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हँसता हुआ बुद्ध

जब से भारत में चॉईनीज़ बाजार का जोर पकड़ा है, भारत में चॉईनीज़ वास्तु, फेंग्सुई, विंड चॉईम के साथ-साथ हँसते हुए बुद्ध यानी लॉफिंग बुद्धा भी बहुत प्रचारित हो गए हैं । हँसते हुए मुख, थुलथुल शरीर और पीठ पर बड़ी सी पोटली को लटकाए इस लॉफ़िंग बुद्धा की मूर्ति आजकल भारत के हर तीसरे घर और बाजार में गिफ्ट शॉपस पर दिखाई पड़ जाती है । जो समृद्धि व खुशहाली का प्रतीक है ।  बहुत कम लोग जानते हैं कि लॉफिंग बुद्धा वास्तव में कौन हैं । वस्तुत: वह एक झेन साधक था । जिसका जन्म चीन के ताँग साम्राज्य में हुआ  और जिसका वास्तविक नाम होतेई था । लेकिन उसमें गुरु होने की जरा भी इच्छा न थी । वह नहीं चाहता था कि वह किसी आश्रम में रहे और चेले बनाए । वह तो एक बड़ी सी पोटली पीठ पर लादे, गलियों में यायावर की तरह घूमता रहता । उसकी इस पोटली में सूखे-मेवे, टॉफियाँ, फल आदि भरे रहते थे । वह इन्हें उपहार स्वरूप उन बच्चों में बाँटता रहता था, जो खेल-खेल में उसके चारों ओर इकट्ठा हो जाते थे । यह कृत्य कुछ-कुछ सैंटा से मिलता-जुलता है । होतेई जब भी किसी झेन साधक से मिलता, तो अपना हाथ पसार कर एक पेनी देने का अनुरोध करता । एक बार

अनाड़ी हाथ

झेन आश्रमों में चाय बनाना और उसे पीना भी ध्यान की एक विशेष विधि है । वस्तुत: यह" कार्य करते हुए ध्यान" का एक अनूठा प्रयोग है । साधक एक-एक चीज़ होशपूर्ण ढंग से करता है । चुल्हे का जलाना, उस पर चाय की केतली रखना, उसमें पानी डालना, उसे उबलते हुए देखना, उसमें विशेष मात्रा में चाय की पत्तियाँ उँडेलना, दूध डालना और फिर चाय की महक को महसूस करना और फिर विशेष ढंग से बने नाजुक प्यालों में चाय को डालना और फिर उसकी धीरे-धीरे करके चुस्कियाँ लेना । इस पूरे उपक्रम में साधक घंटों व्यतीत करते हैं । यह उनका चाय ध्यान होता है ।  एक बार ऐसे ही चाय-ध्यान के अवसर पर  एक वरिष्ठ साधक एक नवीन साधक के साथ था । चाय  के नाजुक प्याले को पकड़ते हुए, उसने वरिष्ठ साधक से पूछा, "ये चाय के प्याले इतने नाजुक क्यों बनाए जाते हैं कि जरा-सी चूक होते ही टूट जाएँ ।"  वरिष्ठ साधक ने कहा," प्याले नाजुक नहीं होते, जिन हाथों में प्याले टूटते हैं, वे अनाड़ी होते हैं ।"

ज्ञान की बत्ती

"तेन्दई" बौद्ध-दर्शन की एक दार्शनिक विचारधारा है । इसी विचारधारा का एक दार्शनिक झेन का ज्ञान हासिल करना चाहता था । वह इस उद्देश्य से झेन-गुरु "गासन" के आश्रम में आ कर ठहरा । कुछ वर्ष आश्रम में रहकर उसने झेन का अध्ययन किया । झेन पद्धति के संबंध में तथ्यों को एकत्रित किया । जब वह आश्रम से लौटने लगा तो गासन ने उसे सचेत किया, "सत्य की दार्शनिक विवेचना संबंधी सामग्री इकट्ठा करना एक उपयोगी कार्य हो सकता है, लेकिन याद रखना, अगर तुमने नियमित रूप से ध्यान नहीं किया तो तुम्हारे दार्शनिक-ज्ञान की बत्ती कभी भी गुल हो सकती है ।" 

