धर्म

धर्म शब्द आज बहुत ही दूषित हो गया है। धर्म के साथ जो चीजें जुड़ गई हैं,वे धर्म के बिलकुल विपरीत्त हैं। भारतीय संस्कृति का मूल धर्म ही है। बल्कि कहना चाहिए कि भारतीय संस्कृति का प्राण धर्म है। धर्म ही भारतीय संस्कृति के सभी मूल्यों व आदर्शों को निश्चित करता है।दूसरे देशों की संस्कृति में जहां भौतिक तत्त्व की प्रधानता है,वहीं भारतीय संस्कृति में धर्म की प्रधानता है। इसलिए वह आध्यात्मिक संस्कृति है। धर्म शब्द को परिभाषा में बांधना कठिन ही नहीं बल्कि दुष्कर है। धर्म शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की धृ धातु से हुई है। जिसका अर्थ है-'धारण करना'। इस प्रकार धर्म वह है जिसके धारण करने से व्यक्ति व्यष्टि से समष्टि से जुड़ जाता है।
धारणात् धर्ममित्याहु: धर्मो धारयति प्रजा: 
अर्थात् धारण करने वाले को धर्म कहते हैं; धर्म प्रजा को धारण करता है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि धर्म व्यक्ति ही नहीं धारण करता बल्कि स्वयं धर्म भी व्यक्ति को धारण किए हुए है। धर्म से व्यक्ति को और व्यक्ति को धर्म से अलग करके नहीं देखा जा सकता।

पंचतंत्र में धर्म की परिभाषा मनुष्य को अन्य जीवधारियों से अलग करने वाले तत्त्व के रूप में की गई है।खाना,सोना,भय और संतानोत्पति मनुष्य और पशुओं में एक समान है। इन क्रियाओं के करने में मनुष्य और पशु दोनों एक ही स्तर पर हैं। लेकिन धर्म मनुष्य को अन्य जीवधारियों से अलग करता है।यदि मनुष्य से धर्म तत्त्व को अलग कर दिया जाए तो मनुष्य और पशु में कोई अंतर नहीं है। पंचतंत्र का श्लोक उद्धृत है- 
आहारनिद्राभयमैथुनंच सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।
धर्मों हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीना: पशुभिर्समाना॥
वैशेषिक दर्शन के प्रणेता कणाद धर्म को वैशेषिक सूत्र में इस प्रकार परिभाषित करते हैं- 
यतोभ्युदयनि:श्रेयस सिद्ध: स धर्म:।
अर्थात् जिससे अभ्युदय(सांसारिक सुख) और नि:श्रेयस(आध्यात्मिक कल्याण)प्राप्त हो, वही धर्म है। धर्म का यह लक्षण स्पष्ट रूप से भौतिक और आध्यात्मिक पक्षों में समन्वय स्थापित करता है। निश्चित ही जो धर्म आध्यात्मिकता की ओर ध्यान न देकर केवल भौतिक उन्नति पर ही अपना ध्यान रखता है,वह एकांगी है और धर्म नहीं है।उसी तरह जो भौतिक समृद्धि को छोड़कर केवल आध्यात्मिकता की ओर ही अपना ध्यान रखता है, वह भी एकांगी है और धर्म नहीं है। धर्म वह है जो भीतर के सौंदर्य के साथ-साथ बाहर की समृद्धि में भी अभिवृद्धि करता है। इस प्रकार धर्म भौतिक और आध्यात्मिक पक्षों में समुचित समन्वय और सामंजस्य लाता है। 

धर्म और रिलीजन में अंतर है। धर्म शब्द को बहुत व्यापक अर्थ में लिया गया है। धर्म और रिलीजन एक नहीं हैं। दोनों शब्दों के अर्थों और प्रयोग में बहुत अंतर है। अंग्रेजी के रिलीजन शब्द का प्रयोग केवल बाह्य आचार और व्यवहार के लिए होता है। उसका अर्थ धार्मिक क्रिया-कलापों अर्थात पूजा-पाठ और कर्मकांड से लिया जाता है। लेकिन धर्म शब्द का प्रयोग यहीं तक सीमित नहीं है। धर्म शब्द में पश्चिम का कल्चर और सिविलाइजेशन समाहित है। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने तो सिविलाइजेशन के लिए धर्म शब्द को उपयुक्त माना है।स्पष्टत: धर्म रिलीजन नहीं है बल्कि इससे कहीं बृहतर और गहरा है।

