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आदतवश

बात तेरह साल पहले की है । मेरे पड़ौस में एक परिवार रहता था । उनके दो बेटे थे । माँ अक्सर अपने बेटों को बात - बात पर डाँटती रहती थी । डाँटते समय उनके मुख से हमेशा हरामजादा शब्द निकलता था । मैं जब भी इस शब्द को सुनता तो मुझे बहुत अजीब - सा लगता था । मैं सोचता कि इस शब्द का प्रयोग सचेतन हो रहा है या आदतवश ? पड़ौस से इस शब्द का प्रयोग रोज ही सुनने को मिल जाता था । एक दिन मैंने उनके छोटे बेटे से पूछ ही लिया कि क्या तुम्हें हरामजादे शब्द का मतलब मालूम है । जो आठवीं कक्षा का विद्यार्थी था । उसने अनभिज्ञता व्यक्त की । मैंने उसे कहा , ठीक है ! इस बार आंटी जब आप को यह गाली दे तो उनसे पूछना कि हरामजादे का मतलब क्या होता है । छोटे बेटे ने वैसा ही किया । कुछ असर दिखाई पड़ा । पड़ौस से अब हरामजादे की आवाज़े बहुत कम सुनाई देने लगी थी । व्यवहार में हम कितने ही शब्दों का प्रयोग आदतवश करते हैं , बिना यह सोचे विचारे की कि जिन शब्द

प्रेम

तुम्हारी सांसों में वही बसता है जो मेरी सांसों में अनंत विस्तार में टूटा यह जीवन प्रेम की आंखों से बंधा यह जीवन द्वैत में नहीं वह जीवन आधार अद्वैत में है वह आकार निराकार तुम मुझ से पृथक नहीं इस अनुभूति में है प्रेम

उस दिन जिंदगी हार गई

अभी तो मुश्किल से सत्रह बरस भी पूरे नहीं किए थे और जिंदगी को यूं खत्म कर लिया क्यों ... क्यों... क्यों ? बार-बार अब भी पूछता रहता हूँ बीस साल बीतने पर भी नहीं भूला हूँ उस ह्रदय विदारक घटना को जब तुमने उस सत्रह बरस की कोमल काया को समाप्त कर लिया शायद वो तुम्हारा निर्णय न रहा हो तुम्हें उकसाया गया होगा तुम्हें फुसलाया गया होगा तुम्हें जीने के मोह से भटकाया गया होगा समझ ही कहां रही होगी जीने का मतलब ही कब जाना था या वो दिन ही ऐसे रहे होंगे जब मां-बाप की बेटे की चाहत ने तुम तीनों बहनों को हिला कर रख दिया होगा अब तक जिन्हें नाज़ों से पाला गया था जिनके लिए तुम सब बेटों के बराबर थी उनके मनों में कहीं गहरे में बेटे की चाहत दबी थी और प्रकृति ने भी अज़ब लीला रची थी सोलह बरस बाद तुम्हारी मां की गोद फिर से हरी हुई थी और कोख़ में बेटा दिया ... तुम तीनों ने बहुत समझाया होगा अपने मां-बाप को कि नहीं चाहिए तुम्हें भाई कि तुम सब हो उनकी पुत्रवत बेटियाँ फिर पुत्र क्यों ? सबसे पहले विरोध के स्वर बड़ी बेटी में उपजे उसने मां को समझाया, नहीं चाहिए उन्हे भाई मां-बाप और बेटियों में इस पर लम्बी बहसें हुई होंगी प

दिवाली के दिन

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दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ यह दीपावली आप सब के जीवन में लाए खुशियाँ अपार धन - सुख समृद्धि बढ़े अपार रहे जीवन आपका जगमगाता हर दम हर पल ................................................................................................. अक्सर दिवाली या तो मंगलवार को आती है या शुक्रवार को । इसी संदर्भ में हमारे लोक-जीवन में मान्यता रही है कि :- मंगल को आए दिवाली तो हँसे किसान रोये व्यापारी  और शुक्र को आए दिवाली तो हँसे व्यापारी और रोये काश्तकारी लेकिन इस बार तो दिवाली न मंगलवार की है, न शुक्रवार की । क्या इस रहस्य को आप खोलेंगे कि आज दिवाली शनिवार को क्यों हैं ?

देहरी पर

जीवन यह सारा देहरी पर ही बीत गया बाहर की बहुत पूजा प्रार्थना की अंदर के देवता से पहचान न हुई ऐसी प्रणति हमारी बाहर देवता को पुष्प चढ़ाए अंदर के देवता सम्मुख न झुके मैं के मद में जीवन देहरी पर ही ठहरा रहा वहां भीतर देवता स्थिर सनातन बिन नैवद्य के सदा पूरा रहा मैं इधर देहरी पर आधा अधूरा रिक्त होता रहा, जीवन कणों से

सत्य

सत्य न नया है न पुराना न अपना है न पराया न दिखावा है न बहाना न लुभावना है न डरावना न प्रचारक है न भ्रामक वह तो अनुभव की अग्नि में जल कर तप्त हुआ निखरा हुआ कुंदन है जो बहुत से सत्यों में अकेला अलग सा पहचाना गया

अश्रु

वह ह्रदय की मृदु भूमि में दफ़न करती रही कोमल बीज भावनाओं को और मृदु हिय भूमि मरु बनती रही एक रोज प्रेम की वर्षा हुई ह्रदय की मरु भूमि फिर से मृदु हुई समझ की हवाओं से विश्वास की उष्मा से दमित भाव अंकुरित हो उठे और अश्रु बन आँख से झरने लगे आंखे जो पत्थरा गई थी दमन से, प्रताड़ना से और द्वंद्व से धुल गई एक ही फुहार में और देख पा रही हैं जीवन को आज नए ढ़ंग से ...

