पुस्तकें और ज्ञान

एक जिज्ञासु साधक था । वह ध्यान (झेन) साधना की तीव्र उत्कंठा से भरा हुआ था । वह जगह-जगह घूमा और ध्यान के संबंध में जितनी भी जानकारियाँ हो सकती थी, वे सब इकट्ठी कर ली । वर्षों तक उसने झेन का अध्ययन किया । हजारों किताबे उसके घर में इकट्ठी हो गई । उन किताबों को अनेकों बार वह पढ़ चुका था ।झेन के एक बड़े विद्वान के रूप में उसकी ख्याति भी हो गई । लोग दूर-दूर से उससे ध्यान के संबंध में जानने के लिए आने लगे । वह अनेक साधकों और जिज्ञासुओं के संपर्क में था । निरंतर ध्यान के संबंध में नई-नई विधियाँ ढ़ूँढ़ता और उन्हें आजमाता । अपने अनुभव को लिखता । अंतत: एक दिन उसे परम ज्ञान उपलब्ध हो गया । 

उस दिन उसने सब किताबों को आग लगा दी और घर से दूर कहीं चला गया । 

क्यों ???

टिप्पणियाँ

  1. बहुत अच्छी प्रस्तुति।

    हिंदी, नागरी और राष्ट्रीयता अन्योन्याश्रित हैं।

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  2. इतना ज्ञान प्राप्त करने के बाद उठ कर मानवता की सेवा में चल पड़ने के अतिरक्त और क्या रह जाता है. वहाँ पुस्तकीय ज्ञान की क्या आवश्यकता.

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  3. "Bikhare Sitare" se aap jude rahe.."In sitaron se aage 3",is post pe aapki shukrguzari ada kee hai..zaroor gaur karen..

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  4. नदी पार हो गयी तो नाव से क्या लेना देना बचा.
    हाँ, मै होता तो किताबें जलाता नहीं छोड़ देता, नदी पार होने पर नाव को डुबो देना ठीक नहीं लगता!

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  5. बुझाया होगा कि पुसतक ज्ञान सब बेकार है..वह तो अंदर ही था...

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