चाँद की चोरी

जो भी चुराया जा सकता है, वह द्रष्टा के सम्मुख दो कोड़ी का साबित होता है । जब तक व्यक्ति को यह समझ नहीं आता कि वह जिन-जिन चीजों का लालच करता है,वह दो कोड़ी से ज्यादा मूल्य नहीं रखता, उसका लालच बना रहता है । एक बहुत सुंदर झेन कहानी है । झेन गुरु रियोकॉन प्रकृति के सान्निध्य में पर्वतों की तलहटी में एक कुटिया में रहते थे । एक रात उनकी कुटिया में एक चोर घुस आया । लेकिन वहाँ चुराने लायक कुछ भी नज़र नहीं आया । वह निराश खाली हाथ लौटने ही वाला था कि रियोकॉन वहां आ पहुँचे ।  रियोकॉन ने चोर से कहा, तुम बड़ी दूर से चल कर आए लगते हो । मैं तुम्हें यूँ निराश नहीं लौटने दूँगा । मेरे पास चुराने लायक कुछ नहीं है । लेकिन मेरे पास ये कपड़े हैं, इन्हें उपहार स्वरूप प्राप्त करो । चोर चकित था, उसने ऐसा व्यक्ति नहीं देखा था, जो स्वयं चोर की सहायता करे । उसने कपड़े थामे और चुपचाप वहां से चला गया ।  वस्त्रहीन शरीर के साथ रियोकॉन बाहर एक शिला पर बैठ कर चाँद को निहारने लगा । चाँद की खूबसूरती देखते ही बनती थी । आधी रात का पूर्णिमा का चाँद और रियोकॉन की दृष्टि उसमें कुछ अमूल्य पा रही थी । रियोकॉन ने स्वयं से कहा

अवधान

हम दैनिक जीवन में कितने चेतनशील जीते हैं, दैनिक जीवन के कामों को करते हुए कितने चेतनशील होते हैं ? इस चेतनशीलता को विकसित करना ही झेन का आधार है । झेन साधक इस चेतनशील जीवन को साधने के लिए झेन गुरु के सान्निध्य में शिक्षा लेते हैं । कम से कम दो वर्ष । झेन गुरु नान-इन के पास इस हेतु एक टेन्नो नाम का साधक शिक्षा ग्रहण करता था । शिक्षा पूरी होने पर टेन्नो अपने गुरु से मिलने गया । वर्षा का मौसम था । टेन्नो खड़ाऊ पहने था और छाता साथ में लिए हुए था । गुरु के निवास स्थान में प्रवेश करने से पूर्व उसने अपने खड़ाऊ और छाता बाहर अहाते में रखे और कुटिया में प्रवेश किया । नान-इन ने टेन्नो का स्वागत किया और उसकी ओर गौर से देखते हुए पूछा, मेरा ख्याल है, तुम अपने खड़ाऊ अहाते में छोड़ कर आए हो । मैं यह जानना चाहता हूँ कि तुम्हारा छाता तुम्हारे खड़ाऊ के दायीं तरफ रखा है या बायीं तरफ ?  टेन्नो उलझन में था । वह यह कार्य करते हुए सजग न था । उसे तत्काल कोई जवाब न सूझा । उसे एहसास हुआ कि जिस ध्यान की शिक्षा वह ग्रहण कर चुका है, वह पूरी नहीं हुई है और वह सजग जीवन जीने में सफल नहीं हुआ है । इसे पूरा करने के लिए

वीणा के तार तोड़ना - एक चीनी मुहावरा

झेन कथाएं हमें चेतनशील जीवन जीने की प्रेरणा देती हैं । झेन कथाओं में व्यक्ति की चेतना का अनेक-अनेक ढ़ँग से अवबोध कराने का प्रयास रहता है । इनके द्वारा दैनिक जीवन में सजगता के प्रयोग को गहराया जाता है और व्यक्ति को ध्यान में अवस्थित होने का अवसर मिलता है । इसी प्रकार की एक झेन कथा प्रस्तुत है :- चीन में दो मित्र हुए । एक मित्र वीणा वादन में कुशल था । उसके वीणा वादन में विभिन्न स्वर लहरियाँ थी । जब वह वीणा के तार झंकृत करता था, तो दूसरा उसके स्वरों को डूब कर सुनता था । जब पहला वीणा से कोई पहाड़ी धुन छेड़ता, तो दूसरा कहता, मेरी आँखों के सम्मुख पर्वतों की चोटियाँ सजीव हो उठी हैं और घाटियों की प्रतिध्वनि गूँज उठी है ।  वादक पानी के सुर लगाता, तो दूसरा मित्र कहता, ऐसा लगता है जैसे कल-कल करती नदी मेरे सम्मुख प्रवाहित हो रही है । एक मित्र के पास वीणा वादन की कुशलता थी तो दूसरे के पास सुनने की अद्-भूत कर्ण शक्ति ।  एक दिन सुनने वाला मित्र बीमार पड़ा और जल्दी ही देह से मुक्त हो गया । वीणा वादक ने अपनी वीणा के तार तोड़ डाले और कहते हैं कि फिर उसने कभी वीणा नहीं बजाई ।  क्यो ?  लेकिन तब से च

