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सौंदर्य

अ ज्ञात के मौन आमंत्रण में सौंदर्य है । बाह्य लिपा-पोती कुरुपता को ढ़ांपने के लिए है । क्या सौंदर्य को भी बाह्य प्रसाधनों और सजने-संवरने की जरूरत होती है ? सौंदर्य शरीर का ही नहीं बल्कि उसके अंतस का भी होता है । कुछ लोग शारीरिक सौंदर्य के अहंकारवश अंतस सौंदर्य को खो देते हैं । सौंदर्य सदैव एक नवीन अहसास है । अनुभव है । प्रकृति में सौंदर्य प्रतिक्षण निखर रहा है । सौंदर्य को देखने के लिए संवेदनशीलता चाहिए । प्रकृति में सौंदर्य भरा पड़ा है । जिन्हें प्रकृति का यह सौंदर्य दिखाई नहीं पड़ता, उन्हें संवेदनशीलता पुन: प्राप्त करनी होगी । सौंदर्य का संबंध मन से है । जहां कहीं सौंदर्य का अभाव आरोपित किया जाता है, वहां कुरुपता दिखाई देती है । सौंदर्य अधिकार-भाव से मुक्त है । सुंदरता कभी अधिकारपूर्वक नहीं कहती - "मैं सुंदर हूँ ।" सौंदर्य आंतरिक भाव है । अंतस सजग है और वह क्षण प्रति क्षण जीना जानता है तो सर्वत्र सौंदर्य है । कृष्ण श्याम वर्ण हैं, फिर भी उनमें अद्भूत सौंदर्य है । वे जो हैं उसे पूर्णता से, सजगता से और सहजता से जीते हैं । अपने अंतस के अतिरिक्त वहां कुछ और होने का प्रयास या

सृजन

कवि की सुंदर कल्पना सृजन है ; क्योंकि उसके पीछे साधना का श्रम है । चित्रकार की कृति में सृजन है ; क्योंकि उसमें रंगने के लिए चित्रकार की पूरी तैयारी है । कृति और कृतिकार का अंतर मिट गया है । विध्वंशकारी गतिविधियों का मात्र एक ही हल है : सृजन । स्वयं को सृजनात्मक होने दो । अस्तित्व तुमसे तुमको मांगता है । यह तुम्हारी इच्छा है चाहो तो स्वयं को जीवित समर्पित करो, अन्यथा मृत्यु के रूप में तो वह तुमको तमसे छीन ही लेगा । अस्तित्व तुमसे सृजन चाहता है । इसलिए वह तुमसे समर्पण चाहता है - जीवित समर्पण । बिना समर्पित हुए अहम नहीं जाता और अहम के रहते हुए सृजन कहां । सृजन निर्भार करता है । सृजन असीम से जोड़ता है । सृजन सक्रिय और गतिमय है । सृजन तुमको तुमसे मिलाने में सहयोगी है । कार्य में तल्लीनता की चरम सीमा सृजन है । ध्यान की पूर्ण अवस्था में सृजनात्मकता का जन्म होता है । जो स्वयं को बचाये रखने का प्रयास करते हैं, वे अंतत: स्वयं को खो देते हैं और जो स्वयं को खोने के लिए, छोड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं, वे परमात्मा का सान्निध्य प्राप्त करते हैं ।

मानवीय संवेदना

आज होम्ज़ का एक वचन याद आ रहा है : - संसार के महान व्यक्ति अक्सर बड़े विद्वान नहीं रहते, और न ही बड़े विद्वान महान व्यक्ति हुए हैं । यह वचन जब पहली बार पढ़ा था, तभी मन-मस्तिष्क और अंतस ने इसे स्वीकार कर लिया था और जीवन-अनुभव में भी यह पाता हूँ कि जो विद्वान होने का दंभ भरते हैं; उनके पास पुस्तकों और शास्त्रों की स्मृतियाँ तो बहुत होती हैं, पर उनके पास वह संवेदना नहीं होती जो जीवंत सत्य को देख सके और उसके अनुरुप व्यवहार कर सके और न ही मुझे ऐसे विद्वानों में वो सनकीपन और जुनून ही दिखाई पड़ता जो महान लोगों में होता है । अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने एक बार मार्ग से गुजरते हुए एक बीमार सूअर को कीचड़ में फँसे हुए देखा और अपने अंतस की आवाज को सुन उसे बचाने कीचड़ में कूद उस सूअर को बाहर निकाल लाए । लोगों ने हैरानी से इसका सबब पूछा तो वे बोले - मैंने सूअर को बचा कर अपने ह्रदय की वेदना का बोझ दूर किया है । दुखियों को देखकर हमारे ह्रदय में जो टीस उठती है, उसी को मिटाने के लिए हम दुखियों का दु:ख दूर करते हैं । काश ! कुछ थोड़े से लोग भी अपने अंतस की आवाज़ के अनुसार जिएं और उसके साथ कभी समझौता न