मनुस्मृति में धर्म के चार स्रोत बताए गए हैं - श्रुति,स्मृति,सदाचार तथा जो अपनी आत्मा को प्रिय लगे। धर्म में सर्व का कल्याण निहित है। सर्व के कल्याण से इसमें नैतिकता,आदर्श और मूल्य समाहित हो गए हैं।गौतम ने अपने धर्मसूत्र में कहा है- 
अथाष्टा वात्मार्गुणा: दया सर्वभूतेषु: क्षान्तिरनसूया शौच मता मासौ मंगलमय कार्यण्य स्पृहेति।
अर्थात् सब प्राणियों पर दया, क्षमा,अनुसूया,शुचिता,अतिश्रम वर्जन,शुभ में प्रवृत्ति,दानशीलता तथा निलोभता, ये आठ आत्मगुण हैं अर्थात धर्म हैं।

उपनिषदों में कहा गया है कि धर्म समस्त विश्व का आधार है; क्योंकि इसके द्वारा व्यक्ति के आचरण की वे सभी बुराइयां दूर हो जाती हैं,जो विश्व कल्याण में बाधक हैं।

कौटिल्य ने धर्म को वह शाश्वत सत्य माना है जो सारे संसार पर शासन करता है। 

बौद्धधर्म के अनुसार अच्छाई तथा बुराई, सत्य और असत्य में धर्म ही अंतर स्पष्ट करता है।धर्म शासकों का शासक है, तथा यह विश्व में सबसे ऊँचा है।

मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षण बतलाए गए हैं। मनु ने लिखा है-
धृति: क्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्नियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्॥
अर्थात् धैर्य,क्षमा,संयम,चोरी न करना,आंतरिक व बाह्य शुद्धि,इन्द्रियों को वश में रखना,बुद्धि,शिक्षा,सत्य और क्रोध न करना धर्म के दस लक्षण हैं।

स्पष्टत: धर्म  व्यापक अवधारणा है। क्रिया और कर्म में मनुष्य को ऊँचा उठाने वाले सभी मानसिक क्रिया-कलाप धर्म में शामिल हैं। मनुष्य के पास विचारशक्ति है, जिसके द्वारा वह उचित-अनुचित में निर्णय कर सकने में सक्षम है। जहां कहीं उचित और अनुचित के बीच निर्णय का प्रश्न है,वहां उचित का मार्ग दिखाने वाला तत्व धर्म है। इस प्रकार धर्म आध्यात्मिक है। 

भारतीय संस्कृति में चारों पुरुषार्थों में धर्म को सबसे अधिक महत्व दिया गया है। कालिदास ने 'कुमार संभव' नामक महाकाव्य में धर्म को त्रिवर्ग अर्थात् अर्थ,काम और मोक्ष का सार कहा है।धर्म द्वारा ही भौतिक उन्नति और आध्यात्मिक अभ्युदय होता है। धर्म अन्य पुरुषार्थों का मूल है। महाभारत में धर्म को अर्थ और काम का स्रोत माना गया है - 
उर्ध्वबाहुर्विरौम्येष, न च कश्चित शृणोति मे।
धर्मादर्थश्च कामश्च, स किमर्थ न सेव्यते॥
अर्थात् मैं बाहों को उठाकर जोर-शोर से चिल्ला रहा हूँ, किंतु मेरी बात कोई नहीं सुनता। धर्म से ही अर्थ और काम प्राप्त होते हैं, फिर उस धर्म का किसलिए पालन नहीं किया जाता?