ईर्ष्या

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सामने की दीवाल पर पड़ने वाली तेज धूप के कारण आंखें मिचमिचाती थी और लोगों के चेहरे भी कुछ अस्पष्ट दीखते थे । एक छोटी लड़की स्वयं ही मेरे पास आकर बैठ गई । यह सब क्या चल रहा है, इस कौतूहल से उसकी आंखें विस्फारित हो रही थी । शायद उसने अभी-अभी स्नान किया था और वह स्वच्छ वस्त्र पहने थी । उसके बालों में फूल भी लगे थे । बाल-स्वभाव के अनुरूप बहुत कुछ ध्यान में न रखने की चिंता न करते हुए, वह आसपास की सारी बातों का निरीक्षण कर रही थी । उसकी आंखों में अनोखी चमक थी । अब क्या किया जाए- रोए,हँसे कि उछल-कूद करे - उसे सूझ नहीं रहा था । संभवत: इसी कारण उसने सहज रूप से मेरा हाथ अपने हाथ में लिया और उसका अत्यंत ध्यानपूर्वक निरीक्षण करने लगी ।जल्दी ही वह आसपास के लोगों को भूल गई और मेरी जांघ पर सिर रखकर सो गई । उसका माथा सुंदर,सुडौल था और वह अत्यंत स्वच्छ और निर्मल थी । लेकिन उसका भविष्य कमरे में बैठे अन्य लोगों की तरह भ्रम और दुखमय था । भविष्य में उसके मन में पैदा होनेवाला संघर्ष और दुख सामने की दीवाल पर पड़ने वाले सूर्य-प्रकाश की तरह स्पष्ट है । क्योंकि दुख और वेदना से मुक्त होने के लिए श्रेष्ठ प्रज्ञा आ

दीपावली की शुभकामनाएँ

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दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ  असतो मा सदगमय  तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्मा अमृतं गमय  ॐ शांति ! शांति !! शांति !!! Let the festival of lights lead us from falsehood to Truth! From darkness to Light! From death to Eternal Life! Let there be Peace Everywhere to Everyone at Every moment! Wishing you & your family A Happy & Enlightening  Deepavali!

संग्राम और युद्ध

एक पुराना शब्द है संग्राम । शब्दकोश में इसका अर्थ मिलेगा - युद्ध । लेकिन इसका उत्पत्ति अर्थ है : दो गाँवों की सीमा, दो गाँवों को अलग करने वाली रेखा । यह शब्द युद्ध का पर्यायवाची शायद इसलिए बन गया, क्योंकि जहाँ  सीमा है वहाँ युद्ध भी है । ओशो कहते हैं : "जहाँ सीमा है वहाँ युद्ध भी हैं । जहाँ दो आदमियों के बीच सीमाएँ हैं, वहाँ युद्ध भी है । प्रेम की दुनिया तो उस दिन बन सकेगी, जिस दिन राष्ट्र की कोई सीमाएँ न हों । ...सीमाएँ हैं तो प्रेम की दुनिया नहीँ बन सकती ।"