धर्म

अपने अंतस को जान लेना और उसके अनुसार जीना धर्म है । धर्म आंतरिक अनुशासन-बद्धता का दूसरा नाम है । आंतरिक अनुशासन-बद्धता आ जाने से बाह्य अनुशासन स्वत: ही आ जाता है । धर्म ऋत है; जिसके कारण प्रकृति में संतुलन और लयबद्धता है । धर्म विश्वास नहीं है । धर्म एक साक्षात अनुभव है । जो हर ह्रदय में धारणीय है । जिससे ह्रदय के तार झंकृत हो उठते हैं और आत्मा नृत्य करने लगती है । यह नृत्य लय और ताल से आबद्ध है । धर्म अनेक नहीं हैं । धर्म अद्वैत की स्थिति है । जहां द्वंद्व नहीं, द्वैत नहीं, वहां धर्म है । प्रकृति भी धर्ममय है । प्रकृति का अपना आंतरिक अनुशासन है, जिसके कारण उसमें अद्भूत सौंदर्य है । वस्तुत: जहां अन्तस का प्रकाश है - वहां सौंदर्य है । धर्म का कोई संप्रदाय नहीं है । जहां संप्रदाय है, वहां धर्म नहीं है । धर्म एकांतिक अनुभव है ; जिसमें संपूर्ण ब्रह्मांड को जोड़ने की शक्ति है । धर्म मंदिर, मस्ज़िद, गुरुद्वारा में नहीं, वह तो सर्वत्र है । अपने ह्रदय को रिक्त करो और वह धर्म-कणों से आपूरित हो जाएगा ।

नीत्शे के बहाने

प्रसिद्ध दार्शनिक नीत्शे ने कहा है : विशाल जन-समूह निरे साधन हैं अथवा रुकावटें या नकलें हैं महान कार्य ऐसी सामूहिक हलचल पर निर्भर नहीं हुआ करते, क्योंकि सर्वोत्तम और सर्वश्रेष्ठ का भी जन-समूह पर कोई प्रभाव नहीं ! कितना सही कहा है । सर्वोत्तम और सर्वश्रेष्ठ हमेशा भीड़ से अलग अकेला खड़ा होता है और हर सफल इंसान सफल इस लिए होता है क्योंकि वह भीड़ से अलग कुछ विशेष रखता है । दूसरी ओर यह भी सच है कि सर्वोत्तम और सर्वश्रेष्ठ का भी जन-समूह पर कोई प्रभाव नहीं ! कितने लोग सर्वोत्तम और सर्वश्रेष्ठ रचनाएँ, फिर चाहे वे कलात्मक फिल्में हों या उत्कृष्ट साहित्य पसंद करते हैं । निश्चित ही सर्वोत्तम सर्वोत्तम को ही प्रभावित कर सकता है ।

दुश्मनी

कांटों से दुश्मनी करके कब किसने फूलों को पाया है

मौलिकता

समाधि की अवस्था में मानवीय चेतना से उपजा हर विचार मौलिक है । प्रेम - युक्त आलिंगन की मौन स्थिति मौलिक है। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं में मौलिक है । प्रत्येक क्षण मौलिक है । इच्छा रहित शांत चित्त मौलिक है । विचार रहित वर्तमान मौलिक है । फूल का खिलना मौलिक है । फूल का मुरझा कर गिरना मौलिक है । किसी पत्थर का तुम्हारे द्वारा उठाया जाना मौलिक घटना है । पत्थर स्वयं भी मौलिक है । अनुकरण रहित आचरण मौलिक है । ह्रदय का रुदन मौलिक है । किसी की बात को ठीक - ठीक उसी अर्थ में समझ लेना , जान लेना जैसा कि वक्ता के मन में है , एक मौलिक घटना है । स्वयं की अनुभूति मौलिक है । स्वयं की आह ! मौलिक है । आश्चर्य मौलिक है । जीवन मौलिक है ; मृत्यु मौलिक है । स्वयं का आविष्कार , खोज मौलिक है । स्वयं की भटकन जानना मौलिक है । पत्तों की खनखनाहट , वृक्षों की सांय - सांय , पक्षियों की चहचाहट , तारों की टिमटिमाहट , शशि का सौंदर्य , कामिनी की चंचलता मौलिक है । सद् - वचनों की अभिव्यक्ति जो