अंतस का समाधान

कल की पोस्ट में मैंने समस्या और समाधान के बारे में बात करते हुए लिखा था कि मनुज की कोई भी समस्या स्वयं उसके जीवन से बड़ी नहीं हो सकती । इस संदर्भ में चंद्र मोहन गुप्त जी ने पूछा है कि " पर हमारी समस्या यह है कि यदि इन्सान , जैसा कि प्रायः होता है , जान - बुझ कर पैसा कमाने के लालच में समस्याएं खड़ी करता है . इसका क्या समाधान है ? क्या पैसा देकर ही काम कराया जाये ? यदि शिकायत करते हैं तो उनका मिला - जुला ग्रुप भविष्य में तरह - तरह से परेशान करता है , और परिणाम स्वरुप न केवल ज्यादा आर्थिक हानि उठानी पड़ती है , बल्कि कानूनी पेचीदगियों में भी उलझा दिए जाते हैं ....... मतलब कि " आ बैल मुझे मार " जैसी हालत कर बैठते है ............. इस पर थोडा प्रकाश डालें ... " किसी समस्या को देखने के दो दृष्टिकोण हैं : एक दृष्टिकोण व्यवहारिक है , जिसे सांसारिक दृष्टिकोण कहा गया है और दूसरा उपाय अंदर का है , जिसे आध्यात्मिक उपाय कहा गया है । सांसारि

समस्या और समाधान

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समस्याएँ हरेक के जीवन में आती हैं । समस्याएँ हैं तो उनके कुछ कारण भी होते हैं । और यदि कारण हैं , तो उनको दूर करने का उपाय भी है । समस्याओं के समाधान के लिए जरुरी है कि समस्या को ठीक से समझें । समस्या को समझने के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएँ । तथ्यों की पूरी जानकारी लीजिए । एक बार आप समस्या के मूल कारणों को जान लेते हैं , तो उनके निदान के उपाय भी दिखाई देने लगते हैं । समस्या समाधान में व्यक्ति की मौलिक विशेषताएँ जैसे उसका चीजों को देखने का दृष्टिकोण , धैर्य शक्ति , विवेक - बोध और चिंतन की गहराई तथा चीज़ों का विश्लेषण और संश्लेषण करने का ढ़ंग उसे अन्य लोगों से अलग करता है । एक ही समस्या को भिन्न-भिन्न लोग भिन्न-भिन्न ढ़ंग से लेते हैं । जीवन में आने वाली समस्याओं से घबराना नहीं चाहिए । बल्कि उनका विश्लेषण , संश्लेषण कर उनके कारणों को जानना चाहिए और कारणों को जान कर उन कारणों को हटाने का उपाय करना चाहिए । इसके लिए अंतर्विवेक से काम लीजिए ।

दुख

मिट्टी का घड़ा आग में पकाया न गया हो तो क्या पानी उसमें ठहर पाएगा जीवन का घड़ा दुख की अग्नि में पकाया न गया हो तो क्या वह आनंद का पात्र बन पाएगा

ज्ञान

ज्ञान जब आदत बन जाता है, तो व्यर्थ हो जाता है । ज्ञान आदत में नहीं है, बल्कि सजगता का फल है । ज्ञान जब तृप्ति देता है, तो पूर्ण होता है । पूर्ण ज्ञान अपूर्णता के द्वार न खोले तो वह बंधन है । ज्ञान इंद्रिय-अनुभव है, पर हर ज्ञान अनुभव नहीं है । सत्य का अनुभव पहले होता है, तब वह ज्ञान बनता है । एक ही अनुभव बार-बार नहीं होता, हर अनुभव अद्वितीय है । हर अनुभव का ज्ञान अनूठा है । एक ही अनुभव की बार-बार कल्पना करना अज्ञानता है । क्योंकि कोई भी अनुभव पुनरावृत्त नहीं होता । जो पुनरावृत्त हो वह ज्ञान नहीं । ज्ञान हर पल नया होता है । आदत अज्ञानता है क्योंकि वह नये के लिए बंधन है ।

सांस साज़ और साथ

सांस आती जाती है एक लय में रास आती जाती है जिंदगी एक वय में खास बात होती है जिंदगी एक साथ में साथ सांसों सा हो तो जिंदगी एक साद है साथों में ढ़ूँढ़ते हैं हम जिंदगी का राग बातों में खोजते हैं हम जिंदगी का राज साथ मिल जाए गर उस माशूके मजाजी का साज़ जिसका मेरे नगमें पर करे आशिकी हकीकत

क्षण-क्षण जीना

रोज़ रात मैं मर जाता हूँ आज के अच्छे-बुरे विशेषणों से ताकि रोज़ सबेरे मैं जिंदा रहूँ आज के क्षण-क्षण में

ऊबा हुआ आदमी

आदमी अपनी जिंदगी से इतना ऊब गया है कि दूसरों की जिंदगी में तांक-झांक करने के लिए बनाता है खिड़कियाँ जैसे यही एकमात्र सुख बचा हो उसकी जिंदगी मे

विश्वासघात

घात कोई भी हो , पीड़ा तो देता ही है । पर सबसे बड़ा घात है विश्वास में घात । विश्वासघात की पीड़ा को वही जान सकता है , जिसने इसे भोगा हो । विश्वास सब संबंधों की नींव है । जितना बड़ा संबंध होता है वहां उतना ही ज्यादा विश्वास होता है । कहा जाता है जितना ज्यादा विश्वास होता है ; उतना ही ज्यादा उन संबंधों में प्रेम होता है । और जब प्रेम किसी से होता है तो विश्वास स्वमेव आ जाता है । विश्वास प्रेम की छाया है । जहां प्रेम नहीं वहां विश्वास भी नहीं होता । आधुनिक खोजें कहती हैं कि विश्वास कम या ज्यादा नहीं होता । वह या तो होता है या नहीं होता । और विश्वास की धारणा बच्चे में बचपन से उसके परिवार से ही सबसे ज्यादा बनती है ; यदि बच्चा अपने परिवार के लोगों से विश्वास नहीं अर्जित कर पाता ; तो वह जीवन में कभी किसी पर विश्वास नहीं कर पाएगा । संसार विविधताओं और अनेक ध्रुवों से युक्त है । इसमें छल , कपट , धोखे और अनेक आघात - प्रतिघात हैं । आद

