संदेश

2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

काम

तीसरा पुरुषार्थ काम है।इसका शाब्दिक अर्थ है-'इच्छा'। पुरुषार्थ के रूप में काम से अभिप्राय: मनुष्य की उन सभी शारीरिक,मानसिक,संवेगात्मक तथा कलात्मक इच्छाओं की पूर्ति से है जो उसके संपूर्ण विकास और जीवन के परम लक्ष्य(मोक्ष)को प्राप्त करने में सहायक हैं। इच्छा सभी कार्यों की प्रेरक शक्ति होती है। इस प्रकार हर कार्य के पीछे काम का होना एक अनिवार्य शर्त है। इस काम को भारतीय मनीषा ने तीन श्रेणियों में रखा है-सात्विक,राजसिक और तामसिक। सात्विक काम फल की प्रत्याशा के बिना स्वधर्मानुसार(विवेकानुसार)संपन्न किया जाता है। इस तरह का काम धर्मसम्मत होता है। इसीलिए श्री कृष्ण गीता के सातवें अध्याय के 11वें श्लोक में कहते हैं- बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्। धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोअस्मि भरतर्षभ॥ अर्थात मैं बलवानों का कामना और आसक्ति से रहित बल(अर्थात् सामर्थ्य) हूँ तथा सभी प्राणियों में धर्म के अनुकूल काम हूँ।  राजसिक काम विषय,वासना और इंद्रिय संयोग से पैदा होने वाला अहंकारयुक्त और फल की इच्छा से किया जाने वाला काम है। इस प्रकार का काम भोगते समय तो सुखकारी प्रतीत होता है,किंतु पर

अर्थ

हिंदू जीवन दर्शन में 'अर्थ' को दूसरा पुरुषार्थ कहा गया है। अर्थ का शाब्दिक अर्थ 'वस्तु' या 'पदार्थ' है। इसमें वे सभी भौतिक वस्तुएं  आती हैं जिन्हें  जीवन यापन के लिए मनुष्य अपने अधिकार-क्षेत्र में रखना चाहता है।अर्थ से ही मनुष्य अपने उदर की पूर्ति करता है।कर्त्तव्य-निर्वहण में अर्थ की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। अर्थ में केवल धन या मुद्रा ही नहीं बल्कि वे सभी चीजें शामिल हैं जिनसे भौतिक सुखों की प्राप्ति होती है। भारत में कभी भी अर्थ को उपेक्षा की दृष्टि से नहीं देखा गया। बल्कि इसे धर्म का साधन कहा गया है। संस्कृत में एक श्लोक है-'धनाद् धर्म' अर्थात् धन से धर्म की सिद्धि होती है। भारतीय धर्मशास्त्रों में धर्म-संबंधी ही चर्चा नहीं है,बल्कि उनमें अर्थनीति,राजनीति,दंडनीति आदि विषयों पर भी चर्चा हुई है। समाज व्यवस्था में अर्थ का नियोजन बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।कौटिल्य ने अपने 'अर्थशास्त्र' में  बहुत से विषयों जैसे  राजकुमारों की शिक्षा-दीक्षा,मंत्री-मंडल,जासूस,राजदूत,निवास,शासन-व्यवस्था,दुष्टों की रोकथाम,कानून,वस्तुओं में मिलावट,मूल्य-नि

धर्म

धर्म शब्द आज बहुत ही दूषित हो गया है। धर्म के साथ जो चीजें जुड़ गई हैं,वे धर्म के बिलकुल विपरीत्त हैं। भारतीय संस्कृति का मूल धर्म ही है। बल्कि कहना चाहिए कि भारतीय संस्कृति का प्राण धर्म है। धर्म ही भारतीय संस्कृति के सभी मूल्यों व आदर्शों को निश्चित करता है।दूसरे देशों की संस्कृति में जहां भौतिक तत्त्व की प्रधानता है,वहीं भारतीय संस्कृति में धर्म की प्रधानता है। इसलिए वह आध्यात्मिक संस्कृति है। धर्म शब्द को परिभाषा में बांधना कठिन ही नहीं बल्कि दुष्कर है। धर्म शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की धृ धातु से हुई है। जिसका अर्थ है-'धारण करना'। इस प्रकार धर्म वह है जिसके धारण करने से व्यक्ति व्यष्टि से समष्टि से जुड़ जाता है। धारणात् धर्ममित्याहु: धर्मो धारयति प्रजा:  अर्थात् धारण करने वाले को धर्म कहते हैं; धर्म प्रजा को धारण करता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि धर्म व्यक्ति ही नहीं धारण करता बल्कि स्वयं धर्म भी व्यक्ति को धारण किए हुए है। धर्म से व्यक्ति को और व्यक्ति को धर्म से अलग करके नहीं देखा जा सकता। पंचतंत्र में धर्म की परिभाषा मनुष्य को अन्य जीवधारियों से अलग करन