गंदगी

गंदगी में पत्थर फैंकने से गंदगी के छींटे लौट कर स्वयं पर ही पड़ेगें ।

आत्मा और परमात्मा : एक या अनेक

सारे मनुष्य का अनुभव शरीर का अनुभव है, सारे योगी का अनुभव सूक्ष्म शरीर का अनुभव है, परम योगी का अनुभव परमात्मा का अनुभव है । परमात्मा एक है, सूक्ष्म शरीर अनंत हैं, स्थूल शरीर अनंत हैं । वह जो सूक्ष्म है, वह नए स्थूल शरीर ग्रहण करता है । हम यहाँ देख रहें हैं कि बहुत से बल्ब जले हुए हैं । विद्युत तो एक है, विद्युत बहुत नहीं है । वह ऊर्जा, वह शक्ति, वह एनर्जी एक है ; लेकिन दो अलग बल्बों में प्रकट हो रही है । बल्ब का शरीर अलग अलग है, उसकी आत्मा एक है । हमारे भीतर से जो चेतना झाँक रही है, वह चेतना एक है, लेकिन उपकरण है सूक्ष्म देह, दूसरा उपकरण है स्थूल देह । हमारा अनुभव स्थूल देह तक ही रुक जाता है । यह जो स्थूल देह तक रुक गया अनुभव है, यही मनुष्य के जीवन का सारा अंधकार और दुख है । लेकिन कुछ लोग सूक्ष्म शरीर पर भी रुक सकते हैं । जो लोग सूक्ष्म शरीर पर रुक जाते हैं, वे ऐसा कहेंगे कि आत्माएँ अनंत हैं । ॥(योगी)॥ लेकिन जो सूक्ष्म शरीर से भी आगे चले जाते हैं, वे कहेंगे परमात्मा एक है, आत्मा एक है , ब्रह्म एक है ।।(परम योगी)॥ मेरी इन दोनों बातों में कोई विरोध नहीं है । मैंने जो आत्मा के प्रवेश के

क्षणिकाएँ

सपने टूटे प्रेम टूटा भ्रम छूटा आदमी की परेशानी मकड़ी का जाल दम तोड़ा फंस कर आदत मजबूर लोग आदमी झगड़े वासना

सलिल वर्मा उर्फ चला बिहारी ब्लॉगर बनने

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जगमग अंदर में हिया , दिया न बाती तेल  परम प्रकासक पुरुष का, कहा बताऊं खेल  तुलसी की ये पंक्तियाँ संवेदनशील हृदय के स्वामी सलिल वर्मा जी के लिए हैं । सलिल वर्मा जी से परिचय चैतन्य आलोक के माध्यम से हुआ । पिछले वर्ष नवम्बर में मैं नागपुर से स्थानांतरित होकर चंडीगढ़ आया तो एक कवि सम्मेलन के लिए चैतन्य जी से कविता की कुछ पंक्तियाँ सुनी तो चैतन्य जी से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका । फिर उनकी (चैतन्य जी) प्रतिभा को देख ब्लॉग लिखने की सलाह दी । चैतन्य जी और सलिल जी दो अलग शहरों में रहते हुए भी प्रतिदिन विचारों का आदान-प्रदान करते रहते । कुछ महीनों में ही हमारे सामने सलिल जी और चैतन्य जी का "सम्वेदना के स्वर" ब्लॉग देखने को मिला और धीरे-धीरे मैं भी उनकी बातचीत में यदा-कदा शामिल होने लगा । थोड़े से समय बाद मुझे "उड़न -तश्तरी" बलॉग पर "चला बिहारी ब्लॉगर बनने" की टिप्पणी पढ़ने को मिली,...मैं इस बेनामी व्यक्ति से प्रभावित हुआ । कुछ महीनों तक मैं अक्सर चैतन्य जी से "चला बिहारी ब्लॉगर बनने" की टिप्पणियों की चर्चा करता रहा । तब मुझे यह कतई ज्ञात न

सोच और सृजन

व्यक्ति की वैयक्तिक सोच, जब तक सृजन में साकार नहीं हो जाती, तब तक उस व्यक्ति की वह सोच वायवीय समझी जाती है । एक पागलपन । - मनोज भारती 

लेखक और संवेदना

अनुभव प्रत्येक व्यक्ति के आस-पास घटित होते हैं, लेकिन लेखक की संवेदना ही उन अनुभवों को अभिव्यक्त करना जानती है । - मनोज भारती 

जीवन-संगीत

संगीत तुम्हारा गीत हमारा  आओ हम मिल कर खेलें  एक खेल ऐसा जिस में सुर हो हमारा तुम्हारा. जब सुर से सुर मिले  तो एक संगीत बने जीवन एक गीत है  जिसे सांसों के संगीत पर गाना है  सांस आती जाती है एक लय में  रास आती जाती है जिंदगी एक वय में खास बात होती है जिंदगी एक साथ में साथ सांसों सा हो, तो जिंदगी एक संगीत है .