मुखौटों का जीवन

अंधेरा प्रिय होता जा रहा है आज और डर लगने लगा है उजाले से आज क्योंकि सबके चेहरे हो गए हैं दोहरे आज और डरे डरे से हैं सब उजाले से आज कि कहीं बेनकाब न हो जाएँ उनके झूठे, नकली और सभ्य चेहरे आज मानवता का चेहरा हो गया है अमानुष आज और डर लगने लगा है मनुज को उजाले से आज क्योंकि दोहरे चेहरे बने हैं बीभत्स आज और सच्चे चेहरे भी डर गए हैं इन बीभत्स चेहरों से आज कि कहीं बदनाम न हो जाएँ वे इस भद्र और सभ्य दुनिया में आज इस अमर्यादित होती जा रही दुनिया में आज अंधेरे ने गढ़ लिया है उजाले का रूप आज क्योंकि इस बनावटी दुनिया में आज लड़की लड़का हो जाती है तो उसका सम्मान है और खोटा भी खरे के नाम से बिकता है आज और मलिन हो गए चेहरों ने आज बना लिया है अपना एक समाज क्योंकि हर मुखौटा चिंतित है असल से इसलिए बना ली है मुखौटा यूनियन सबने आज ताकि मुखौटे कायम रह सकें और सच का भ्रम बना रहे कि सब कुछ ठीक-ठाक है ।

सौंदर्य

अ ज्ञात के मौन आमंत्रण में सौंदर्य है । बाह्य लिपा-पोती कुरुपता को ढ़ांपने के लिए है । क्या सौंदर्य को भी बाह्य प्रसाधनों और सजने-संवरने की जरूरत होती है ? सौंदर्य शरीर का ही नहीं बल्कि उसके अंतस का भी होता है । कुछ लोग शारीरिक सौंदर्य के अहंकारवश अंतस सौंदर्य को खो देते हैं । सौंदर्य सदैव एक नवीन अहसास है । अनुभव है । प्रकृति में सौंदर्य प्रतिक्षण निखर रहा है । सौंदर्य को देखने के लिए संवेदनशीलता चाहिए । प्रकृति में सौंदर्य भरा पड़ा है । जिन्हें प्रकृति का यह सौंदर्य दिखाई नहीं पड़ता, उन्हें संवेदनशीलता पुन: प्राप्त करनी होगी । सौंदर्य का संबंध मन से है । जहां कहीं सौंदर्य का अभाव आरोपित किया जाता है, वहां कुरुपता दिखाई देती है । सौंदर्य अधिकार-भाव से मुक्त है । सुंदरता कभी अधिकारपूर्वक नहीं कहती - "मैं सुंदर हूँ ।" सौंदर्य आंतरिक भाव है । अंतस सजग है और वह क्षण प्रति क्षण जीना जानता है तो सर्वत्र सौंदर्य है । कृष्ण श्याम वर्ण हैं, फिर भी उनमें अद्भूत सौंदर्य है । वे जो हैं उसे पूर्णता से, सजगता से और सहजता से जीते हैं । अपने अंतस के अतिरिक्त वहां कुछ और होने का प्रयास या

सृजन

कवि की सुंदर कल्पना सृजन है ; क्योंकि उसके पीछे साधना का श्रम है । चित्रकार की कृति में सृजन है ; क्योंकि उसमें रंगने के लिए चित्रकार की पूरी तैयारी है । कृति और कृतिकार का अंतर मिट गया है । विध्वंशकारी गतिविधियों का मात्र एक ही हल है : सृजन । स्वयं को सृजनात्मक होने दो । अस्तित्व तुमसे तुमको मांगता है । यह तुम्हारी इच्छा है चाहो तो स्वयं को जीवित समर्पित करो, अन्यथा मृत्यु के रूप में तो वह तुमको तमसे छीन ही लेगा । अस्तित्व तुमसे सृजन चाहता है । इसलिए वह तुमसे समर्पण चाहता है - जीवित समर्पण । बिना समर्पित हुए अहम नहीं जाता और अहम के रहते हुए सृजन कहां । सृजन निर्भार करता है । सृजन असीम से जोड़ता है । सृजन सक्रिय और गतिमय है । सृजन तुमको तुमसे मिलाने में सहयोगी है । कार्य में तल्लीनता की चरम सीमा सृजन है । ध्यान की पूर्ण अवस्था में सृजनात्मकता का जन्म होता है । जो स्वयं को बचाये रखने का प्रयास करते हैं, वे अंतत: स्वयं को खो देते हैं और जो स्वयं को खोने के लिए, छोड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं, वे परमात्मा का सान्निध्य प्राप्त करते हैं ।