उनकी आँख -मिचौनी

क्यों तुम करती हो मेरे सम्मुख अभिनय कभी झूठ को सच साबित करने का तो कभी सच को झूठ साबित करने का यदि नहीं बचा है हमारे बीच कोई रिश्ता तो यह आँख-मिचौनी क्यों मुझसे भी क्या डरना जिसने कभी तुम्हारा बुरा चाहा नहीं यह मैं और मेरी रुह दोनों जानती हैं फिर क्यों नहीं कहती अपनी बात जैसी है तुम्हारे हिय में वैसी बात प्रिय-प्रियतम में यह अभिनय कैसा जब तक मुझे यूँ उलझाती रहोगी सच से सकुचाती रहोगी दुनिया से डरती रहोगी मुझे कभी न पा सकोगी मुझे पाना है तो दुई के पर्दे को हटा और तू जैसी है वैसी ही मेरे समक्ष आ जा !!! समझता हूँ नारी लज्ज़ा और अभिनय का फर्क अच्छी तरह से मैं मुझे मत उलझाओ इन झूठे वास्तों में जो कहना है स्पष्ट कह दो और बात खत्म करो

गुनाह-ए-मोहब्बत

मुझे तुमसे कितना प्रेम है इसका यकीं तुम्हें कैसे दिलाऊँ बस मैं तो इतना ही जानता हूँ कि इस दिल में बसा चेहरा तुम्हारा मुझे पुकार-पुकार कर बार-बार तुम्हारी याद दिला देता है - भुला दोगी मुझको यूँ तुम ये सोचा भी नहीं था कभी बदल देगा मेरा प्यार तुम्हें - मुझको तो यह पूरा यकीं था पर नहीं प्यार तुझको मुझे जब कहा तूने यह - तो तुम्हारी आंखों में कोई भाव न था जब तुम्हें मुझसे कोई प्यार नहीं है फिर भी मैं तुम्हें भूला नहीं पा रहा हूँ तो मैं जो तुम्हें इतना प्यार करता हूँ मुझे कैसे भूला सकती हो तुम ? मुझे भूलना इतना आसां तो नहीं क्योंकि मुझे मालूम है कि मैंने तुम्हें अपनी रुह से ज्यादा चाहा है और वह जानती है कि मेरी चाहत में कोई गुनाह नहीं है फिर यह कैसे हो सकता है कि तुम मुझे भूल जाओ और भूल जाओ वे क्षण जो शाश्वत थे ...शाश्वत हैं ... जब हमारे बीच कुछ घट रहा था जिसके गवाह हैं हम दोनों !

मनुष्य का जीवन

कहते हैं भगवान ने जब सृष्टि की रचना की और पृथ्वी पर जीवन की परिकल्पना की, तो सभी प्राणियों को ४० वर्ष की उम्र दी । मनुष्य को छोड़कर अन्य सभी प्राणी भगवान को अनुगृहीत भाव से धन्यवाद देकर पृथ्वी पर उतरने लगे । लेकिन असंतुष्ट मनुष्य की जब पृथ्वी पर जाने की बारी आई, तो उसने भगवान से प्रार्थना की कि २० साल की उम्र में तो शादी करुंगा और ४० साल की उम्र तक तो बच्चे भी बड़े नहीं होंगे और मेरे मरने की घड़ी आ जाएगी । इसलिए प्रभु से अनुरोध है कि मेरी उम्र बढ़ा दी जाए । भगवान ने मनुष्य के अनुरोध को स्वीकार करते हुए कहा कि, तुम अभी रुको, जिसे उम्र कम चाहिए होगी, उसकी उम्र मैं तुम्हें दे दूँगा । जब गधे की बारी आई, तो उसने भगवान से कहा कि मैं पृथ्वी पर ४० साल तक क्या करुँगा । उन्होंने कहा, बोझ उठाना और मनुष्य की सेवा करना । गधे ने प्रार्थना की कि मेरी उम्र २० साल कम कर दें, इतनी लंबी आयु का बोझ मैं कैसे उठाऊँगा । भगवान ने उसकी उम्र २० वर्ष कम करके शेष २० वर्ष की आयु मनुष्य को दे दी । मनुष्य ६० वर्ष की आयु से भी संतुष्ट न हुआ । आगे बारी आई कुत्ते की । उसने भी पूछा, मैं पृथ्वी पर ४० वर्ष तक क्या क