पुरुषार्थ

पुरुषार्थ क्या है? पुरुषार्थ हिंदू सामाजिक व्यवस्था का मनो-सामाजिक आधार है।हिंदू सामाजिक दर्शन के अंतर्गत प्रतिपादित पुरुषार्थ की अवधारणा,जीवन के प्रमुख लक्ष्य की व्याख्या करती है। इसके अंतर्गत चार पुरुषार्थ स्वीकृत हैं,जो मानव के उन चार लक्ष्य-स्तम्भों की ओर संकेत करते हैं,जिनकी प्राप्ति मानव जीवन के लिए अनिवार्य है। भारतीय दर्शन के अनुसार,मानव जीवन का परम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है।अर्थ तथा काम इस लक्ष्य तक पहुंचने के माध्यम हैं। इन माध्यमों का प्रयोग किस प्रकार किया जाय,इसे स्पष्ट करने वाला महानियम धर्म है। इस प्रकार हिंदू दर्शन ने मानव जीवन के लिए धर्म,अर्थ,काम व मोक्ष को स्वीकार किया है।हमारा स्पष्ट मत है कि"पुरुषार्थ व्यक्ति के होने का अर्थ सिद्ध करता है।"काम तो प्रत्येक मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है।काम और अन्य जीवन आवश्यकताओं की पूर्ति तथा समाज की जीवन व्यवस्था का साधन है-अर्थ अर्थात धन। धर्म वह महानियम है जिसके नियंत्रण में काम और अर्थ का संयमित उपयोग होने पर जीवन का परम लक्ष्य मोक्ष सहज ही प्राप्त हो जाता है। वैशेषिक दर्शन के अनुसार,जिससे इस लोक में मनुष्य की

गोत्र या प्रवर की वैज्ञानिकता

सगोत्र और सप्रवर निषेध में समाजशास्त्री कोई वैज्ञानिकता नहीं देखते। वे इसे सामाजिक विकास का एक प्रारूप मात्र स्वीकार करते हैं।उनके अनुसार यह कोई सनातन परम्परा नहीं है,क्योंकि यज्ञ के लिए चुने गए ऋषि स्वेच्छिक हैं,न कि यह उनके साथ कोई रक्त संबंध का द्योतक है और कोई भी व्यक्ति स्पष्टत: अपने गोत्र या प्रवर का दावा नहीं कर सकता। फलत: समाज शास्त्रियों के लिए गोत्र और प्रवर प्रत्यय केवल धर्मशास्त्रीय शब्द मात्र हैं। लेकिन हमारा मत है कि हिंदू धर्म इस बात को समझता रहा है कि विवाह के लिए  संबंधों में  रक्त निकटता  नहीं होनी चाहिए। इससे अनेक आनुवंशिक विसंगतियां पैदा होती हैं। इसलिए उन्होंने विवाह के लिए गोत्र व प्रवर का  प्रावधान किया। यदि सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत इसका अनुपालन किया जाए तो बेहतर संतति की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। ओशो का कथन है कि स्त्री-पुरुष जितनी अधिक दूरी पर विवाह करते हैं उनकी संतान उतनी ही अधिक प्रतिभाशाली और गुणी होती है। उनमें आनुवंशिक रोग होने की संभावनाएं कम से कम होती हैं। उनके गुणसूत्र बहुत मजबूत होते हैं और वे जीवन-संघर्ष में परिस्थितियों का दृढ़ता के साथ मुका

हिंदू विवाह के निषेध

हिंदुओं में विवाह के कुछ निषेध निश्चित हैं। हिंदू अपने ही गोत्र और प्रवर में विवाह नहीं करते। आइए इस पोस्ट में यह जाने कि गोत्र और प्रवर क्या हैं? और अपने ही गोत्र और प्रवर में विवाह वर्जित क्यों माना गया है। गोत्र : गोत्र के संबंध में धर्मशास्त्रों,सूत्रों में विभिन्न विचार मिलते हैं।सत्यपाठ हिरण्यकेशी श्रौतसूत के अनुसार-विश्वामित्र,जमदग्नि,भारद्वाज,गौतम,अत्रि,वशिष्ठ,कश्यप और अगस्त नामक आठ ऋषियों की संतान गोत्र कहलाती है।वैदिक साहित्य में गोत्र शब्द का प्रयोग गौओं की रक्षा के लिए बनाए गए बाड़े के रूप में किया गया है। मैक्समूलर भी इस धारणा को मानते हैं कि जिन लोगों की गायें एक ही स्थान(बाड़े में)पर बंधती थी,वे उस स्थान पर रहने वाले एक ही पूर्वज ऋषि की संतान समझे जाते थे,बाद में यह लोग एक ही गोत्र के सदस्य समझे जाने लगे।  पाणिनि ने अपने एक सूत्र में पोते तक की संतान को गोत्र कहा है। पतंजलि के महाभाष्य में कहा गया है कि ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले 80 हजार ऋषि हुए,किंतु उनमें से केवल आठ ऋषियों की संतान का प्रसार हो पाया। इसलिए इन्हीं आठ ऋषियों की संतान ही गोत्र कहलाती है।

