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अक्तूबर, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

आदतवश

बात तेरह साल पहले की है । मेरे पड़ौस में एक परिवार रहता था । उनके दो बेटे थे । माँ अक्सर अपने बेटों को बात - बात पर डाँटती रहती थी । डाँटते समय उनके मुख से हमेशा हरामजादा शब्द निकलता था । मैं जब भी इस शब्द को सुनता तो मुझे बहुत अजीब - सा लगता था । मैं सोचता कि इस शब्द का प्रयोग सचेतन हो रहा है या आदतवश ? पड़ौस से इस शब्द का प्रयोग रोज ही सुनने को मिल जाता था । एक दिन मैंने उनके छोटे बेटे से पूछ ही लिया कि क्या तुम्हें हरामजादे शब्द का मतलब मालूम है । जो आठवीं कक्षा का विद्यार्थी था । उसने अनभिज्ञता व्यक्त की । मैंने उसे कहा , ठीक है ! इस बार आंटी जब आप को यह गाली दे तो उनसे पूछना कि हरामजादे का मतलब क्या होता है । छोटे बेटे ने वैसा ही किया । कुछ असर दिखाई पड़ा । पड़ौस से अब हरामजादे की आवाज़े बहुत कम सुनाई देने लगी थी । व्यवहार में हम कितने ही शब्दों का प्रयोग आदतवश करते हैं , बिना यह सोचे विचारे की कि जिन शब्द

प्रेम

तुम्हारी सांसों में वही बसता है जो मेरी सांसों में अनंत विस्तार में टूटा यह जीवन प्रेम की आंखों से बंधा यह जीवन द्वैत में नहीं वह जीवन आधार अद्वैत में है वह आकार निराकार तुम मुझ से पृथक नहीं इस अनुभूति में है प्रेम

उस दिन जिंदगी हार गई

अभी तो मुश्किल से सत्रह बरस भी पूरे नहीं किए थे और जिंदगी को यूं खत्म कर लिया क्यों ... क्यों... क्यों ? बार-बार अब भी पूछता रहता हूँ बीस साल बीतने पर भी नहीं भूला हूँ उस ह्रदय विदारक घटना को जब तुमने उस सत्रह बरस की कोमल काया को समाप्त कर लिया शायद वो तुम्हारा निर्णय न रहा हो तुम्हें उकसाया गया होगा तुम्हें फुसलाया गया होगा तुम्हें जीने के मोह से भटकाया गया होगा समझ ही कहां रही होगी जीने का मतलब ही कब जाना था या वो दिन ही ऐसे रहे होंगे जब मां-बाप की बेटे की चाहत ने तुम तीनों बहनों को हिला कर रख दिया होगा अब तक जिन्हें नाज़ों से पाला गया था जिनके लिए तुम सब बेटों के बराबर थी उनके मनों में कहीं गहरे में बेटे की चाहत दबी थी और प्रकृति ने भी अज़ब लीला रची थी सोलह बरस बाद तुम्हारी मां की गोद फिर से हरी हुई थी और कोख़ में बेटा दिया ... तुम तीनों ने बहुत समझाया होगा अपने मां-बाप को कि नहीं चाहिए तुम्हें भाई कि तुम सब हो उनकी पुत्रवत बेटियाँ फिर पुत्र क्यों ? सबसे पहले विरोध के स्वर बड़ी बेटी में उपजे उसने मां को समझाया, नहीं चाहिए उन्हे भाई मां-बाप और बेटियों में इस पर लम्बी बहसें हुई होंगी प

दिवाली के दिन

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दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ यह दीपावली आप सब के जीवन में लाए खुशियाँ अपार धन - सुख समृद्धि बढ़े अपार रहे जीवन आपका जगमगाता हर दम हर पल ................................................................................................. अक्सर दिवाली या तो मंगलवार को आती है या शुक्रवार को । इसी संदर्भ में हमारे लोक-जीवन में मान्यता रही है कि :- मंगल को आए दिवाली तो हँसे किसान रोये व्यापारी  और शुक्र को आए दिवाली तो हँसे व्यापारी और रोये काश्तकारी लेकिन इस बार तो दिवाली न मंगलवार की है, न शुक्रवार की । क्या इस रहस्य को आप खोलेंगे कि आज दिवाली शनिवार को क्यों हैं ?

