मौन की साधना








मौन की साधना

कभी आप स्वयं को एक एकांत कमरे में बंद करके चुपचाप बैठ जाइए और अपने अंदर झांकने की कोशिश कीजिए । आप वहां क्या पाते हैं ? एक असंगत विचारों की धारा । कभी आपको अपनी प्रेयसी का ख्याल आता है, तो कभी आप अचानक स्वयं को सफलता के लिए संघर्ष करते हुए दिखाई पड़ते हैं । आपका मन निरंतर पेंडूलम की तरह एक अति से दूसरी अति पर डोलता दिखाई पड़ेगा । कभी अतीत के झरोखों में तो कभी भविष्य के गर्भ में मन खो जाएगा । क्या इन विचारों की भीड़ में आपको स्वयं का चेहरा कभी दिखाई पड़ता है, जो स्वयं आपका अपना हो ? शायद नहीं । क्या कभी आपने स्वयं को पहचानने की कोशिश की है ? क्या आपके मन में जीवन के प्रश्न उठते हैं ? यदि हाँ, तो संभवत: आपको मौन होने की कला सीखनी चाहिए ।

मौन होने से अभिप्राय:

मौन होने का अर्थ क्या है ? क्या जब आप अपने मुँह से कुछ नहीं बोल रहे होते हैं, तो क्या आप मौन में हैं ? या जब आप एकांत में बैठे हैं, तो क्या आप मौन हैं ? या जब आप दुसरों से मौखिक प्रतिक्रुया नहीं कर रहे, तब क्या आप मौन हैं ? मौन से आशय क्या है ?
मौन से अभिप्राय: मन की उस दशा से है, जब मन में विचारों का कोई प्रवाह नहीं होता । वहाँ एक शांति होती है । उस दशा में मन न तो सुख का अनुभव करता है और न ही दुख का । वह एक निर्वचनीय दशा होती है । वस्तुत: वह दशा आनंद की होती है । उस दशा में आप साक्षीत्व में होते हैं । यह दशा मन की शून्य अवस्था कहलाती है । इस दशा में आपका आपसे साक्षात्कार होता है । आप विशुद्ध रूप से जानते हैं कि आप कौन हैं । वहां आप घटनाओं के साक्षी तो बनते हैं, लेकिन उनसे स्वयं अस्पर्शित रहते हैं । आपकी स्थिति कमलवत हो जाती है । आप घटनाओं से उद्वेलित नहीं होते, क्योंकि आप जानते हैं कि घटनाएँ अलग हैं और आप अलग हैं ।

क्या यह इतना आसान है ?

आप संभवत: कभी खाली नहीं रहे । आप अपने घर (मन) के मालिक कभी नहीं बने । आपने दूसरों के विचारों से अपने घर (मन) को सजाया है । इसलिए आप अपने घर को ही नहीं जानते । इसलिए पहली नजर में संभवत: आपको लगे कि मौन होना केवल साधु, संन्नयासियों व तपस्वियों का काम है । संसार में रहते हुए ऐसा संभव नहीं । लेकिन यह विचार भी आपके मन की एक तरंग से ज्यादा नहीं है । कल्पना कीजिए एक ऐसे घर की जिसके मालिक ने अपने घर को सजाने के लिए इतना अधिक सामान एकत्रित कर लिया है कि उसके स्वयं के रहने के लिए घर में कोई जगह ही न बची हो । संभवत: हमने भी अपने मन को इसी प्रकार विचारों से भर लिया है और उसमें स्वयं हमारे लिए कोई जगह नहीं बची है और उनसे परे हम स्वयं को विचारों से रहित देखने की कल्पना भी नहीं कर सकते । क्या आप अपने घर में ऐसी वस्तु को रखना पसंद करेंगे, जिसे आप अपनी इच्छा से घर में प्रवेश तो दे सकें लेकिन अपनी इच्छा से उसे घर से बाहर न निकाल सकें । संभवत: नहीं ।

नहीं, यह कठिन नहीं है । लेकिन बाहर के प्रवाह के विपरीत्त अवश्य है । यदि आप वास्तव में ही अपने घर के स्वामी बनना चाहते हैं, तो सबसे पहले आपको अपने घर के अंदर आना होगा और वहां अपने रहने के लिए जगह खाली करनी होगी । नि:संदेह उधार के किरायेदार को घर से निकालना थोड़ा कठिन अवश्य होगा पर असंभव नहीं ।

तब आप क्या करें ?