हिंदू विवाह के प्रकार

हिंदू धर्मसूत्रों,शास्त्रों और स्मृतियों में विभिन्न प्रकार के विवाह बताए गए हैं। मनु ने विवाह के आठ भेद किए हैं परंतु वशिष्ठ ने छ: प्रकार के विवाह माने हैं। मनु स्मृति में कहा गया है- ब्राह्मो दैवस्तथैवार्ष प्राजापत्यस्तथासुर:। गान्धर्वो राक्षसश्चैव पैशाचश्चष्टमोधम:॥ इस प्रकार मनु ने ब्रह्म,दैव,आर्ष,प्राजापत्य,आसुर,गांधर्व,राक्षस और पैशाच आठ प्रकार के विवाह माने हैं।वशिष्ठ ने ब्राह्म,दैव,आर्ष,गांधर्व,क्षात्र(राक्षस) और मानुष(आसुर) विवाह के छ: प्रकार माने हैं।ब्राह्म विवाह, दैव विवाह,आर्ष विवाह और प्राजापत्य विवाहों को धर्म विवाह कहा गया है और ये समाज द्वारा स्वीकृत विवाह होने के कारण उत्तम विवाह कहे गए।अन्य चार विवाहों को अधर्म विवाह कहा गया है और इसीलिए ये समाज द्वारा अस्वीकृत कहे गए हैं। 1) ब्राह्म विवाह :मनुस्मृति में ब्राह्म विवाह के संबंध में लिखा है- आच्छाद्य चार्चयित्वा च श्रुति शीलवते स्वयम्। आहुय दानं कन्याय ब्राह्मो धर्म: प्रकीर्तित:॥ अर्थात कन्या को वस्त्र,अलंकार आदि से सुसज्जित करके विद्वान,शीलवान वर को आमंत्रित करके कन्यादान करने का नाम ब्रह्म विवाह है। यह

विवाह के उद्देश्य

धर्म पिछली पोस्ट में हमने जाना कि हिंदू दर्शन में विवाह एक संस्कार है।भारतीय दर्शन में धर्म का बहुत महत्त्व है।विवाह के प्रमुख उद्देश्य में भी धर्म सर्वोपरि है।स्त्री-पुरुष के मिलन से समाज की जो इकाई बनती है , वह परिवार कहलाता है।दाम्पत्य जीवन के बिना पारिवारिक जीवन दुष्कर ही नहीं वरन असंभव है। परिवार के जन्म के साथ ही मनुष्य में कर्त्तव्य-भाव का विकास दिखाई देता है। हिंदु-दर्शन के अनुसार प्रत्येक मनुष्य के कुछ निश्चित कर्त्तव्य हैं और विवाह इन कर्त्तव्यों को उचित ढ़ंग से निष्पादित करने में सहायक है। हिंदु-धर्म के अनुसार मनुष्य जीवन के पंच महायज्ञ स्वीकार किए गए हैं। ये पांच महायज्ञ हैं: ब्रह्म यज्ञ , पितृ यज्ञ , देव यज्ञ , भूत यज्ञ और नृ यज्ञ। इन पांचों यज्ञों को पूरा करने के लिए पत्नी का सहयोग परम आवश्यक है। ब्रह्म यज्ञ   :: ब्रह्म यज्ञ से अभिप्राय: है :इस सृष्टि और ब्रह्मांड के रहस्य को समझना। इस ब्रह्मांड में निरंतर सृजन और विनाश जारी है। विवाह सृजन में सहायक है। विवाह से ही सृष्टि का क्रम निरंतर बना रहता है। व्यक्ति को निरंतर अपने ज्ञान-चक्षुओं को खुला रखना ही ब्रह्म-य

हिंदू विवाह : एक संस्कार

हिंदू दर्शन में विवाह एक संस्कार के रूप में स्वीकृत है। भारत में प्राचीन समय से ही विवाह संबंधी अनेक प्रत्यय जैसे-परिणयन,उपयम,पाणिग्रहण आदि प्रचलित रहें हैं।इन प्रत्ययों में विवाह संस्कार के अनेक पहलू सम्मिलित हैं। स्त्री-पुरुष के पारस्परिक संबंधों के लिए प्रत्येक समाज में कोई न कोई संस्थात्मक व्यवस्था होती है।जिससे परिवार बनता है। परिवार किसी समाज की आधारभूत इकाई है।यह स्त्री-पुरुष के संबंधों पर आधारित है।परिवार के निर्माण के लिए विवाह समाज द्वारा स्वीकृत एक मान्य संस्था है। दूसरे शब्दों में विवाह यौन संबंधों को स्थापित करने की एक सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्था है। इसी कारण भारतीय शास्त्रकारों ने विवाह तथा गृहस्थ जीवन को अत्यधिक महत्त्व दिया है। भारतीय दर्शन में मानव जीवन के चार पुरुषार्थों (धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष) में काम की पूर्ति हेतु विवाह का विधान है। इसी के द्वारा मनुष्य अपने पितृ-ऋण से मुक्त होता है। समाजशास्त्री डॉ. कपाड़िया के अनुसार," हिंदू विवाह स्त्री-पुरुष के बीच धर्म के पालन की दृष्टि से एक ऐसा संस्कार है,जो जन्म-जन्मांतर के संबंधों की धारणा पर आधारित है।....ह