केवल महाभारत में ही नहीं बल्कि याज्ञवल्क्य स्मृति, विष्णुस्मृति और मनुस्मृति तथा अन्य धर्मशास्त्रों में भी पुरुषार्थों में धर्म को सबसे अधिक महत्त्व दिया गया है। जो अपने धर्म को छोड़ कर,अन्य का धर्म अपनाता है,धर्म उसका विनाश कर देता है। जो धर्म की रक्षा करता है,धर्म उसकी रक्षा करता है।- 
धर्म एको हतो हन्ति,धर्मो रक्षति रक्षितम्।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो धर्मो वधो वषीत्॥
 यहां अपने धर्म से अभिप्राय: स्वधर्म है जो विवेक से संचालित है। न कि कोई विशिष्ट रिलिजन यथा हिंदू।

गीता में भी धर्म के महत्त्व को स्वीकार किया गया है। गीता के अठारहवें अध्याय में कृष्ण अर्जुन को धर्म का महत्त्व बतलाते हुए कहते हैं- 
श्रेयान्स्वधर्मों विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम्॥
अर्थात गुण रहित होने पर भी स्वधर्म (जो अपना विवेक कहे)पालन करना अच्छा है,चाहे दूसरे का धर्म(विवेक) कितना भी अच्छा क्यों न हो। यदि मनुष्य अपने धर्म का पालन करता है तो वह पाप से बचा रहता है। 

गीता तो यहां तक कह देती है कि अपने धर्म(स्वविवेक) के पालन के लिए प्राण भी गवां देना दूसरे के धर्म(किसी अन्य की समझ से चलने से)पालन से अच्छा है, क्योंकि दूसरे का धर्म भयावह (अपरिचित) है।
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मों भयावह:
धर्म के इस महत्त्व को पुराणों में भी स्वीकार किया गया है। पुराणों का कहना है कि अधर्मी (अपने विवेक से च्युत) पुरुष यदि काम और अर्थ संबंधी क्रियाएं करता है तो उसका फल बांझ स्त्री के पुत्र जैसा होता है अर्थात् उनसे किसी प्रकार के कल्याण की सिद्धि नहीं होती।

हमें धर्म के वास्तविक अर्थ को समझना चाहिए और इसे गलत संदर्भों में इस्तेमाल करते हुए इसके अर्थ को विकृत और प्रदूषित नहीं करना चाहिए।


टिप्पणियाँ

  1. मैं तो जीवन और समाज में अपनाए जाने वाले कोड ऑफ कन्डक्ट को धर्म मानता हूं।

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  2. धर्म की बड़ी सुन्दर व्याख्या की है आपने.. धर्म को दूषित करने में उसके साथ लगे विशेषण का बड़ा योगदान है.. यथा- हिंदू धर्म, इसलाम धर्म, ईसाई धर्म... ये विशेषण ही कारन हैं अहंकार के जिनके वशीभूत हो मेरा धर्म तेरे धर्म से श्रेष्ठ जैसी भावनाएं विक्सित हुयी!!
    बहुत सुन्दर प्रसतुति!!

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  3. आपने धर्म की व्याख्या देने में कोई कसर नहीं छोड़ी. लेकिन लोग अपने जीवन में उसे क्या समझने हैं. ऊपर मनोज कुमार की टिप्पणी अच्छी लगी. मैं योग के अंतर्गत व्याख्यायित यम-नियम को सब से अच्छा धर्म मानता हूँ.
    सुंदर और बढ़िया आलेख.

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  4. धर्म के वास्तविक स्वरूप पर शानदार लेख !
    पंथ और धर्म का भेद जब तक नहीं समझा जायेगा, हमारे देश की बहुत सी समस्याओं का निवारण नहीं होगा।

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  5. dharm ko sundar dhang se paribhashit kar saarhtak prastuti ke roop mein prastut karne hetu aabhar!