देहरी पर

जीवन यह सारा देहरी पर ही बीत गया बाहर की बहुत पूजा प्रार्थना की अंदर के देवता से पहचान न हुई ऐसी प्रणति हमारी बाहर देवता को पुष्प चढ़ाए अंदर के देवता सम्मुख न झुके मैं के मद में जीवन देहरी पर ही ठहरा रहा वहां भीतर देवता स्थिर सनातन बिन नैवद्य के सदा पूरा रहा मैं इधर देहरी पर आधा अधूरा रिक्त होता रहा, जीवन कणों से

सत्य

सत्य न नया है न पुराना न अपना है न पराया न दिखावा है न बहाना न लुभावना है न डरावना न प्रचारक है न भ्रामक वह तो अनुभव की अग्नि में जल कर तप्त हुआ निखरा हुआ कुंदन है जो बहुत से सत्यों में अकेला अलग सा पहचाना गया

अश्रु

वह ह्रदय की मृदु भूमि में दफ़न करती रही कोमल बीज भावनाओं को और मृदु हिय भूमि मरु बनती रही एक रोज प्रेम की वर्षा हुई ह्रदय की मरु भूमि फिर से मृदु हुई समझ की हवाओं से विश्वास की उष्मा से दमित भाव अंकुरित हो उठे और अश्रु बन आँख से झरने लगे आंखे जो पत्थरा गई थी दमन से, प्रताड़ना से और द्वंद्व से धुल गई एक ही फुहार में और देख पा रही हैं जीवन को आज नए ढ़ंग से ...

अंतस का समाधान

कल की पोस्ट में मैंने समस्या और समाधान के बारे में बात करते हुए लिखा था कि मनुज की कोई भी समस्या स्वयं उसके जीवन से बड़ी नहीं हो सकती । इस संदर्भ में चंद्र मोहन गुप्त जी ने पूछा है कि " पर हमारी समस्या यह है कि यदि इन्सान , जैसा कि प्रायः होता है , जान - बुझ कर पैसा कमाने के लालच में समस्याएं खड़ी करता है . इसका क्या समाधान है ? क्या पैसा देकर ही काम कराया जाये ? यदि शिकायत करते हैं तो उनका मिला - जुला ग्रुप भविष्य में तरह - तरह से परेशान करता है , और परिणाम स्वरुप न केवल ज्यादा आर्थिक हानि उठानी पड़ती है , बल्कि कानूनी पेचीदगियों में भी उलझा दिए जाते हैं ....... मतलब कि " आ बैल मुझे मार " जैसी हालत कर बैठते है ............. इस पर थोडा प्रकाश डालें ... " किसी समस्या को देखने के दो दृष्टिकोण हैं : एक दृष्टिकोण व्यवहारिक है , जिसे सांसारिक दृष्टिकोण कहा गया है और दूसरा उपाय अंदर का है , जिसे आध्यात्मिक उपाय कहा गया है । सांसारि

समस्या और समाधान

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समस्याएँ हरेक के जीवन में आती हैं । समस्याएँ हैं तो उनके कुछ कारण भी होते हैं । और यदि कारण हैं , तो उनको दूर करने का उपाय भी है । समस्याओं के समाधान के लिए जरुरी है कि समस्या को ठीक से समझें । समस्या को समझने के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएँ । तथ्यों की पूरी जानकारी लीजिए । एक बार आप समस्या के मूल कारणों को जान लेते हैं , तो उनके निदान के उपाय भी दिखाई देने लगते हैं । समस्या समाधान में व्यक्ति की मौलिक विशेषताएँ जैसे उसका चीजों को देखने का दृष्टिकोण , धैर्य शक्ति , विवेक - बोध और चिंतन की गहराई तथा चीज़ों का विश्लेषण और संश्लेषण करने का ढ़ंग उसे अन्य लोगों से अलग करता है । एक ही समस्या को भिन्न-भिन्न लोग भिन्न-भिन्न ढ़ंग से लेते हैं । जीवन में आने वाली समस्याओं से घबराना नहीं चाहिए । बल्कि उनका विश्लेषण , संश्लेषण कर उनके कारणों को जानना चाहिए और कारणों को जान कर उन कारणों को हटाने का उपाय करना चाहिए । इसके लिए अंतर्विवेक से काम लीजिए ।

दुख

मिट्टी का घड़ा आग में पकाया न गया हो तो क्या पानी उसमें ठहर पाएगा जीवन का घड़ा दुख की अग्नि में पकाया न गया हो तो क्या वह आनंद का पात्र बन पाएगा