My thoughts/मेरे विचार

SINCERITY comes from heart;hypocrites never know sincerity. In the existence only man tries to be perfect. Nothing but existence itself perfect. Nothing is transparent unless you have eyes to see through things. Without zest zenith never comes. Self image sets the boundaries of individual perspective. Without a good rapport no team exists. With a good rapport team definitely wins. BOSS stands for Big Offer to Sure Success. --------------------------------------------------------------- निष्कटता हृदय से आती है;ढ़ोंगी इसे कभी नहीं समझ सकते। अस्तित्व में मनुष्य ही पूर्ण होने का प्रयास करता है। परंतु अस्तित्व के अतिरिक्त कुछ भी पूर्ण नहीं है। जब तक चीजों को आर-पार देखने वाली आंखें न हों कुछ भी पारदर्शी नहीं है। जोश के बिना शिखर कभी नहीं आता। आत्म-छवि व्यक्ति की सीमाओं को निर्धारित करती है। सौहार्द के बिना टीम नहीं बन सकती। जहां सौहार्द है वह टीम अवश्य ही जीतती है। सुनिश्चित सफलता के लिए बड़ा प्रस्ताव, अंग्रेजी के शब्द बॉस का विस्तार है। 

अन्ना हजारे होने के मायने

आज देश ने अन्ना हजारे को जितना प्यार और स्नेह दिया है,उतना देश की जनता ने शायद ही किसी ओर को दिया हो।अन्ना में ऐसा क्या है?जो उन्हें हमारे तथाकथित नेताओं से अलग करता है।पिछले बारह दिनों में अन्ना को मैंने जितना सुना,देखा और समझा है; उसके अनुसार अन्ना में अग्रलिखित गुण पाएं हैं: 1 .कथनी और करनी में एकरूपता:: अन्ना हजारे हमारे समय के एक ऐसे युगपुरुष के रूप में उभरे हैं जिनकी कथनी और करनी एक है।वे जो बोले उस पर अडिग रहे।उनके हृदय की सरलता देखते ही बनती है।वे जो बोलते हैं,उसी के अनुरूप उनका कर्म है। दोहरापन या कूटनीति उनमें लेश मात्र भी नहीं है।वे विशुद्ध रूप से खरा सोना हैं।जिन्हें देश की जनता और युवा शक्ति पर पुरा भरोसा है। 2. निरहंकारिता: अन्ना जी में अहंकार और झूठे घमंड का तनिक भी दर्शन नहीं हुआ। उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ जो आंदोलन खड़ा किया,उसमें उनके हृदय की विशालता और इस निरंहकारिता का बहुत बड़ा योग है। देश में पहली बार ऐसा हुआ,जब किसी गैर-राजनीतिक पृष्ठभूमि के व्यक्ति ने देश को अपने साथ जोड़ा और इस पर उन्हें किसी प्रकार का गर्व या अहंकार किंचित भी न छू सका।सचमुच अन्ना एक

मेरी सेवानिवृत्ति

एक दिन मैं भी ऐसे ही सेवानिवृत्त हो कर जाउंगा कार्यालय से लोग अनमने मन से मुझे भी कुछ हार पहनाएंगे थोड़े मेरी प्रशंसा में वे शब्द कहेंगे जिनमें न रस होगा न ताज़गी और फिर खाने-पीने का दौर शुरु हो जाएगा तब मैं घर लौट आऊंगा और लोग धीरे-धीरे मुझे भूल जाएंगें कार्यालय वैसे ही चलता रहेगा जैसे आज चलता है बस मैं न रहूंगा न मेरे हस्ताक्षर होंगे 0 0 0 होगा एक विराट शून्य जिसमें धीरे-धीरे सब समा जाएगा और अस्तित्व अपनी एक महायात्रा पूरी कर चुका होगा

दोस्ती और शेयरिंग

आज एक दृष्टांत प्रस्तुत कर रहा हूँ; दोस्ती और दोस्ती में अपेक्षाओं का। दोस्त अक्सर परस्पर एक-दूसरे के साथ अपने विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। एक दूसरे के सुख-दुख में शामिल होते हैं और इन्हें आपस में बांट कर सांझा करते हैं। लेकिन दोस्ती में क्या जरुरी है कि दोस्त की हर अपेक्षा को पूरा किया जाए???  एक बार मेरे किसी मित्र ने ई-मेल मेल से मुझे कुछ फोटोग्राफ़ भेजे। उन्होंने जो चित्र मुझे भेजे,वे तकनीकी कारणों से मेरी मेल पर खुले नहीं। मैंने उन्हें,प्रत्युत्तर भेजा कि आपने जो फोटोग्राफ़ भेजे थे,वे खुल नहीं पा रहे हैं? कृपया इन्हें पुन:भेज दें। मित्र ने मुझ से मेरे ई-मेल का पॉस-वर्ड पूछा। मैंने उन्हें पासवर्ड नहीं दिया।इस बात को लेकर मित्र मुझ से नाराज़ हो गए। और उन्हें लगा कि मैं उन्हें मित्र नहीं मानता। मित्र मानता तो पॉसवर्ड देता? इसके बाद हमारे बीच में दूरियाँ बढ़ गई,जिन्हें मैं चाह कर भी खतम नहीं कर सका। क्या किसी मित्र को अपनी इस तरह की निजी और गोपनीय बातें भी बतानी चाहिएं???  कृपया पाठक गण अपनी राय व्यक्त कर मेरी समस्या का समाधान करें।