पहचान

सूर्य के प्रकाश के साथ आत्मा का चैतन्य हो तो मन का अंधकार मिटे सहज कर्म घटे परिश्रम से थकान न हो जीवन में ठहराव न हो व्यापार में हानि न हो संसार में शांति हो रात्रि के अंधकार के साथ दिन के परिश्रम से उपजा विश्राम हो तो मन में शांति हो तन में कांति हो धन में वृद्धि हो जन में सुबुद्धि हो प्रकृति ने दिया मनुष्य को वह सब जिस से वह बने महान आंखें दो, कान दो, मुँह एक ताकि - वह अधिक देखे, अधिक सुने और कम बोले लेकिन - कहां हैं वे आँखें - जो पहचान सकें प्रकृति के सच को कहां हैं वे कान - जो सुन सकें प्रकृति के नाद को बस एक मुँह है - जो बकता है और चरता है हरदम हे मानव ! उठ और पहचान अपनी प्रकृति को इससे पहले कि - काल तुझे अपने गाल में ले ले

आसान-कठिन : सीढ़ी दर सीढ़ी

पुस्तक खरीदना आसान है पढ़ना कठिन है पढ़ना आसान है समझना कठिन है समझना आसान है सोचना कठिन है सोचना आसान है चिंतन कठिन है चिंतन आसान है मनन कठिन है मनन आसान है मौन कठिन है मौन साधे सभी सधे !!!

सौंदर्य-परख

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर जी के जीवन की एक घटना । एक रात किसी पर्यटन स्थल पर नौका में सवार थे । किसी मित्र ने सौंदर्यशास्त्र (एस्थेटिक्स) पर एक बहुत बड़ा ग्रंथ उन्हें भेंट किया था । अपने बजरे में बैठकर दीये की रोशनी में उसे पढ़ते रहे । सौंदर्य क्या है ? इसकी परिभाषा क्या है ? यह कितने प्रकार का होता है ? और इसी तरह की विभिन्न चर्चाएँ ग्रंथ में विस्तार के साथ दी गई थी । जितना शास्त्र को पढ़ते गए, उतना ही यह ख़्याल भूलते गए कि सौंदर्य क्या है ? शब्द और शब्द, उलझन और उलझन ... सिद्धांत पर सिद्धांत बढ़ते जाते थे, तब आधी रात ऊबकर ग्रंथ को बंद कर दिया । आँख उठाकर बाहर देखा तो आश्चर्य चकित रह गए । बजरे की खिड़की के बाहर सौंदर्य बिखरा पड़ा था । पूरे चाँद की रात थी । आकाश से चाँदनी बरस रही थी । नदी की लहरें चाँदी हो गई थी । सन्नाटा और मौन दूर तक फैला था । दूर-दूर तक सब नीरव था । सौंदर्य वहां पूरा मौजूद था । तब उन्होंने सिर पीटा और स्वयं से कहा - सौंदर्य द्वार के बाहर मौजूद है और मैं उसे किताब में खोजता हूँ, जहां केवल शब्द ही शब्द हैं और कोरे सिद्धांत हैं । उन्होंने वह किताब बंद कर दी और बाहर फैले स

उसी से गर्म उसी से ठंडा : विरोधाभास

सर्दियों के दिन थे । कड़ाके की ठंड पड़ रही थी । गुरु और शिष्य यात्रा पर थे । सुबह-सुबह उठे तो ठंड से ठिठुरे जा रहे थे । गुरु ने सहसा अपनी दोनों हथेलियों को रगड़ना शुरु किया और उनमें मुंह से फूंक मारना शुरु किया । यह देख कर शिष्य ने गुरु से जानना चाहा- "गुरु जी ! आप हाथों को क्यों रगड़ रहें हैं और उसमें फूंक क्यों रहें हैं ?" गुरु ने कहा कि हाथों को रगड़ने और उसमें गर्म फूंक मारने से शरीर को ठंड नहीं लगती, इससे शरीर में गर्माहट आती है । कुछ देर बाद उन्होंने आग जलाई और उसमें खाने के लिए आलू भूने । गुरु ने आलू आग से निकाले । आलू अभी गर्म थे । आलू छीलना शुरु किया और मुंह से फूंक-फूंक कर उन्हें ठंडा करने लगे । शिष्य ने पूछा गुरु जी आप आलू में फूंक क्यों मार रहें हैं ? गुरु ने कहा फूंक कर आलू को ठंडा कर रहा हूँ । शिष्य ने पूछा, कुछ देर पहले आप फूंक कर अपनी हथेलियों को गर्म कर रहे थे और अब फूंक कर आलुओं को ठंडा कर रहे हो । यह कैसे संभव है कि उसी से गर्म और उसी से ठंडा ? गुरु ने कहा- "ऐसा ही है, जीवन में बहुत सी चीजों का स्वभाव गर्म या ठंडा हो सकता है, लेकिन उनका उपयोग हम कैसे करते