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  6. अच्छी व्याख्या की आपने धर्म की । मानवता ही धर्म है, इसे प्राप्त करने से देवत्व आ जाता है । बहुत अच्छी पोस्ट ।

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  7. बेहतरीन प्रस्तुति।
    शानदार अभिव्यक्ति,

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  8. ठीक यही बात "धर्म और religion " अलग हैं - यही केवलराम जी के एक पोस्ट में भी पढ़ी थी | सच कहा है आपने - "धारयति" शब्द से धर्म शब्द बना है |

    हम लोग "धर्म" को सिर्फ एक label बनाये बैठे हैं - उसे हम "धर्म" मानते ही नहीं |

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  9. जय श्री कृष्ण!!
    बहुत सुंदर भावाव्यक्ति!
    बदल जीने का ढंग गया, जो उसके रंग में रंग गया...
    जो वास्तविक है सब कुछ कृष्णमय ही तो है, शेष सभी मिथ्या है; माया है....
    तभी तो मीरा कहती है-
    पायो जी मैंने रामरतन धन पायो
    वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरू....
    सच, आपका ब्लॉग देख मन प्रसन्न हो गया!
    बहुत-बहुत साधुवाद!!

    बहुत-बहुत शुभकामनाएं...अल्लाह करे और हो जोर-ए-कलम ज्यादा...
    अब तो आपके ब्लॉग को बराबर देखना होगा!
    मेरी रचनाओं पर आपकी प्रतिक्रिया...अतिसुंदर! आपने जो हौंसला अफजाई की है उसके लिए तहे-दिल से आभार!

    आशा है आपका स्नेह यूँ ही आगे भी मिलता रहेगा!
    बहुत-बहुत शुभकामनाएं..
    सारिका मुकेश

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  10. बहुत ही सुन्दर विषय ! पढ़ कर मन शांति मिली १ बधाई !

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  11. Dlodimag par asar chod jane walee dharm kee uchit aur prabhavshalee vyakhya lagee .

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  12. धर्म की स्पष्ट व्याख्या के लिए आभार!

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  13. धर्म- सत्य, न्याय एवं नीति को धारण करके उत्तम कर्म करना व्यक्तिगत धर्म है । धर्म के लिए कर्म करना, सामाजिक धर्म है । धर्म पालन में धैर्य, विवेक, क्षमा जैसे गुण आवश्यक है ।
    शिव, विष्णु, जगदम्बा के अवतार एवं स्थिरबुद्धि मनुष्य सामाजिक धर्म को पूर्ण रूप से निभाते है । लोकतंत्र में न्यायपालिका भी धर्म के लिए कर्म करती है ।
    धर्म संकट- सत्य और न्याय में विरोधाभास की स्थिति को धर्मसंकट कहा जाता है । उस परिस्थिति में मानव कल्याण व मानवीय मूल्यों की दृष्टि से सत्य और न्याय में से जो उत्तम हो, उसे चुना जाता है ।
    अधर्म- असत्य, अन्याय एवं अनीति को धारण करके, कर्म करना अधर्म है । अधर्म के लिए कर्म करना भी अधर्म है ।
    कत्र्तव्य पालन की दृष्टि से धर्म (किसी में सत्य प्रबल एवं किसी में न्याय प्रबल) -
    राजधर्म, राष्ट्रधर्म, मंत्रीधर्म, मनुष्यधर्म, पितृधर्म, पुत्रधर्म, मातृधर्म, पुत्रीधर्म, भ्राताधर्म इत्यादि ।
    जीवन सनातन है परमात्मा शिव से लेकर इस क्षण तक एवं परमात्मा शिव की इच्छा तक रहेगा ।
    धर्म एवं मोक्ष (ईश्वर के किसी रूप की उपासना, दान, तप, भक्ति) एक दूसरे पर आश्रित, परन्तु अलग-अलग विषय है ।
    धार्मिक ज्ञान अनन्त है एवं श्रीमद् भगवद् गीता ज्ञान का सार है ।
    राजतंत्र में धर्म का पालन राजतांत्रिक मूल्यों से, लोकतंत्र में धर्म का पालन लोकतांत्रिक मूल्यों से होता है ।

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