समाज और सत्य

"समाज में रहने के लिए'सत्य' जैसे खुले आकाश की नहीं; बल्कि बंद,अंधेरे कमरे जैसे 'झूठ' की ज्यादा जरूरत रहती है।" _मनोज भारती 

चिंतन

संप्रदायों,पंथों में बंटा हुआ व्यक्ति सत्य को नहीं पहचान सकता। व्यक्ति की वैयक्तिक सोच,जब तक सृजन में साकार नहीं होती,तब तक व्यक्ति की सोच वायवीय समझी जाती है।एक पागलपन।सृजन के लिए यह पागलपन,जुनून जरुरी है। किसी चीज की वयुत्पत्ति के लिए दो विरोधी तत्त्वों का मिलन आवश्यक है। दूसरों को धोखा देने से पहले,व्यक्ति स्वयं को धोखा देता है।

ढोल,गंवार,पुरुष और घोड़ा

ओशो से किसी स्त्री ने प्रश्न किया, "ओशो! शास्त्र कहतें हैं- स्त्री नर्क का द्वार है।" इस पर आप क्या कहते हैं?  ओशो ने कहा, "एक छोटी सी कहानी कहता हूं-  ढब्बू जी की पत्नी धन्नो एक दिन उदास स्वर में अपनी सहेली गुलाबो से कह रही थी, "बहन, मैं तो परेशान हो गई हूं अपने पति से,वे मुझे हमेशा ही रामायण की यह चौपाई कि -  ढोल गंवार शूद्र पशु नारी। ये सब ताड़न के अधिकारी॥ कह कर प्रताड़ित करते रहते हैं। मैं तो तंग आ गई, यह सुन-सुन कर।"  गुलाबो बोली,"अरे,इसमें इतना परेशान होने की क्या बात है! मैंने कुछ ही दिन पहले एक नई चौपाई बनाई है,तू इसे गाया कर- ढोल गंवार पुरुष और घोड़ा। जितना पीटो उतना थोड़ा ॥" इसमें क्या चिंता लेनी है! स्त्रियों को अपनी चौपाइयां बना लेनी चाहिएं। अपने शास्त्र बनाओ,शास्त्रों पर किसी की बपौती है,किसी का ठेका है? चौपाई लिखने की कला कोई बाबा तुलसीदास पर खत्म हो गई है? याद कर लो इस चौपाई को-  ढोल गंवार पुरुष और घोड़ा। जितना पीटो उतना थोड़ा ॥

तू न आना इस देस,लाडो...

-- "यैस ओशो" पत्रिका  के "जुलाई 2011" अंक का संपादकीय --लेखक :संजय भारती  एक लोकप्रिय टी.वी. सीरियल का यह शीर्षक बिलकुल मौजू हो जाता है अंतरराष्ट्रीय सर्वेक्षण संस्था थॉमस रॉयटर्स के इस तथ्य-उद्-घाटन से कि स्त्रियों के लिए असुरक्षित देशों में भारत पूरे विश्व में चौथे स्थान पर आता है। विश्वास नहीं होता न!  भारत में 30 लाख वेश्याएं हैं- अधिकारिक आँकड़ों के अनुसार। असली संख्या इससे कहीं ज्यादा होगी। अधिकारिक आँकड़ों के अनुसार जो 30 लाख वेश्याएं हैं,उनमें से 40 प्रतिशत चौदह वर्ष से कम उम्र की बच्चियां हैं। ये सब वे बच्चियां हैं जो चुरा ली गई या जिनके चाचा,भाई,पड़ौसी या स्वयं पिता तक ने पहले उनका उपभोग किया और फिर उन्हें बेच दिया। ज्ञात आँकड़ों के हिसाब से पिछले सौ वर्षों में 5 करोड़ बच्चियां गुम हुई हैं। विदेशी बैंकों में गुम हुआ भारत का धन तो आज सभी के जेहन में है,लेकिन ये 5 करोड़ बच्चियां? इनका क्या?  थॉमस रॉयटर्स की रिपोर्ट के अनुसार भारत में महिलाओं के खिलाफ हो रहे अपराधों की लिस्ट में सबसे पहले स्थान पर आता है-स्त्रियों की भ्रूण ह्त्या। लेकिन परिवार

ओशो की डायरी से:5:

यह सत्य है कि मनुष्य अब पशु नहीं है;लेकिन क्या यह भी सत्य है कि मनुष्य,मनुष्य हो गया है? पशु होना अतीत की घटना हो गई है पर मनुष्य होना अभी भी भविष्य की संभावना है।शायद हम मध्य में हैं और यही हमारी पीड़ा है,यही हमारा तनाव है,यही हमारा संताप है। जो प्रयास करते हैं और स्वयं के इस पीड़ा-अस्तित्व से असंतुष्ट होते हैं,वे ही मनुष्य हो पाते हैं।मनुष्यता मिली हुई नहीं है,उसे हमें स्वयं ही स्वयं में जन्म देना होता है। लेकिन मनुष्य होने के लिए यह आवश्यक है कि हम पशु न होने को ही मनुष्य होना न समझ लें और जो हैं उससे तुष्ट न हो जावें। स्वयं से गहरा और तीव्र असंतोष ही विकास बनता है। मैं तथाकथित शिक्षा से कितना पीड़ित हुआ हूं,कैसे बताऊं? सिखाया हुआ ज्ञान,विचार की शक्ति को तो नष्ट ही कर देता है। विचारों की भीड़ में विचार की शक्ति तो दब ही जाती है। स्मृति प्रशिक्षित हो जाती है और ज्ञान के स्रोत अविकसित ही रह जाते हैं। फिर यह प्रशिक्षित स्मृति ही ज्ञान का भ्रम देने लगती है। इस तथाकथित शिक्षा में शिक्षित व्यक्ति को नए सिरे से ही विचार करना सीखना होता है। उसे फिर से अशिक्षित होना पड़ता है। यही मुझे भी कर

ओशो की डायरी से :4:

समाधि में क्या जाना जाता है? कुछ भी नहीं। जहां तक जानने को कुछ भी शेष है,वहां समाधि नहीं है। समाधि सत्ता के साथ एकता है- जानने जितनी भी दूरी वहां नहीं है। संसार में संसार के होकर न रहना संन्यास है। पर बहुत बार संन्यास का अर्थ उन तीन बंदरों की भांति लगा लिया जाता है जो कि बुरे दृश्यों से बचने के लिए आंख बंद किए हैं और बुरी ध्वनियों से बचने के लिए कान और बुरी वाणी से बचने के लिए मुख। बंदरों के लिए तो यह क्षम्य है लेकिन मनुष्यों के लिए अत्यंत हास्यास्पद। भय के कारण संसार से पलायन मुक्ति नहीं वरन् एक अत्यंत सूक्ष्म और गहरा बंधन है। संसार से भागना नहीं,स्वयं के प्रति जागना है। भागने में भय है, जागने में अभय की उपलब्धि। ज्ञान से प्राप्त अभय के अतिरिक्त और कुछ भी मुक्त नहीं करता।  क्या निर्वाण और मोक्ष भी चाहा जा सकता है? निर्वाण को चाहने से अधिक असंगत बात और कोई नहीं है, क्योंकि जहां कोई चाह नहीं है, वहीं निर्वाण है। चाह ही अमुक्ति है तो मोक्ष कैसे चाहा जा सकता है? किंतु मोक्ष को चाहने वाले व्यक्ति भी हैं और तब स्वाभाविक ही है कि उनका तथाकथित संन्यास भी बंधन का एक रूप हो और संसार का ही एक

ओशो की डायरी से :3:

मैं खोजता था तो मौन से बड़ा कोई शास्त्र नहीं पा सका। और शास्त्र खोजे तो पाया कि शास्त्र व्यर्थ हैं, और मौन ही सार्थक है। कहां जा रहे हो? जिसे खोजते हो,वह दूर नहीं निकट है।और जो निकट है,उसे पाने को यदि यात्रा की तो उसके पास नहीं,उसके दूर ही निकल जाओगे। ठहरो और देखो। निकट को पाने के लिए ठहरकर देखना ही पर्याप्त है।  मुक्ति न तो प्रार्थना से पाई जाती है,न पूजा से, न धर्म-सिद्धांतों में विश्वास से। मुक्ति तो पाई जाती है अमूर्च्छित जीवन से। इसलिए मैं कहता हूँ कि प्रत्येक विचार और प्रत्येक कर्म में अमूर्च्छित होना ही प्रार्थना है,पूजा है और साधना है। उसे सोचो जिसे कि तुम सोच ही नहीं सकते हो और तुम सोचने के बाहर हो जाओगे।सोचने के बाहर हो जाना ही स्वयं में आ जाना है। जीवन के विरोध में निर्वाण मत खोजो।वरन जीवन को ही निर्वाण बनाने में लग जाओ। जो जानते हैं वे यही करते हैं। डो-झेन के प्यारे शब्द हैं- "मोक्ष के लिए कर्म मत करो,बल्कि समस्त कर्मों को ही मौका दो कि वे मुक्तिदायी बन जाएं।" यह हो जाता है, ऐसा मैं अपने अनुभव से कहता हूँ। और जिस दिन यह संभव होता है,उस दिन जीवन एक पूरे खिले ह

ओशो की डायरी से :2:

यह मत कहो कि मैं प्रार्थना में था,क्योंकि उसका अर्थ है कि आप प्रार्थना के बाहर भी होते हो। जो प्रार्थना के बाहर भी होता है,वह प्रार्थना में नहीं हो सकता। प्रार्थना क्रिया नहीं है। प्रार्थना तो प्रेम की परिपूर्णता है। जीवन की खोज में आत्मतुष्टि से घातक और कुछ नहीं। जो स्वयं से संतुष्ट हैं,वे एक अर्थ में जीवित ही नहीं हैं। स्वयं से जो असंतुष्ट है,वही सत्य की दिशा में गति करता है। स्मरण रखना कि आत्मतुष्टि से निरंतर ही विद्रोह में होना धार्मिक होना है। मृत्यु से घबड़ाकर तो आपने ईश्वर का आविष्कार नहीं कर लिया है? भय पर आधारित ईश्वर से असत्य  और कुछ भी नहीं है। जो सदा वर्तमान है,वही सत्य है। निकटतम जो है,वही अंतिम सत्य है। दूर को नहीं,निकट को जानों क्योंकि जो निकट को ही नहीं जानता है, वह दूर को कैसे जानेगा? और जो निकट को जान लेता है,उनके लिए दूर शेष नहीं रह जाता है। मैं कौन हूँ?  पूछो- स्वयं से। मैं कहां हूँ? खोजो- स्वयं में।जब तुम कहीं भी स्वयं को नहीं पा सकोगे तो जान जावोगे कि तुम कौन हो। मैं की अनुपलब्धि में ही मैं का रहस्य छिपा हुआ है। सत्य यदि ज्ञात नहीं है,तो शास्त्र व्यर्थ है और

नियति का सुख

जिंदगी में कुछ चीजें निश्चित सी होती हैं या कहें कि नियति चाहती है कि हम वो करें। स्कूल के दिनों में मेरे संस्कृत के अध्यापक ने मेरी अच्छी लिखावट को देख कर मुझे एक कार्य नियमित रूप से करने को कहा। हमारे स्कूल के मुख्य द्वार पर एक बोर्ड था,जिस पर रोज एक सुविचार लिखा जाता था। इस कार्य के लिए मुझे चुना गया। यह कार्य करते हुए मुझे भी अच्छा लगता था। क्योंकि मैं अखबार,पत्रिकाओं में छपने वाले महापुरुषों के अनमोल विचारों को सदा पढ़ता और उनका संग्रह अपनी नोट बुक में करता।मुझे नहीं मालूम की मेरे इस गुण को मेरे वह अध्यापक समझते थे या नहीं।   आज वर्षों बाद भी, मैं जिस संस्थान में कार्य कर रहा हूँ, वहाँ भी मुख्य द्वार पर 'आज का सुविचार' बोर्ड लगा है। और उस पर विचार लिखने का कार्य मेरा ही है। फर्क सिर्फ इतना है कि स्कूल के बोर्ड पर मैं जो विचार लिखता था, वह 'ब्लैक बोर्ड' पर 'खड़िया मिट्टी' से लिखता था और आज 'वाइट-बोर्ड'पर 'मार्कर पैन'से लिखता हूँ।' इस कार्य को करते समय अनेक अनुभव हुए हैं। कभी विचार लिखे जाने के समय कोई कर्मचारी आकर सुविचार की तारीफ करने

पवित्र छाया

एक सूफी कहानी : ओशो मुख से एक बार की बात है,एक इतना भला फकीर था कि स्वर्ग से देवदूत यह देखने आते थे कि किस प्रकार से एक व्यक्ति इतना देवतुल्य भी हो सकता है। यह फकीर अपने दैनिक जीवन में, बिना इस बात को जाने,सदगुणों को इस प्रकार से बिखेरता था जैसे सितारे प्रकाश और फूल सुगंध फैलाते हैं। उसके दिन को दो शब्दों में बताया जा सकता था- बांटों और क्षमा करो - फिर भी ये शब्द कभी उसके होंठों पर नहीं आए। वे उसकी सहज मुस्कान,उसकी दयालुता,सहनशीलता और सेवा से अभिव्यक्त होते थे।  देवदूतों ने परमात्मा से कहा: प्रभु,उसे चमत्कार कर पाने की भेंट दें। परमात्मा ने उत्तर दिया, उससे पूछो वह क्या चाहता है?  उन्होंने फकीर से पूछा, क्या आप चाहेंगे कि आपके छूने भर से ही रोगी स्वस्थ हो जाए। नहीं, फकीर ने उत्तर दिया, बल्कि मैं तो चाहूँगा परमात्मा ही इसे करें। क्या आप दोषी आत्माओं को परिवर्तित करना और राह भटके दिलों को सच्चे रास्ते पर लाना पसंद करेंगे? नहीं, यह तो देवदूतों का कार्य है, यह मेरा कार्य नहीं कि किसी को परिवर्तित करुं। क्या आप धैर्य का प्रतिरूप बन कर लोगों को अपने सदगुणों के आलोक से आकर्षित करते हुए और इ

