जीवन में चीजों की व्यर्थता दिखाई पड़ती है,वह खुद व्यर्थ नहीं हो सकता । अर्थहीन चीज अर्थ को कैसे जन्म दे सकती है । इसलिए यह जीवन सार्थक है, क्योंकि यह अर्थों को परिभाषित करता है ।

जीवन की कोई पगडंडियाँ नहीं होती । इन्हें तो व्यक्ति-व्यक्ति को खुद ही बनाना पड़ता है । हर व्यक्ति के लिए जीवन का अर्थ उतना ही होता है, जितना कि वह जीता है और वह उतना ही जीता है, जितना कि वह अपने लिए आकाश देखता है । आकाश अनंत है,लेकिन आप उसे किस नजर से देखते हैं, यह आप पर निर्भर है । आपकी दृष्टि ही सृष्टि बनती है ।

जीवन को देखने की कितनी ही दृष्टियाँ रहीं हैं । लेकिन फिर भी जीवन रहस्यमय बना रहता है । इन विभिन्न दृष्टियों में भी एकता दिखाई पड़ती है, क्योंकि कोई भी दृष्टि संपूर्ण का अंश ही हो सकती है । संपूर्ण सत्ता में हम सब संबंधित है । एक अदृश्य सेतु से बंधे हुए । मैं कभी यह नहीं कह सकता कि मेरा अस्तित्व तुम्हारे अस्तित्व से भिन्न है । क्योंकि वस्तुत: आपका होना ही मेरा होना है । हम संपूर्णता की सत्ता के अंश मात्र हैं । आपके न होने से मुझ में कुछ रिक्त हो जाएगा, इस रिक्तता को कोई नहीं भर सकता ।

वस्तुत: मेरा या आपका अस्तित्व नहीं है, बल्कि स्वयं अस्तित्व का ही अस्तित्व है । हम सिर्फ उसके रूप हैं, जो बदलते रहते हैं । और जब तक मैं और तू की लहरें रहती हैं, तब तक हममें अधूरापन रहता है । जब हम स्वयं को अस्तित्व से अलग समझते हैं, तभी यह अधूरापन दिखाई पड़ता है । किंतु आपका और मेरा जीवन अलग-अलग अस्तित्व नहीं रखता । यह संयुक्त है । सब जीवन उसी में समाहित हैं । व्यक्ति को जब यह दृष्टि मिलती है, तभी उसे पूर्णता की अनुभूति होती है ।

इन अर्थों में जीवन की कोई परिभाषा नहीं हो सकती । क्योंकि अगर इसे परिभाषा में बांधते हैं, तो इसके रहस्य को, इसके विस्तार को सीमा में बांध रहें हैं । जो सब कुछ है, उसकी परिभाषा कैसे हो सकती है ? परिभाषा तो उन चीजों की ही की जा सकती है, जो इस जीवन में प्रतिबिंबित होती है। उस जीवन की नहीं जिसमें वह सब प्रतिबिंबित होता है । क्योंकि हम उसको नाम दे सकते हैं, जो हम नहीं हैं, पर जो हम हैं, उसे नाम या परिभाषा कैसे दें ?

जीवन सदा से है और सदा रहेगा । लेकिन इसके रूप बदलते रहेंगे । किंतु जीवन, "जीवन-नहीं" कभी नहीं होगा ।


यारो ! मैं तो बहता हूँ, निरुद्देश्य ही
चारों ओर इन उद्देश्य की आंधियों में
जाने मेरा क्या वजूद हो इन आंधियों में
यारो ! मैं तो बहता हूँ अंतत: यहीं और अभी
यही जीवन है कि रुकता नहीं सफर इसका ।

टिप्पणियाँ

  1. भारती जी,
    प्रणाम,
    बहुत ही सुन्दर रचना....
    'वस्तुत: आपका होना ही मेरा होना है । हम संपूर्णता की सत्ता के अंश मात्र हैं । आपके न होने से मुझ में कुछ रिक्त हो जाएगा, इस रिक्तता को कोई नहीं भर सकता'
    आपके लेख ने जीवन के गूढ़ रहस्य को उजागर करने कि कोशिश कि है...यह सत्य है जब तक हम 'अहम्' की सोच से जुड़े हैं 'सम्पूर्णता' से पृथक ही रहेंगे और 'रिक्तता' से ग्रस्त...
    इस तथ्य को जो भी समझ गया...न तो उसे मृत्यु का भय होगा न ही जीवन से आसक्ति ....
    एक बार फिर हार्दिक धन्यवाद...
    जान कर कौतुहल हुआ कि आपने मेरा गायन भी सुन लिया है...बस स्वयं को थोड़ा सा इस भागा-दौडी से दूर ले जाने का प्रयास मात्र है...और कुछ नहीं....
    आशा है आप झेल पाए होंगे, कर्ण-कटु तो नहीं लगा ?

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  2. भारती जी,

    आपका आना सुखद लगा ...और आपका ब्लॉग भी राहत दे गया ....अदा जी का शुक्रिया जिन्होंने इतना मान दिया मुझे ...वे तो स्वयं हुनरमंद हैं लाजवाब गातीं और लिखतीं हैं ...

    माना कि जीवन को देखने की कितनी ही दृष्टियाँ हैं पर मन शायद उस दृष्टि से देख ही नहीं पाता .....!!

    जवाब देंहटाएं

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