मानवीय संवेदना

आज होम्ज़ का एक वचन याद आ रहा है : - संसार के महान व्यक्ति अक्सर बड़े विद्वान नहीं रहते, और न ही बड़े विद्वान महान व्यक्ति हुए हैं । यह वचन जब पहली बार पढ़ा था, तभी मन-मस्तिष्क और अंतस ने इसे स्वीकार कर लिया था और जीवन-अनुभव में भी यह पाता हूँ कि जो विद्वान होने का दंभ भरते हैं; उनके पास पुस्तकों और शास्त्रों की स्मृतियाँ तो बहुत होती हैं, पर उनके पास वह संवेदना नहीं होती जो जीवंत सत्य को देख सके और उसके अनुरुप व्यवहार कर सके और न ही मुझे ऐसे विद्वानों में वो सनकीपन और जुनून ही दिखाई पड़ता जो महान लोगों में होता है । अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने एक बार मार्ग से गुजरते हुए एक बीमार सूअर को कीचड़ में फँसे हुए देखा और अपने अंतस की आवाज को सुन उसे बचाने कीचड़ में कूद उस सूअर को बाहर निकाल लाए । लोगों ने हैरानी से इसका सबब पूछा तो वे बोले - मैंने सूअर को बचा कर अपने ह्रदय की वेदना का बोझ दूर किया है । दुखियों को देखकर हमारे ह्रदय में जो टीस उठती है, उसी को मिटाने के लिए हम दुखियों का दु:ख दूर करते हैं । काश ! कुछ थोड़े से लोग भी अपने अंतस की आवाज़ के अनुसार जिएं और उसके साथ कभी समझौता न

धर्म

अपने अंतस को जान लेना और उसके अनुसार जीना धर्म है । धर्म आंतरिक अनुशासन-बद्धता का दूसरा नाम है । आंतरिक अनुशासन-बद्धता आ जाने से बाह्य अनुशासन स्वत: ही आ जाता है । धर्म ऋत है; जिसके कारण प्रकृति में संतुलन और लयबद्धता है । धर्म विश्वास नहीं है । धर्म एक साक्षात अनुभव है । जो हर ह्रदय में धारणीय है । जिससे ह्रदय के तार झंकृत हो उठते हैं और आत्मा नृत्य करने लगती है । यह नृत्य लय और ताल से आबद्ध है । धर्म अनेक नहीं हैं । धर्म अद्वैत की स्थिति है । जहां द्वंद्व नहीं, द्वैत नहीं, वहां धर्म है । प्रकृति भी धर्ममय है । प्रकृति का अपना आंतरिक अनुशासन है, जिसके कारण उसमें अद्भूत सौंदर्य है । वस्तुत: जहां अन्तस का प्रकाश है - वहां सौंदर्य है । धर्म का कोई संप्रदाय नहीं है । जहां संप्रदाय है, वहां धर्म नहीं है । धर्म एकांतिक अनुभव है ; जिसमें संपूर्ण ब्रह्मांड को जोड़ने की शक्ति है । धर्म मंदिर, मस्ज़िद, गुरुद्वारा में नहीं, वह तो सर्वत्र है । अपने ह्रदय को रिक्त करो और वह धर्म-कणों से आपूरित हो जाएगा ।

नीत्शे के बहाने

प्रसिद्ध दार्शनिक नीत्शे ने कहा है : विशाल जन-समूह निरे साधन हैं अथवा रुकावटें या नकलें हैं महान कार्य ऐसी सामूहिक हलचल पर निर्भर नहीं हुआ करते, क्योंकि सर्वोत्तम और सर्वश्रेष्ठ का भी जन-समूह पर कोई प्रभाव नहीं ! कितना सही कहा है । सर्वोत्तम और सर्वश्रेष्ठ हमेशा भीड़ से अलग अकेला खड़ा होता है और हर सफल इंसान सफल इस लिए होता है क्योंकि वह भीड़ से अलग कुछ विशेष रखता है । दूसरी ओर यह भी सच है कि सर्वोत्तम और सर्वश्रेष्ठ का भी जन-समूह पर कोई प्रभाव नहीं ! कितने लोग सर्वोत्तम और सर्वश्रेष्ठ रचनाएँ, फिर चाहे वे कलात्मक फिल्में हों या उत्कृष्ट साहित्य पसंद करते हैं । निश्चित ही सर्वोत्तम सर्वोत्तम को ही प्रभावित कर सकता है ।

दुश्मनी

कांटों से दुश्मनी करके कब किसने फूलों को पाया है

मौलिकता

समाधि की अवस्था में मानवीय चेतना से उपजा हर विचार मौलिक है । प्रेम - युक्त आलिंगन की मौन स्थिति मौलिक है। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं में मौलिक है । प्रत्येक क्षण मौलिक है । इच्छा रहित शांत चित्त मौलिक है । विचार रहित वर्तमान मौलिक है । फूल का खिलना मौलिक है । फूल का मुरझा कर गिरना मौलिक है । किसी पत्थर का तुम्हारे द्वारा उठाया जाना मौलिक घटना है । पत्थर स्वयं भी मौलिक है । अनुकरण रहित आचरण मौलिक है । ह्रदय का रुदन मौलिक है । किसी की बात को ठीक - ठीक उसी अर्थ में समझ लेना , जान लेना जैसा कि वक्ता के मन में है , एक मौलिक घटना है । स्वयं की अनुभूति मौलिक है । स्वयं की आह ! मौलिक है । आश्चर्य मौलिक है । जीवन मौलिक है ; मृत्यु मौलिक है । स्वयं का आविष्कार , खोज मौलिक है । स्वयं की भटकन जानना मौलिक है । पत्तों की खनखनाहट , वृक्षों की सांय - सांय , पक्षियों की चहचाहट , तारों की टिमटिमाहट , शशि का सौंदर्य , कामिनी की चंचलता मौलिक है । सद् - वचनों की अभिव्यक्ति जो

