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काम

तीसरा पुरुषार्थ काम है।इसका शाब्दिक अर्थ है-'इच्छा'। पुरुषार्थ के रूप में काम से अभिप्राय: मनुष्य की उन सभी शारीरिक,मानसिक,संवेगात्मक तथा कलात्मक इच्छाओं की पूर्ति से है जो उसके संपूर्ण विकास और जीवन के परम लक्ष्य(मोक्ष)को प्राप्त करने में सहायक हैं। इच्छा सभी कार्यों की प्रेरक शक्ति होती है। इस प्रकार हर कार्य के पीछे काम का होना एक अनिवार्य शर्त है। इस काम को भारतीय मनीषा ने तीन श्रेणियों में रखा है-सात्विक,राजसिक और तामसिक। सात्विक काम फल की प्रत्याशा के बिना स्वधर्मानुसार(विवेकानुसार)संपन्न किया जाता है। इस तरह का काम धर्मसम्मत होता है। इसीलिए श्री कृष्ण गीता के सातवें अध्याय के 11वें श्लोक में कहते हैं- बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्। धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोअस्मि भरतर्षभ॥ अर्थात मैं बलवानों का कामना और आसक्ति से रहित बल(अर्थात् सामर्थ्य) हूँ तथा सभी प्राणियों में धर्म के अनुकूल काम हूँ।  राजसिक काम विषय,वासना और इंद्रिय संयोग से पैदा होने वाला अहंकारयुक्त और फल की इच्छा से किया जाने वाला काम है। इस प्रकार का काम भोगते समय तो सुखकारी प्रतीत होता है,किंतु पर

अर्थ

हिंदू जीवन दर्शन में 'अर्थ' को दूसरा पुरुषार्थ कहा गया है। अर्थ का शाब्दिक अर्थ 'वस्तु' या 'पदार्थ' है। इसमें वे सभी भौतिक वस्तुएं  आती हैं जिन्हें  जीवन यापन के लिए मनुष्य अपने अधिकार-क्षेत्र में रखना चाहता है।अर्थ से ही मनुष्य अपने उदर की पूर्ति करता है।कर्त्तव्य-निर्वहण में अर्थ की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। अर्थ में केवल धन या मुद्रा ही नहीं बल्कि वे सभी चीजें शामिल हैं जिनसे भौतिक सुखों की प्राप्ति होती है। भारत में कभी भी अर्थ को उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देखा गया। बल्कि इसे धर्म का साधन कहा गया है। संस्कृत में एक श्लोक है-'धनाद् धर्म' अर्थात् धन से धर्म की सिद्धि होती है। भारतीय धर्मशास्त्रों में धर्म-संबंधी ही चर्चा नहीं है,बल्कि उनमें अर्थनीति,राजनीति,दंडनीति आदि विषयों पर भी चर्चा हुई है। समाज व्यवस्था में अर्थ का नियोजन बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।कौटिल्य ने अपने 'अर्थशास्त्र' में  बहुत से विषयों जैसे  राजकुमारों की शिक्षा-दीक्षा,मंत्री-मंडल,जासूस,राजदूत,निवास,शासन-व्यवस्था,दुष्टों की रोकथाम,कानून,वस्तुओं में मिलावट,मूल्य-नि