कुछ मुक्तक

यूं तन्हाई में रहने की आदत तो न थी जमाने की बेवफाई ने तन्हाई में रहना सीखा दिया ------------------------------ एक सपना मैंने देखा जो मेरा अपना था वो ही बेगाना निकला सपना क्या अपना और क्या बेगाना ---------------------------------------- जानें क्यों उससे प्रीत लगाई रातें क्यों उसके लिए जगाई जाने क्यों वो दिल में समाई वो ही जाने ये तो .... मैं इतना ही जानूँ  कि प्रीत पराई .......................................................................................... जब जब मैं उसे देखूँ मेरी आँखों से कुछ रिसता हृदय की अतल गहराई में जा गिरता मैं मिटता, गिरता आनंदित पुलकित होता ....................................................................................................................

साहित्य क्या है

साहित्य का आनंद हर पढ़े-लिखे व्यक्ति ने जिंदगी में अपने-अपने ढंग से लिया ही है और जब कभी वह कुछ अच्छा पढ़ता है तो उसे दूसरों में बाँटने का भाव भी उसमें उमगता ही है । आपस में बांटने के लिए उस आनंद का कुछ ब्यौरा भी देना पड़ता है । उसे यह बताना पड़ता है कि जो अच्छा लगा वह क्या है और वह उसे क्यों अच्छा लगा । इस अच्छे लगने के पीछे शब्द और उसके अर्थ-ग्रहण का भाव निहित है ।  संस्कृत में एक शब्द है : वाङ्मय अर्थात भाषा में जो कहा गया या लिखा गया हो वह वाङ्मय है । वाङ्मय के अंतर्गत समस्त ज्ञान आ जाता है ।  वाङ्मय के दो भेद माने गए हैं : शास्त्र और काव्य । शास्त्र के अंतर्गत सभी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान- चाहे वे भौतिक विज्ञान हों या फिर समाज विज्ञान या मानविकी । लेकिन जिसे साहित्य कहा जाता है वह विशुद्ध रूप से काव्य है । यह काव्य साहित्य क्यों कहा जाने लगा, इसे समझ लेना चाहिए । संस्कृत में काव्य की प्राचीनतम परिभाषा है : शब्दार्थो सहितौ काव्यम । शब्द और अर्थ का सहित भाव काव्य है । इस परिभाषा में सहित शब्द इतना महत्वपूर्ण है कि कालांतर में यह सहित भाव ही साहित्य के रूप में काव्य के लिए स्वीकृत

जुंग के अनमोल विचार

खुशियों से सावधान रह ।  शांति ठीक वहां से शुरु होती है, जहां महत्त्वाकांक्षा का अंत हो । यदि यह जान लिया जाए कि परिग्रही अपनी प्रचुरता का कितना कम भोग-उपभोग कर पाते हैं, तो संसार से बहुत सी ईर्ष्या मिट जाए । ओ  इंसान ! अपने आप को जान; समस्त ज्ञान वहीं केन्द्रीभूत होता है । बादल चाहें पदवियां और जागीरें बरसा दें, दौलत चाहे हमें ढ़ूँढ़े, लेकिन ज्ञान को तो हमें ही खोजना पड़ेगा ।
व्यक्ति जितना अधिक मूल्यों के प्रति आस्थावान होता है, उसके जीवन में उतने ही अधिक कष्ट और कठिनाइयाँ आती हैं । कष्ट और कठिनाइयाँ अग्निपरीक्षा का काम करते हैं । - मनोज भारती 

अनुभव और आनंद

व्यक्ति संसार के अनुभवों की भट्ठी में जल कर ही आनंद रूपी कुंदन को प्राप्त होता है । - मनोज भारती

संबंध

मानवीय संबंध कभी नहीं टूटते, हमेशा व्यक्ति की अपेक्षाएँ टूटती हैं । इसलिए संबंध टूटते दिखाई पड़ते हैं । -मनोज भारती

अहंकार

अहंकार मनुष्य की नकारात्मक शक्ति है । जिसका बीज हर मनुष्य में होता है । आयु बढ़ने के साथ-साथ यह बीज अंकुरित,पल्लवित होता हुआ विकसित होता है । पर जब अहंकार अपने शिखर पर होता है, तो मनुष्य अपने जीवन के निम्नतम स्तर पर होता है । 

स्त्री और पुरुष

कोई पुरुष कभी भी किसी स्त्री से नहीं जीत सकता, क्योंकि पुरुष का उद्-गम स्त्री से है, उसे अस्तित्व में लाने वाली स्त्री है और पुरुष स्वयं अस्तित्व से बड़ा नहीं हो सकता । -मनोज भारती