उनकी आँख -मिचौनी

क्यों तुम करती हो मेरे सम्मुख अभिनय कभी झूठ को सच साबित करने का तो कभी सच को झूठ साबित करने का यदि नहीं बचा है हमारे बीच कोई रिश्ता तो यह आँख-मिचौनी क्यों मुझसे भी क्या डरना जिसने कभी तुम्हारा बुरा चाहा नहीं यह मैं और मेरी रुह दोनों जानती हैं फिर क्यों नहीं कहती अपनी बात जैसी है तुम्हारे हिय में वैसी बात प्रिय-प्रियतम में यह अभिनय कैसा जब तक मुझे यूँ उलझाती रहोगी सच से सकुचाती रहोगी दुनिया से डरती रहोगी मुझे कभी न पा सकोगी मुझे पाना है तो दुई के पर्दे को हटा और तू जैसी है वैसी ही मेरे समक्ष आ जा !!! समझता हूँ नारी लज्ज़ा और अभिनय का फर्क अच्छी तरह से मैं मुझे मत उलझाओ इन झूठे वास्तों में जो कहना है स्पष्ट कह दो और बात खत्म करो

गुनाह-ए-मोहब्बत

मुझे तुमसे कितना प्रेम है इसका यकीं तुम्हें कैसे दिलाऊँ बस मैं तो इतना ही जानता हूँ कि इस दिल में बसा चेहरा तुम्हारा मुझे पुकार-पुकार कर बार-बार तुम्हारी याद दिला देता है - भुला दोगी मुझको यूँ तुम ये सोचा भी नहीं था कभी बदल देगा मेरा प्यार तुम्हें - मुझको तो यह पूरा यकीं था पर नहीं प्यार तुझको मुझे जब कहा तूने यह - तो तुम्हारी आंखों में कोई भाव न था जब तुम्हें मुझसे कोई प्यार नहीं है फिर भी मैं तुम्हें भूला नहीं पा रहा हूँ तो मैं जो तुम्हें इतना प्यार करता हूँ मुझे कैसे भूला सकती हो तुम ? मुझे भूलना इतना आसां तो नहीं क्योंकि मुझे मालूम है कि मैंने तुम्हें अपनी रुह से ज्यादा चाहा है और वह जानती है कि मेरी चाहत में कोई गुनाह नहीं है फिर यह कैसे हो सकता है कि तुम मुझे भूल जाओ और भूल जाओ वे क्षण जो शाश्वत थे ...शाश्वत हैं ... जब हमारे बीच कुछ घट रहा था जिसके गवाह हैं हम दोनों !

मनुष्य का जीवन

कहते हैं भगवान ने जब सृष्टि की रचना की और पृथ्वी पर जीवन की परिकल्पना की, तो सभी प्राणियों को ४० वर्ष की उम्र दी । मनुष्य को छोड़कर अन्य सभी प्राणी भगवान को अनुगृहीत भाव से धन्यवाद देकर पृथ्वी पर उतरने लगे । लेकिन असंतुष्ट मनुष्य की जब पृथ्वी पर जाने की बारी आई, तो उसने भगवान से प्रार्थना की कि २० साल की उम्र में तो शादी करुंगा और ४० साल की उम्र तक तो बच्चे भी बड़े नहीं होंगे और मेरे मरने की घड़ी आ जाएगी । इसलिए प्रभु से अनुरोध है कि मेरी उम्र बढ़ा दी जाए । भगवान ने मनुष्य के अनुरोध को स्वीकार करते हुए कहा कि, तुम अभी रुको, जिसे उम्र कम चाहिए होगी, उसकी उम्र मैं तुम्हें दे दूँगा । जब गधे की बारी आई, तो उसने भगवान से कहा कि मैं पृथ्वी पर ४० साल तक क्या करुँगा । उन्होंने कहा, बोझ उठाना और मनुष्य की सेवा करना । गधे ने प्रार्थना की कि मेरी उम्र २० साल कम कर दें, इतनी लंबी आयु का बोझ मैं कैसे उठाऊँगा । भगवान ने उसकी उम्र २० वर्ष कम करके शेष २० वर्ष की आयु मनुष्य को दे दी । मनुष्य ६० वर्ष की आयु से भी संतुष्ट न हुआ । आगे बारी आई कुत्ते की । उसने भी पूछा, मैं पृथ्वी पर ४० वर्ष तक क्या क

पहचान

सूर्य के प्रकाश के साथ आत्मा का चैतन्य हो तो मन का अंधकार मिटे सहज कर्म घटे परिश्रम से थकान न हो जीवन में ठहराव न हो व्यापार में हानि न हो संसार में शांति हो रात्रि के अंधकार के साथ दिन के परिश्रम से उपजा विश्राम हो तो मन में शांति हो तन में कांति हो धन में वृद्धि हो जन में सुबुद्धि हो प्रकृति ने दिया मनुष्य को वह सब जिस से वह बने महान आंखें दो, कान दो, मुँह एक ताकि - वह अधिक देखे, अधिक सुने और कम बोले लेकिन - कहां हैं वे आँखें - जो पहचान सकें प्रकृति के सच को कहां हैं वे कान - जो सुन सकें प्रकृति के नाद को बस एक मुँह है - जो बकता है और चरता है हरदम हे मानव ! उठ और पहचान अपनी प्रकृति को इससे पहले कि - काल तुझे अपने गाल में ले ले

आसान-कठिन : सीढ़ी दर सीढ़ी

पुस्तक खरीदना आसान है पढ़ना कठिन है पढ़ना आसान है समझना कठिन है समझना आसान है सोचना कठिन है सोचना आसान है चिंतन कठिन है चिंतन आसान है मनन कठिन है मनन आसान है मौन कठिन है मौन साधे सभी सधे !!!

