देहरी पर
जीवन यह सारा
देहरी पर ही बीत गया
बाहर की बहुत पूजा प्रार्थना की
अंदर के देवता से पहचान न हुई
ऐसी प्रणति हमारी
बाहर देवता को पुष्प चढ़ाए
अंदर के देवता सम्मुख न झुके
मैं के मद में जीवन देहरी पर ही ठहरा रहा
वहां भीतर देवता स्थिर सनातन
बिन नैवद्य के सदा पूरा रहा
मैं इधर देहरी पर आधा अधूरा
रिक्त होता रहा, जीवन कणों से
देहरी पर ही बीत गया
बाहर की बहुत पूजा प्रार्थना की
अंदर के देवता से पहचान न हुई
ऐसी प्रणति हमारी
बाहर देवता को पुष्प चढ़ाए
अंदर के देवता सम्मुख न झुके
मैं के मद में जीवन देहरी पर ही ठहरा रहा
वहां भीतर देवता स्थिर सनातन
बिन नैवद्य के सदा पूरा रहा
मैं इधर देहरी पर आधा अधूरा
रिक्त होता रहा, जीवन कणों से
???????????
जवाब देंहटाएंkuchhh samjhnaa nhi bhaarti ji
jaane kyaa kahnaa chaahte hain aap,,,,???
मित्र ! इस कविता के माध्यम से मैंने यह बताने की कोशिश की है कि अभी तक मैं सिर्फ बाहर के मंदिर और देवता की पूजा-अर्चना करता रहा हूँ और उसे नैवेद्य चढ़ाता रहा हूँ, जबकि मेरे अंदर का देवता अभी भी मुझे आवाज दे रहा है और मैं उसे सुन कर भी अनसुना कर रहा हूँ ... यह मैं का मद है और इसी प्रकार यह जीवन मेरे अंतर के मन-मंदिर की देहरी पर ही बीता जा रहा है ।
जवाब देंहटाएंaapko pataa hai..
जवाब देंहटाएंaap kyaa kah rahe hain........?
हाँ !
जवाब देंहटाएंkyaa....?
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