चमार राष्ट्रपति

लिंकन अमेरिका का राष्ट्रपति हुआ । उसका बाप एक गरीब चमार था । कौन सोचता था कि चमार के घर एक लड़का पैदा होगा, जो मुल्क में आगे खड़ा हो जाएगा ? अनेक-अनेक लोगों के मन को चोट पहुँची । एक चमार का लड़का राष्ट्रपति बन जाए । दूसरे जो धनी थे और सौभाग्यशाली घरों में पैदा हुए थे, वे पिछड़ रहे थे । जिस दिन सीनेट में पहला दिन लिंकन बोलने खड़ा हुआ, तो किसी एक प्रतिस्पर्धी ने, किसी महत्वाकांक्षी ने, जिसका क्रोध प्रबल रहा होगा, जो सह नहीं सका होगा, वह खड़ा हो गया । उसने कहा, "सुनों लिंकन, यह मत भूल जाना कि तुम राष्ट्रपति हो गए तो तुम एक चमार के लड़के नहीं हो । नशे में मत आ जाना । तुम्हारा बाप एक चमार था, यह खयाल रखना ।" सारे लोग हँसे, लोगों ने खिल्ली उड़ाई, लोगों को आनंद आया कि चमार का लड़का राष्ट्रपति हो गया था । चमार का लड़का कह कर उन्होंने उसकी प्रतिभा छीन ली ।फिर नीचे खड़ा कर दिया । लेकिन लिंकन की आँखें  खुशी के आँशुओं से भर गई । उसने हाथ जोड़ कर कहा कि मेरे स्वर्गीय पिता की तुमने स्मृति दिला दी, यह बहुत अच्छा किया । इस क्षण में मुझे खुद उनकी याद आनी चाहिए थी । लेकिन मैं तुमसे कहूँ, मैं

संसार और दुनिया

संसार शब्द कब दुनिया शब्द के अर्थ में व्यवहार में आने लगा, मालूम नहीं । संसार शब्द का अर्थ दुनिया शब्द से नितांत भिन्न है । संसार शब्द का मूल अर्थ है : सम्यक् सार । अर्थात सार तत्त्व की बात । लेकिन दुनिया शब्द का अर्थ है : जहां दु का राज है अर्थात जहां द्वैत और द्वंद्व है । शायद नकली गुरुओं द्वारा सात्विक सार तत्त्व की बात को बहुत बार बिना अनुभव के दोहराया गया, तो द्वैत में जीने वालों ने संसार और दुनिया में अंतर करना छोड़ दिया और संसार शब्द भी दुनिया का पर्याय बन कर रह गया । - मनोज भारती

प्रेम और प्रार्थना

हेनरी थोरो अमेरिका का एक बहुत बड़ा विचारक हुआ । वह मरने के करीब था । वह कभी चर्च में नहीं गया था । उसे कभी किसी ने प्रार्थना करते हुए नहीं देखा था । मरने का वक्त था, तो उसके गाँव का पादरी उससे मिलने गया । उसने सोचा यह मौका अच्छा है, मौत के वक्त आदमी घबड़ा जाता है । मौत के वक्त डर पैदा हो जाता है , क्योंकि अनजाना रास्ता है मृत्यु का । न मालूम क्या होगा ? उस समय भयभीत आदमी कुछ भी स्वीकार कर सकता है । मौत का शोषण धर्मगुरु बहुत दिनों से करते रहे हैं । इसलिए तो मंदिरों, मस्जिदों में बूढ़े लोग दिखाई पड़ते हैं । पादरी ने हेनरी थोरो से जाकर कहा, क्या तुमने अपने और परमात्मा के बीच शांति स्थापित कर ली है ? क्या तुम दोनों एक दूसरे के प्रति प्रेम से भर गए हो ? हेनरी थोरो मरने के करीब था । उसने आंखें खोली और कहा, "महाशय, मुझे याद नहीं पड़ता है कि मैं उससे कभी लड़ा भी हूँ । मेरा उससे कभी झगड़ा नहीं हुआ तो उसके साथ शांति स्थापित करने का सवाल कहाँ है ? जाओ, तुम शांति स्थापित करो, क्योंकि जिंदगी में तुम उससे लड़ते रहे हो । मुझे तो उसकी प्रार्थना करने की जरूरत नहीं है । मेरी जिंदगी ही प्रार्थना थी