सौंदर्य-परख

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर जी के जीवन की एक घटना । एक रात किसी पर्यटन स्थल पर नौका में सवार थे । किसी मित्र ने सौंदर्यशास्त्र (एस्थेटिक्स) पर एक बहुत बड़ा ग्रंथ उन्हें भेंट किया था । अपने बजरे में बैठकर दीये की रोशनी में उसे पढ़ते रहे । सौंदर्य क्या है ? इसकी परिभाषा क्या है ? यह कितने प्रकार का होता है ? और इसी तरह की विभिन्न चर्चाएँ ग्रंथ में विस्तार के साथ दी गई थी । जितना शास्त्र को पढ़ते गए, उतना ही यह ख़्याल भूलते गए कि सौंदर्य क्या है ? शब्द और शब्द, उलझन और उलझन ... सिद्धांत पर सिद्धांत बढ़ते जाते थे, तब आधी रात ऊबकर ग्रंथ को बंद कर दिया । आँख उठाकर बाहर देखा तो आश्चर्य चकित रह गए । बजरे की खिड़की के बाहर सौंदर्य बिखरा पड़ा था । पूरे चाँद की रात थी । आकाश से चाँदनी बरस रही थी । नदी की लहरें चाँदी हो गई थी । सन्नाटा और मौन दूर तक फैला था । दूर-दूर तक सब नीरव था । सौंदर्य वहां पूरा मौजूद था । तब उन्होंने सिर पीटा और स्वयं से कहा - सौंदर्य द्वार के बाहर मौजूद है और मैं उसे किताब में खोजता हूँ, जहां केवल शब्द ही शब्द हैं और कोरे सिद्धांत हैं । उन्होंने वह किताब बंद कर दी और बाहर फैले स

उसी से गर्म उसी से ठंडा : विरोधाभास

सर्दियों के दिन थे । कड़ाके की ठंड पड़ रही थी । गुरु और शिष्य यात्रा पर थे । सुबह-सुबह उठे तो ठंड से ठिठुरे जा रहे थे । गुरु ने सहसा अपनी दोनों हथेलियों को रगड़ना शुरु किया और उनमें मुंह से फूंक मारना शुरु किया । यह देख कर शिष्य ने गुरु से जानना चाहा- "गुरु जी ! आप हाथों को क्यों रगड़ रहें हैं और उसमें फूंक क्यों रहें हैं ?" गुरु ने कहा कि हाथों को रगड़ने और उसमें गर्म फूंक मारने से शरीर को ठंड नहीं लगती, इससे शरीर में गर्माहट आती है । कुछ देर बाद उन्होंने आग जलाई और उसमें खाने के लिए आलू भूने । गुरु ने आलू आग से निकाले । आलू अभी गर्म थे । आलू छीलना शुरु किया और मुंह से फूंक-फूंक कर उन्हें ठंडा करने लगे । शिष्य ने पूछा गुरु जी आप आलू में फूंक क्यों मार रहें हैं ? गुरु ने कहा फूंक कर आलू को ठंडा कर रहा हूँ । शिष्य ने पूछा, कुछ देर पहले आप फूंक कर अपनी हथेलियों को गर्म कर रहे थे और अब फूंक कर आलुओं को ठंडा कर रहे हो । यह कैसे संभव है कि उसी से गर्म और उसी से ठंडा ? गुरु ने कहा- "ऐसा ही है, जीवन में बहुत सी चीजों का स्वभाव गर्म या ठंडा हो सकता है, लेकिन उनका उपयोग हम कैसे करते

चेहरे पर चेहरे

जब दो व्यक्ति मिलते हैं शारीरिक रूप से दो होते हैं पर मानसिक रूप से छ: होते हैं कैसे- पहले व्यक्ति के तीन मानसिक चेहरे : एक वह जो वह वास्तव में है दूसरा वह जो वह स्वयं को समझता है तीसरा वह जो दूसरा व्यक्ति पहले व्यक्ति के बारे में समझता है इसी प्रकार तीन चेहरे दूसरे व्यक्ति के हो गए न दो के छ:

कोई ख़्याल कैसे आ जाता है ...

क्षण-प्रतिक्षण विचार आते रहते हैं मन में कोई ख़्याल कैसे आ जाता है मन में इन पर किसका बंधन है जितना ज्यादा पकड़ने लगता हूँ इनको उतने ही बढ़ते जाते हैं कोई ख़्याल कैसे आ जाता है मन में इन पर किसका बंधन है ढ़ूँढ़ता हूँ, खोजता हूँ, उत्स इनका पर ये बढ़ते ही जाते हैं कोई ख़्याल कैसे आ जाता है मन में इन पर किसका बंधन है जितना खोजता हूँ, उतने ही और और भांति-भांति के ख़्याल बढ़ते जाते हैं कोई ख़्याल कैसे आ जाता है मन में इन पर किसका बंधन है इनमें से कुछ विचार तो प्रतिक्रिया स्वरूप हैं जो अच्छा नहीं लगता मुझे उसकी एवज में कोई ख़्याल कैसे आ जाता है मन में इन पर किसका बंधन है कुछ विचार जो मुझे अच्छे लगते वे इकट्ठे होते जाते किसी बंद गहरी अंधेरी गुहा में कोई ख़्याल कैसे आ जाता है मन में इन पर किसका बंधन है जो विचार इकट्ठे होते जाते बंद गहरी अंधेरी गुहा में वे मेरा स्वरूप बनते जाते हैं कोई ख़्याल कैसे आ जाता है मन में इन पर किसका बंधन है लेकिन कौन है जो चुनता बिंदु-बिंदु इन विचारों को और अवसर पर उच्छाल देता गहरी अंधेरी गुहा से कोई ख़्याल कैसे आ जाता है मन में इन पर किसका बंधन है और कौन है जिसे अच्छा नही

ह्रदय का सूनापन

हरे भरे पेड़ों के बीच मैं आकर्षित होता हूँ उस पेड़ की ओर जो सूख कर ठूंठ हो गया है तारों भरे आकाश में मैं आकर्षित होता हूँ उस चाँद की ओर जो एकाकी पड़ गया है सुख- दुख से भरे इस संसार में मैं आकर्षित होता हूँ उस इंसान की ओर जो समानुभूति रखता है - ठूंठ हो गए पेड़ से एकाकी पड़े चाँद से और मेरे ह्रदय के सूनेपन से