चेहरे पर चेहरे

जब दो व्यक्ति मिलते हैं शारीरिक रूप से दो होते हैं पर मानसिक रूप से छ: होते हैं कैसे- पहले व्यक्ति के तीन मानसिक चेहरे : एक वह जो वह वास्तव में है दूसरा वह जो वह स्वयं को समझता है तीसरा वह जो दूसरा व्यक्ति पहले व्यक्ति के बारे में समझता है इसी प्रकार तीन चेहरे दूसरे व्यक्ति के हो गए न दो के छ:

कोई ख़्याल कैसे आ जाता है ...

क्षण-प्रतिक्षण विचार आते रहते हैं मन में कोई ख़्याल कैसे आ जाता है मन में इन पर किसका बंधन है जितना ज्यादा पकड़ने लगता हूँ इनको उतने ही बढ़ते जाते हैं कोई ख़्याल कैसे आ जाता है मन में इन पर किसका बंधन है ढ़ूँढ़ता हूँ, खोजता हूँ, उत्स इनका पर ये बढ़ते ही जाते हैं कोई ख़्याल कैसे आ जाता है मन में इन पर किसका बंधन है जितना खोजता हूँ, उतने ही और और भांति-भांति के ख़्याल बढ़ते जाते हैं कोई ख़्याल कैसे आ जाता है मन में इन पर किसका बंधन है इनमें से कुछ विचार तो प्रतिक्रिया स्वरूप हैं जो अच्छा नहीं लगता मुझे उसकी एवज में कोई ख़्याल कैसे आ जाता है मन में इन पर किसका बंधन है कुछ विचार जो मुझे अच्छे लगते वे इकट्ठे होते जाते किसी बंद गहरी अंधेरी गुहा में कोई ख़्याल कैसे आ जाता है मन में इन पर किसका बंधन है जो विचार इकट्ठे होते जाते बंद गहरी अंधेरी गुहा में वे मेरा स्वरूप बनते जाते हैं कोई ख़्याल कैसे आ जाता है मन में इन पर किसका बंधन है लेकिन कौन है जो चुनता बिंदु-बिंदु इन विचारों को और अवसर पर उच्छाल देता गहरी अंधेरी गुहा से कोई ख़्याल कैसे आ जाता है मन में इन पर किसका बंधन है और कौन है जिसे अच्छा नही

ह्रदय का सूनापन

हरे भरे पेड़ों के बीच मैं आकर्षित होता हूँ उस पेड़ की ओर जो सूख कर ठूंठ हो गया है तारों भरे आकाश में मैं आकर्षित होता हूँ उस चाँद की ओर जो एकाकी पड़ गया है सुख- दुख से भरे इस संसार में मैं आकर्षित होता हूँ उस इंसान की ओर जो समानुभूति रखता है - ठूंठ हो गए पेड़ से एकाकी पड़े चाँद से और मेरे ह्रदय के सूनेपन से

अहंकार की परिणति

बूंद को समुद्र में अपनी सत्ता का विलय अच्छा न लगा । वह अपनी अहंता और पृथकता बनाए रखना चाहती थी । नदियों ने उसे इस विरक्तता से आगाह भी किया । पर वह मानी नहीं, और अलग ही बनी रही । तेज सूर्य किरणों में वह भाप बन हवा में उड़ गई और बादलो में खोने लगी । बादलों के साथ यह दोस्ती उसे रास नहीं आई । रात हुई और वह पत्तों पर ओस बनकर अलग-थलग पड़ी रही । धूप रोज निकलती, उसे ऊपर उठाती, पर उसे नीचे ही गिरना जो पसंद था । सर्प ने उस ओस को चाटा और विष में बदल दिया । जो न समुद्र बनते और न बादल अंतत: उन्हें विष में बदलना पड़ता है ।

प्रीत पराई

वो आए दिल पर दस्तख दी द्वार खुला था अंदर तक नि:संकोच चले आए ठहरे, पहचान बनाई, कहानी रची पर बाहर हरदम झांकते रहे किसी से बतियाते रहे किसी को जलाते रहे मासूम दिल पर जब उनके निशान बन गए उलटे पाँव बाहर निकल गए एक दर्द का रिश्ता देकर वो बाहर किसी सुलझे से उलझते गए हम भीतर जख्मों से उलझते रहे जिन्हें शिद्दत से पलकों पर नवाजा था वो आँसू बन कर पुतलियों से बह गए !