स्थिरता और परिवर्तन

स्थिरता का अनुभव किए बगैर परिवर्तन को समझना कठिन है । -मनोज भारती

पुस्तकें और ज्ञान

एक जिज्ञासु साधक था । वह ध्यान (झेन) साधना की तीव्र उत्कंठा से भरा हुआ था । वह जगह-जगह घूमा और ध्यान के संबंध में जितनी भी जानकारियाँ हो सकती थी, वे सब इकट्ठी कर ली । वर्षों तक उसने झेन का अध्ययन किया । हजारों किताबे उसके घर में इकट्ठी हो गई । उन किताबों को अनेकों बार वह पढ़ चुका था ।झेन के एक बड़े विद्वान के रूप में उसकी ख्याति भी हो गई । लोग दूर-दूर से उससे ध्यान के संबंध में जानने के लिए आने लगे । वह अनेक साधकों और जिज्ञासुओं के संपर्क में था । निरंतर ध्यान के संबंध में नई-नई विधियाँ ढ़ूँढ़ता और उन्हें आजमाता । अपने अनुभव को लिखता । अंतत: एक दिन उसे परम ज्ञान उपलब्ध हो गया ।  उस दिन उसने सब किताबों को आग लगा दी और घर से दूर कहीं चला गया ।  क्यों ???

सत्य और भ्रम

जानने से जो व्यर्थ हो जाए, वह भ्रम है । जानने से जो और भी सार्थक होने लगे, वह सत्य है । -ओशो

कूटनीति और सत्य

कूटनीति में सूक्ष्म अपराध छिपा रहता है । कूटनीति और सत्य का परस्पर गठबंधन नहीं हो सकता । जहां कूटनीति है वहां सत्य नहीं हो सकता । - मनोज भारती

सुधारना व स्वतंत्रता

दूसरे को सुधारने की कोशिश, उसकी स्वतंत्रता का हनन है । - मनोज भारती

एकाकी जीवन

कुछ व्यक्तियों के भाग्य में एकाकी जीवन लिखा रहता है ; ताकि वे समूह के लिए कुछ चिंतन, मनन कर सकें ।  -मनोज भारती 

गुटबंदी और ख्याति

निकम्मे लोग गुटबंदियों और हेराफेरी से सामयिक ख्याति शीघ्र प्राप्त कर लेते हैं । इसके विपरीत्त बुद्धिजीवी को ख्याति प्राप्त करने के लिए घोर संग्राम करना पड़ता है । - इलाचंद्र जोशी

मौन की साधना

मौन की साधना कभी आप स्वयं को एक एकांत कमरे में बंद करके चुपचाप बैठ जाइए और अपने अंदर झांकने की कोशिश कीजिए । आप वहां क्या पाते हैं ? एक असंगत विचारों की धारा । कभी आपको अपनी प्रेयसी का ख्याल आता है, तो कभी आप अचानक स्वयं को सफलता के लिए संघर्ष करते हुए दिखाई पड़ते हैं । आपका मन निरंतर पेंडूलम की तरह एक अति से दूसरी अति पर डोलता दिखाई पड़ेगा । कभी अतीत के झरोखों में तो कभी भविष्य के गर्भ में मन खो जाएगा । क्या इन विचारों की भीड़ में आपको स्वयं का चेहरा कभी दिखाई पड़ता है, जो स्वयं आपका अपना हो ? शायद नहीं । क्या कभी आपने स्वयं को पहचानने की कोशिश की है ? क्या आपके मन में जीवन के प्रश्न उठते हैं ? यदि हाँ, तो संभवत: आपको मौन होने की कला सीखनी चाहिए । मौन होने से अभिप्राय: मौन होने का अर्थ क्या है ? क्या जब आप अपने मुँह से कुछ नहीं बोल रहे होते हैं, तो क्या आप मौन में हैं ? या जब आप एकांत में बैठे हैं, तो क्या आप मौन हैं ? या जब आप दुसरों से मौखिक प्रतिक्रुया नहीं कर रहे, तब क्या आप मौन हैं ? मौन से आशय क्या है ? मौन से अभिप्राय: मन की उस दशा से है, जब मन में विचारों का कोई प्र