ज्ञान

ज्ञान जब आदत बन जाता है, तो व्यर्थ हो जाता है । ज्ञान आदत में नहीं है, बल्कि सजगता का फल है । ज्ञान जब तृप्ति देता है, तो पूर्ण होता है । पूर्ण ज्ञान अपूर्णता के द्वार न खोले तो वह बंधन है । ज्ञान इंद्रिय-अनुभव है, पर हर ज्ञान अनुभव नहीं है । सत्य का अनुभव पहले होता है, तब वह ज्ञान बनता है । एक ही अनुभव बार-बार नहीं होता, हर अनुभव अद्वितीय है । हर अनुभव का ज्ञान अनूठा है । एक ही अनुभव की बार-बार कल्पना करना अज्ञानता है । क्योंकि कोई भी अनुभव पुनरावृत्त नहीं होता । जो पुनरावृत्त हो वह ज्ञान नहीं । ज्ञान हर पल नया होता है । आदत अज्ञानता है क्योंकि वह नये के लिए बंधन है ।

सांस साज़ और साथ

सांस आती जाती है एक लय में रास आती जाती है जिंदगी एक वय में खास बात होती है जिंदगी एक साथ में साथ सांसों सा हो तो जिंदगी एक साद है साथों में ढ़ूँढ़ते हैं हम जिंदगी का राग बातों में खोजते हैं हम जिंदगी का राज साथ मिल जाए गर उस माशूके मजाजी का साज़ जिसका मेरे नगमें पर करे आशिकी हकीकत

क्षण-क्षण जीना

रोज़ रात मैं मर जाता हूँ आज के अच्छे-बुरे विशेषणों से ताकि रोज़ सबेरे मैं जिंदा रहूँ आज के क्षण-क्षण में

ऊबा हुआ आदमी

आदमी अपनी जिंदगी से इतना ऊब गया है कि दूसरों की जिंदगी में तांक-झांक करने के लिए बनाता है खिड़कियाँ जैसे यही एकमात्र सुख बचा हो उसकी जिंदगी मे

विश्वासघात

घात कोई भी हो , पीड़ा तो देता ही है । पर सबसे बड़ा घात है विश्वास में घात । विश्वासघात की पीड़ा को वही जान सकता है , जिसने इसे भोगा हो । विश्वास सब संबंधों की नींव है । जितना बड़ा संबंध होता है वहां उतना ही ज्यादा विश्वास होता है । कहा जाता है जितना ज्यादा विश्वास होता है ; उतना ही ज्यादा उन संबंधों में प्रेम होता है । और जब प्रेम किसी से होता है तो विश्वास स्वमेव आ जाता है । विश्वास प्रेम की छाया है । जहां प्रेम नहीं वहां विश्वास भी नहीं होता । आधुनिक खोजें कहती हैं कि विश्वास कम या ज्यादा नहीं होता । वह या तो होता है या नहीं होता । और विश्वास की धारणा बच्चे में बचपन से उसके परिवार से ही सबसे ज्यादा बनती है ; यदि बच्चा अपने परिवार के लोगों से विश्वास नहीं अर्जित कर पाता ; तो वह जीवन में कभी किसी पर विश्वास नहीं कर पाएगा । संसार विविधताओं और अनेक ध्रुवों से युक्त है । इसमें छल , कपट , धोखे और अनेक आघात - प्रतिघात हैं । आद

मुखौटों का जीवन

अंधेरा प्रिय होता जा रहा है आज और डर लगने लगा है उजाले से आज क्योंकि सबके चेहरे हो गए हैं दोहरे आज और डरे डरे से हैं सब उजाले से आज कि कहीं बेनकाब न हो जाएँ उनके झूठे, नकली और सभ्य चेहरे आज मानवता का चेहरा हो गया है अमानुष आज और डर लगने लगा है मनुज को उजाले से आज क्योंकि दोहरे चेहरे बने हैं बीभत्स आज और सच्चे चेहरे भी डर गए हैं इन बीभत्स चेहरों से आज कि कहीं बदनाम न हो जाएँ वे इस भद्र और सभ्य दुनिया में आज इस अमर्यादित होती जा रही दुनिया में आज अंधेरे ने गढ़ लिया है उजाले का रूप आज क्योंकि इस बनावटी दुनिया में आज लड़की लड़का हो जाती है तो उसका सम्मान है और खोटा भी खरे के नाम से बिकता है आज और मलिन हो गए चेहरों ने आज बना लिया है अपना एक समाज क्योंकि हर मुखौटा चिंतित है असल से इसलिए बना ली है मुखौटा यूनियन सबने आज ताकि मुखौटे कायम रह सकें और सच का भ्रम बना रहे कि सब कुछ ठीक-ठाक है ।