आप चीजों को जाने अनजाने पसंद करते हैं । आपकी पसंद आपके मन में एक विशेष तरह का राग रखती है, यह राग ही संसार का बंधन बनता है । आपकी पसंद के कारण ही आपके विश्वास बनते हैं । कुछ विश्वास आप समाज, शिक्षा, संस्कृति से सीखते हैं । लेकिन यह सब आप नहीं हैं । आप इनके परे कुछ हैं जो इन सबको घटित होते हुए देखता है । यह देखने वाला तत्व ही महत्वपूर्ण है । वस्तुत: आपको इसे पाने के लिए कुछ करना नहीं है । बल्कि तटस्थ होकर यह देखना है कि आप क्या हैं और क्या नहीं हैं ? जो आप नहीं हैं उन चीजों को अपने से अलग हटा कर रख देना है । लेकिन पूरी ईमानदारी के साथ । इस प्रक्रिया में अगर आप बाहर मौन रहते हैं व अंदर तटस्थ रहते हैं तो धीरे-धीरे आप अपने अंदर अवकाश बनाने में सफल हो जाएंगे । आरंभ में आपको कुछ खालीपन लगेगा, लेकिन इस खालीपन से घबरा कर साधना मत छोड़े । आपका अपने तथाकथित विचारों से तादात्म्य टूटेगा । कई बार आप अपने को नितांत अकेला अनुभव करेंगे । बहुत बार आपको लगेगा कि आप लोगों की नजरों में पागल हो गए हैं, लेकिन वस्तुत: आप पागलपन से दूर की यात्रा पर होंगे । यदि आप निरंतर चीजों को बिना किसी हस्तक्षेप के देखते रहे, बिना किसी पक्षपात के, कि वे अच्छी हैं या बुरी तो एक दिन अवश्य ही मौन में चले जाएंगे । 

टिप्पणियाँ

  1. स्वामी मनोज भारती जी
    आपने ओशो दर्शन की नितांत सारगर्भित बात कह दी.

    आसान नहीं है जन्मों-जन्मों की इस तृष्णा के पार जाना,पर एक साधक के लिये इस मालकियत के लिये प्रयासरत रहना, मौन को पहले क्षणॉ मे मगसूस करना और फिर यदि अस्तित्व का सहारा मिले तो और प्रगाण करना एक उपाय है.
    सहज पके सो मीठा होये..का भाव भी रहे और जीवन को होशपूर्ण बनाने की अलख भी जली रहे भीतर कहीं...हमारे प्रयासों पर जब अस्तित्व का प्रसाद बरसेगा तब ही असल मधुमास आयेगा जीवन का!

    आभार, मन के तार झझंकृत करने के लिये!!

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  2. स्थूल अर्थ में मानव सिर्फ वाणी के संयम को ही मौन मानता है, वो भी अपनी जगह ठीक है दरअसल स्थूल अर्थ को समझ कर पालन करना सूक्ष्म अर्थ की और बढ़ने वाला पहला कदम होता है
    जैसे मेरी कुछ बोलने की इच्छा हुयी और मैं नहीं बोला थोड़ी देर बाद मुझे लगता है की नहीं बोलने से फायदा ही हुया है, उस वक्त चुप रह कर मैंने मन को जीतने की पर पहला कदम भी बढ़ा दिया

    एक साधे सब सहे सब साधे सब जाए

    ज्ञानवर्धक लेख है ... thanks

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  3. ओशो के ज्ञानामृत में से एक और अकृत धारा आप प्रस्तुत किए हैं... अगर हम अपने मन के अंदर चल रहे सोर को कागज पर लिखना सुरू करें चाहे उसको रेकॉर्ड करने का सुबिधा हो तो तो उसको सुनकर चाहे पढकर हमको अपने ऊपर खुदे हँसी आएगा कि हम केतना बेकार का बात बतियाते हैं अपने अंदर... अगर आदमी निरंतर अपने अंदर का ई गंदगी दूर करता रहे त मौन उपलब्ध हो जाता है... बहुत ही गहरा ज्ञान है मनोज भाई… आपसे सुनकर और भी सांति मिल रहा है हमको..धन्यवाद स्वीकारें!!

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