निष्फल प्रेम

निष्फल प्रेम जिंदगी में जितना कुछ दे जाता है, उतना सफल प्रेम नहीं । - मनोज भारती

विद्वान,पंडित और पुरोहित

विद्वान : विद्वान वह है जो द्वैत के भेद का ज्ञान रखता है । जो चीजों को टूकड़ों में तोड़-तोड़ कर समझता है और समझाता है । वह द्वैत का विज्ञानी होता है। बिरले ही विद्वान होते हैं जो अद्वैत का अनुभव रखते हैं ।  पंडित : पंडित शास्त्र का जानकार होता है लेकिन स्वयं का अनुभव रखे यह जरूरी नहीं । उसका ज्ञान उधार का ज्ञान होता है ।  पुरोहित : पुरोहित शास्त्र सम्मत विधि द्वारा  और  पूर्वजों के दिखाए मार्ग पर चलते हुए नागरिकों के हित के लिए यज्ञ आदि अनुष्ठान संपन्न करता है । पुरोहित को परम्परा निर्वाह में ही ज्ञान दिखाई पड़ता है । 

परिवार व एकता

जब एक ही परिवार में चारों वर्णों  के व्यक्ति पैदा हो जाएं, तो उस परिवार की एकता खतरे में पड़ जाती है । - मनोज भारती

स्त्री

पुरुष जितना स्त्री से सीख सकता है,उतना किसी और से नहीं । - मनोज भारती

दोस्ती

जब दो व्यक्तियों के बीच दो का भाव अस्त होता है, तो दोस्ती का उदय होता है । - मनोज भारती

भारत दुर्दशा

भारत गाँवों में बसता है । यह तथ्य आज भी उतना ही सही है जितना कि आजादी से पहले । अभी राजस्थान के कुछ गाँवों और एक दो छोटे शहरों में जाना हुआ । तो पाया कि शहरी और ग्रामीण जीवन में बहुत असमानताएँ हैं । भारत के बड़े शहरों में जन जीवन की सामान्य सुविधाएँ सरलता से उपलब्ध हैं । लेकिन गाँवों व छोटे कस्बों में जन जीवन को सामान्य सुविधाओं के लिए बड़ा श्रम करना पड़ता है । मैंने देखा कि गाँवों में पीने के पानी की समस्या आम है । खेतड़ी (ताँबे की खानों के लिए प्रसिद्ध) सिंघाना, नारनौल जैसे छोटे शहर में पानी की किल्लत है । घर के सदस्यों विशेषत: गृहणियों व बच्चों को सुबह-सुबह घर के बाहर पानी के लिए घंटों श्रम करना पड़ता है । सुबह-सुबह का यह नजारा हर घर को पनघट में बदल देता है । पानी बहुत कम समय के लिए आता है और वह भी अनियमित । छोटे बच्चे स्कूल जाने के बजाय पानी भरते नजर आते हैं । गाँवों में भी स्थिति ऐसी ही है । पानी की सप्लाई या तो बंद है या बहुत कम समय के लिए । पानी टैंकरों से मोल खरीदा जा रहा है । स्कूलों के लिए बने भवनों की हालत जर्जर है ,वहीं कुछ स्कूल खुले में भी चल रहें हैं । अध्यापकों की कमी

सोलह संस्कार

भारतीय संस्कृति में जीवन के विकास क्रम में सोलह संस्कारों की बहुत महत्ता है । ये संस्कार गर्भाधान से शुरु होकर अंत्येष्टि तक हैं । ये संस्कार परिवार द्वारा प्रवृत्त होते थे, परिवार की संस्था के साथ ही इनका आविर्भाव हुआ । परिवार वस्तुत: इन्हीं संस्कारों द्वारा संचालित था । ये सोलह संस्कार इस प्रकार हैं : 1. गर्भाधान : श्रेष्ठ संतान की इच्छा से यह संस्कार किया जाता है । पच्चीस वर्ष के पुरुष और सोलह वर्ष की स्त्री विवाह बंधन के बाद इस संस्कार के लिए पात्र होते हैं । जीवन के उद्देश्य को स्मरण करके, अपने आदर्शों के अनुकूल मनोदशा रख कर व उत्तम विचारों को धारण करते हुए, स्त्री-पुरुष संतानोत्पत्ति के लिए संसर्ग करें और बच्चे के लिए माँ गर्भ धारण करे । यही इस संस्कार का उद्देश्य है । 2.पुंसवन : गर्भ के तीसरे मास के भीतर गर्भ की रक्षा और बच्चे के उत्तम विकास के लिए यह संस्कार किया जाता है । इस संस्कार में स्त्री-पुरुष प्रतिज्ञा करते हैं कि वे कोई भी ऐसा कार्य मनसा,वाचा,कर्मणा नहीं करेंगे जिससे गर्भ में विकसित हो रहे बच्चे के विकास में बाधा पहुँचे । 3. सीमंतोन्नयन : यह संस्कार गर्भ के सातवें या