अहंकार की परिणति

बूंद को समुद्र में अपनी सत्ता का विलय अच्छा न लगा । वह अपनी अहंता और पृथकता बनाए रखना चाहती थी । नदियों ने उसे इस विरक्तता से आगाह भी किया । पर वह मानी नहीं, और अलग ही बनी रही । तेज सूर्य किरणों में वह भाप बन हवा में उड़ गई और बादलो में खोने लगी । बादलों के साथ यह दोस्ती उसे रास नहीं आई । रात हुई और वह पत्तों पर ओस बनकर अलग-थलग पड़ी रही । धूप रोज निकलती, उसे ऊपर उठाती, पर उसे नीचे ही गिरना जो पसंद था । सर्प ने उस ओस को चाटा और विष में बदल दिया । जो न समुद्र बनते और न बादल अंतत: उन्हें विष में बदलना पड़ता है ।

प्रीत पराई

वो आए दिल पर दस्तख दी द्वार खुला था अंदर तक नि:संकोच चले आए ठहरे, पहचान बनाई, कहानी रची पर बाहर हरदम झांकते रहे किसी से बतियाते रहे किसी को जलाते रहे मासूम दिल पर जब उनके निशान बन गए उलटे पाँव बाहर निकल गए एक दर्द का रिश्ता देकर वो बाहर किसी सुलझे से उलझते गए हम भीतर जख्मों से उलझते रहे जिन्हें शिद्दत से पलकों पर नवाजा था वो आँसू बन कर पुतलियों से बह गए !

अस्तित्व

अस्तित्व यह कैसा खेल रच रहा धरती को चिलम बना उसमें जीवन का तंबाखू डाल और तारों की सुलगती अग्नि भर जलते कश भर रहा और धुंध भरी सांसे उगल रहा ।

डूबना-उबरना

हम गिरते रहे भावना के एक ही कुँए में रोज और डूब गए डूबते को तिनके का सहारा भी न मिला और हम टूट गए इस कदर कि अब रोज भावना से मिलना होता है, हम प्रतिबिंबित भी होते हैं उसमें पर डूबते नहीं ... सार समझ में आ गया ! ( स्वप्न मंजूषा शैल जी (अदा जी), ने इस अभिव्यक्ति को शीर्षक भी दिया और लेबल भी, मैं ह्रदय से आभारी हूँ ।)

प्रतिध्वनि

एक व्यक्ति अपने नन्हें बेटे के साथ पहाड़ों की यात्रा पर था । एक जगह अचानक बेटे का पैर फिसला , उसे चोट लगी और मुँह से आह ! की तेज ध्वनि निकली । बच्चे ने सुना कि घाटियों में कोई और भी है जो उसके जैसी ही आवाज निकाल रहा है । उसने जोर से चिल्लाकर पूछा -" तुम कौन हो ?" जवाब मिला - " तुम कौन हो ?" लड़का फिर बोला -" मैं तुम्हें देखना चाहता हूँ ?" उत्तर आया - " मैं तुम्हें देखना चाहता हूँ ?" बच्चे ने आश्चर्य से अपने पिता से इसका रहस्य जानना चाहा । पिता ने मुस्कराते हुए कहा - " बेटा , यह तुम्हारी ही आवाज़ है , जो घाटियों द्वारा वापस लौटा दी गई है । विज्ञान इसे इको ( प्रतिध्वनि ) कहता है । लेकिन मेरे देखे हमारा जीवन भी कुछ ऐसा ही है । तुम जो कुछ इसे दोगे यह वापस कर देता है । यह हमारे कर्मों का प्रतिबिंब है । तुम दुनिया में जितना प्यार देखना चाहते हो , उतना प्यार स्वयं में पैदा करो , जितनी क्षमता दुनिया म

झूठ और सच

एक बहुत पुरानी कथा है, शायद तब की जब कि परमात्मा ने यह दुनिया बनाई । कहते हैं कि परमात्मा ने जब यह दुनिया बनाई तो बहुत एक रूप और साम्यबद्ध बनाई । फिर परमात्मा ने देखा कि पृथ्वी पर कोई हलचल नहीं है । सब एकरूप और शिथिल सा है । तब परमात्मा ने पृथ्वी पर विरोधी तत्वों की कामना की । और एक सच की देवी तथा एक झूठ की देवी बनाई । दोनों में विपरीत्त गुण भरे । और उन दोनों को पृथ्वी पर भेजा । आकाश से जमीन पर आते-आते उनके कपड़े मैले हो गए । रास्ते की धूल जम गई । जब वे जमीन पर उतर रही थी, तो भोर के अंतिम तारे डूब रहे थे। सूर्य निकलने के करीब था । थोड़ी देर थी सूरज निकलने में । इसके पहले कि वे परमात्मा के संदेश के अनुसार पृथ्वी की यात्रा पर जाएं और अपना काम शुरु करें , झूठ की देवी ने सच की देवी से सरोवर में स्नान का प्रस्ताव रखा । दोनों देवियाँ कपड़े उतारकर सरोवर में स्नान करने को उतरी । सच की देवी तैरती हुई आगे चली गई, उसे कुछ भी पता न था कि उसके पीछे कोई धोखा हो जाने को है । झूठ की देवी किनारे पर वापस आई और सच की देवी के कपड़े पहन कर भाग खड़ी हुई, और तो और स्वयं के कपड़े भी साथ ही लेते गई । जब लौटकर सच की

विडम्बना

मां दुखी पिता परेशान कि बेटा छब्बीस का होने को आया पर मिली नहीं नौकरी बाप परेशान कि दे नहीं सकता घूस में लाखों मां दुखी कि बेटा यूनिवर्सिटी तक प्रथम श्रेणी में रहकर भी है बेकार और बेटा ... अर्थ से बेअर्थ हुआ जो कुछ अर्थ पाता ले जाकर उसको खरीदता कविता की पुस्तकें ताकि अपना खोया संतुलन पा सके और संयमित हो सके

मां-बेटी

हर मां एक बेटी फिर भी वह बेटा चाहती शायद वह जानती है बेटी होने का दुख !