अथर्ववेद

अंगिरा-वंशीय अथर्वा ऋषि के नाम पर इसका अथर्ववेद  नाम पड़ा।इसके नामकरण के संबंध में गोपथ ब्राह्मण में एक कथा आती है।कथा के अनुसार,ब्रह्मा ने सृष्टि की उत्पत्ति के लिए घोर तपस्या की।तप के प्रभाव से उनके तप:पूत शरीर से तेजस्वरूप दो जल धाराओं का उद्-भव हुआ, जिनमें से एक धारा से अथर्वन तथा दूसरी से अंगिरा उत्पन्न हुए।इन्हीं से अथर्वागिरसों की उत्पत्ति हुई।इनके वंशजों को जो मंत्र दृष्ट हुए उन्हें अथर्ववेद,मृग्वंगिरसवेद अथवा अर्वांगिरसवेद कहा गया। अथर्व का शाब्दिक अर्थ है :गति रहित। थर्व शब्द चंचलता व गति का द्योतक है जबकि अथर्व से गति रहित,निश्चलता,एकाग्रता आदि का तात्पर्य है।इसी लिए कहा गया है : थर्व गति कर्मा न थर्व इति अथर्वा।अथर्व वेद में मानव शरीर के अंगों,शारीरिक रोगों,राजधर्म,समाज-व्यवस्था,अध्यात्मवाद और प्रकृति वर्णन का विस्तृत व व्यवहारिक ज्ञान भरा पड़ा है। अथर्ववेद में वर्णित मंत्र यज्ञ से संबंधित न होकर यज्ञ में उत्पन्न होने वाले विघ्नों के निवारण हेतु यज्ञ संरक्षक ब्रह्म के निमित्त मंत्रों का संग्रह है।इस संहिता में मारण,मोहन,उच्चाटन आदि तंत्र-क्रियाओं का विशेष वर्णन है।इसमें भ

सामवेद

साम शब्द का अर्थ है गान, अर्थात सामवेद में संकलित मंत्र देवताओं की स्तुति के समय गाये जाने वाले मंत्र हैं।अन्य शब्दों में कहें तो गेय मंत्रों अथवा ऋचाओं का ही नाम साम है तथा इनका संकलन सामवेद संहिता कहलाता है।इस वेद का स्थान ऋग्वेद और यजुर्वेद के पश्चात निर्धारित है।सामवेद में संकलित ऋचाएँ अधिकतर ऋग्वेद की ऋचाएँ ही हैं।सामवेद में कुल 1549 ऋचाएँ हैं,इनमें 75 ऋचाएँ स्वतंत्र हैं,बाकी सारी ऋचाएँ ऋग्वेद की हैं।सामवेद का ऋत्विक उद्-गाता कहलाता है।संगीत-शास्त्र का उद्-गम यहीं से होता है। सामवेद की शाखाओं की कुल संख्या 1000 मानी गई है, जिनमें 13 महत्त्वपूर्ण हैं।हालांकि वर्तमान में तीन शाखाएँ ही उपलब्ध हैं।ये शाखाएँ हैं - 1.कौथुमीय2.राणायनीय3.जैमिनीय।इन शाखाओं के आधार पर सामवेद की कौथुमीय संहिता,राणायनीय संहिता तथा जैमिनीय संहिता नाम से तीन संहिताएँ उपलब्ध हैं। इन संहिताओं के अलग-अलग ब्राह्मण,आरण्यक तथा उपनिषद भी मिलते हैं। सामवेद संहिता के दो भाग हैं- 1.पूर्वार्चिक तथा 2.उत्तरार्चिक। पूर्वार्चिक भाग को छंद,छंदसी या छंदशिका भी कहते हैं।पूर्वार्चिक भाग चार उप विभागोँ में विभक्त है-(क)आग्नेय प

यजुर्वेद

यजुर्वेद का संबंध यज्ञ से है।ज्ञान को कर्म में परिणित करना इसका उद्देश्य है।कर्म के लिए प्रेरित करने वाला शास्त्र होने के कारण ही इसे कर्मवेद के रूप में भी पहचाना जाता है।यजुर्वेद के पहले मंत्र में ही कर्म करने का आदेश है:  देवो व: सविता प्रार्पयतु श्रेष्ठतमाय कर्मणे।  अर्थात सबका सृजन करने वाला देव ! तुम सबको श्रेष्ठ कर्म करने के लिए प्रेरित करो।  इसी तरह यजुर्वेद के अंतिम चालिसवें अध्याय के दूसरे मंत्र में कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीने की इच्छा रखने को कहा गया है:  कुर्वन्नवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समा:। इस वेद में यज्ञ के समय उपयोग में लाए जाने वाले नियमों एवं मंत्रों का वर्णन है। यह प्रमुखत: गद्य में है। यजुर्वेद मुख्यत: अध्वर्यु पुरोहितों की दिग्दर्शिका है; जो कर्मकांडों के नियमों का पालन करते थे।यजुर्वेद संहिता के दो भाग हैं: 1.कृष्ण यजुर्वेद 2. शुक्ल यजुर्वेद। 1. कृष्ण यजुर्वेद : कृष्ण यजुर्वेद की उत्पत्ति के बारे में कहा गया है कि वेदव्यास ने अपने शिष्य वैशम्पायन को यजुर्वेद सिखलाया। वैशम्पायन ने याज्ञवल्क्य ऋषि को इसकी शिक्षा दी।बाद में किसी बात पर रुष्ट होकर वैशम्पायन ने अपन