सृजन की वेदना

सृजन के पथ पर निकली हर आह प्रसव वेदना को सहने का संबल है जो मन मंजूषा भरी है भावों से, उनकी आभा पीली है क्योंकि हर भाव अपनी परिपक्वता में इसी रंगत में आकर टूट जाता है पीड़ा अपने चरम पर आकर बिखर जाती है सृजन की अंतिम घड़ियों में वीणा से संगीत भी शांत हो जाता है और धीरे से आह निकलती है कोई जन्म ले रहा है ।

जीवन-रहस्य

एक लहर उठी और गिर गई एक पतंग उड़ी और कट गई एक दोस्त मिला और बिछुड़ गया एक फूल खिला और मूर्झा गया एक आशा बंधी और निराशा बनी एक सुख आया और दुख हो गया एक दोस्त बना और दुश्मन हो गया एक सांस आई और एक सांस गई एक ऋतु आई और दूसरी ऋतु गई एक अपेक्षा की और उपेक्षा हो गई एक जमाना आया और दूसरा जमाना गया क्या परिवर्तन का दूसरा नाम जीवन नहीं है ? या कुछ है शाश्वत अमिट, अमृत, आनंद हे जीवन तुम्हीं रहस्य खोलो

सौंदर्य-परख

मैं चंडीगढ़ में था । फरवरी का महीना था । चंडीगढ़ के रोज़-गार्डन में रोज़-फैस्टिवेल लगा था । मैं एक मित्र के साथ रोज़-फैस्टिवेल देखने गया था । पहले तो हमने मेले में लगे विभिन्न स्टालों को देखा । फिर गार्डन के एक ओर एकांत में जाकर बैठ गए और आस-पास की चहल-पहल के बारे में बात करने लगे । तभी मैंने पास की एक क्यारी से गुलाब का एक सुंदर फूल तोड़ लिया और उसे सूंघते हुए अपने मित्र से पूछा -" क्या तुम्हें गुलाब सुंदर नहीं लगते ?" मित्र ने कहा- "मुझे फूल इतने प्रिय और सुंदर लगते हैं कि इन्हें डाल से तोड़ते हुए भी मुझे पीड़ा होती है ।" मित्र के इस जवाब से मैं सन्न रह गया । मुझे अपनी भूल का अहसास होने लगा था ।

बेदर्दों की दुनिया

कितनी पीड़ा होती है जब किसी पेड़ पर खुदा दिल,तीर और प्रेम संदेश देखता हूँ पर बेबस मैं कर ही क्या सकता हूँ बस एक ही ख्याल मन में आता है बार-बार क्या प्रेम इतना अंधा और संवेदनहीन होता है कि दर्द नहीं होता ऐसे पेड़ की छाती को चीरते हुए क्या ऐसा प्रेम प्रेमिका की छाती का दर्द समझता है या यूं ही उसे चीरने का सुख लेता है और फिर छोड़ उसे एकाकी दूर निकल जाता है एक दर्द का निशान हमेशा उसके कलेजे पर छोड़ फिर देखता हूँ - कि पेड़ के जख्म भरते जाते हैं और दिल,तीर उभरते जाते हैं और नाम छाती में अमिट बने रहते हैं मानो कह रहें हों कहानी उस प्रेम की जो न केवल अंधा और संवेदनहीन है बल्कि बेदर्द और बेसबब भी है जो किसी को दर्द दे वह किसी को सुख कैसे दे देता है पेड़ से इस बारे में एक दिन पूछ बैठा पेड़ ने कहा मत पूछो उस दर्द की कहानी - बस बेदर्दों की दुनिया में जीना है तो छाती चिरवाने में खुशी समझो ।

टूटते-सपने

चित्र
चीन में एक अद्भूत फकीर हुआ च्वांगत्से । एक रात जब वह सोया था, तो उसने एक सपना देखा । उसने सपने में देखा कि वह तितली हो गया । खुले आकाश में, हवाएँ बह रहीं हैं और मुक्त तितली उड़ रही है । सुबह च्वांगत्से उठा और रोने लगा । उसके संबंधियों ने पूछा कि क्यों रोते हो ? च्वांगत्से ने कहा, मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूँ । रात मैंने एक सपना देखा कि मैं तितली हो गया हूँ और बाग-बगीचे में फूल-फूल पर डोल रहा हूँ । संबंधियों ने कहा, सपने हम सभी देखते हैं, इसमें परेशानी की क्या बात है ? च्वांगत्से ने कहा, नहीं, मैं परेशान इसलिए हो रहा हूँ कि अगर च्वांगत्से रात सपने में तितली हो सकता है, तो यह भी हो सकता है कि तितली अब सपना देख रही हो कि वह च्वांगत्से नाम का आदमी हो गई है । जब आदमी सपने में तितली बन सकता है तो क्या तितली सपने में आदमी नहीं बन सकती ? मैं इसलिए मुश्किल में पड़ गया हूँ कि मैं च्वांगत्से हूँ, जिसने तितली का सपना देखा है या मैं हकीकत में एक तितली हूँ , जो अब च्वांगत्से का सपना देख रही है ! वस्तुत: न तो च्वांगत्से सपने में तितली बनता और न तितली च्वांगत्से । एक अदृश्य शक्ति दो तरह के सपने देखती