हिंदू विवाह : एक संस्कार

हिंदू दर्शन में विवाह एक संस्कार के रूप में स्वीकृत है। भारत में प्राचीन समय से ही विवाह संबंधी अनेक प्रत्यय जैसे-परिणयन,उपयम,पाणिग्रहण आदि प्रचलित रहें हैं।इन प्रत्ययों में विवाह संस्कार के अनेक पहलू सम्मिलित हैं।

स्त्री-पुरुष के पारस्परिक संबंधों के लिए प्रत्येक समाज में कोई न कोई संस्थात्मक व्यवस्था होती है।जिससे परिवार बनता है। परिवार किसी समाज की आधारभूत इकाई है।यह स्त्री-पुरुष के संबंधों पर आधारित है।परिवार के निर्माण के लिए विवाह समाज द्वारा स्वीकृत एक मान्य संस्था है। दूसरे शब्दों में विवाह यौन संबंधों को स्थापित करने की एक सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवस्था है। इसी कारण भारतीय शास्त्रकारों ने विवाह तथा गृहस्थ जीवन को अत्यधिक महत्त्व दिया है। भारतीय दर्शन में मानव जीवन के चार पुरुषार्थों (धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष) में काम की पूर्ति हेतु विवाह का विधान है। इसी के द्वारा मनुष्य अपने पितृ-ऋण से मुक्त होता है।

समाजशास्त्री डॉ. कपाड़िया के अनुसार," हिंदू विवाह स्त्री-पुरुष के बीच धर्म के पालन की दृष्टि से एक ऐसा संस्कार है,जो जन्म-जन्मांतर के संबंधों की धारणा पर आधारित है।....हिंदू विवाह को इसलिए एक संस्कार माना जाता है क्योंकि यह तभी पूर्ण समझा जाता है,जब कुछ पवित्र मंत्रों द्वारा किन्हीं रीतियों का पालन करते हुए संपन्न हो।"

डॉ. पी.एन.प्रभु के अनुसार, "हिंदू विवाह मुख्यत: एक संस्कार और औपचारिकता है,जिसका होना गृहस्थ आश्रम में प्रवेश के लिए आवश्यक है।विवाह का अर्थ ही कन्या को वर के घर ले जाना है।"

मेनडोएक ने संसार के 250 समाजों में प्रचलित विवाह-प्रथा का तुलनात्मक अध्ययन किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि विवाह के तीन मुख्य उद्देश्य हैं-1. यौन संबंधी आनंद 2.आर्थिक सहयोग 3. बच्चों का पालन-पोषण। मेनडोएक ने विवाह के यौन संबंधी उद्देश्य को गौण बताया है। उसने आर्थिक सहयोग और बच्चों के लालन-पालन को प्रमुख माना है।उसने बहुत से उदाहरण रखे हैं जिनके द्वारा यह सिद्ध किया गया है कि यौन-संबंध को एक गौण स्थान पर रखा जा सकता है। कुछ समाज में पति और पत्नी को यौन संबंध के लिए पूर्ण स्वतंत्रता होती है।वे दूसरे के साथ भी यौन संबंध स्थापित रख सकते हैं। इसके विपरीत्त कुछ समाजों में पति-पत्नी का अन्य के साथ यौन संबंध रखना अवैध और अधार्मिक माना जाता है।परंतु सभी समाजों में आर्थिक सहयोग और बच्चे का पालन-पोषण करना विवाह का मुख्य उद्देश्य होता है;किंतु भारत में हिंदू विवाह के उद्देश्य एक भिन्न धरातल पर स्थित हैं।

हिंदू विवाह के उद्देश्य तथा आदर्श के बारे में धर्मशास्त्रों में अनेक मतों की प्रतिस्थापना की गई है। ऋग्वेद के अनुसार विवाह का उद्देश्य गृहस्थ होकर देवों के लिए यज्ञ करना तथा संतान उत्पन्न करना है। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार,व्यक्ति,पति-पत्नी द्वारा गर्भ में पुत्र रूप में जन्म लेता है।इसी कारण स्त्री को जाया कहा गया है।शतपथ ब्राह्मण के अनुसार,व्यक्ति तब तक अपूर्ण है,जब तक कि विवाह करके संतान को जन्म नहीं देता।इसी कारण पत्नी को अर्धांगनी कहा गया है। मनुस्मृति के अनुसार संतानोत्पत्ति ,धर्म,आनंद,सेवा तथा पूर्वजों की स्वर्ग-प्राप्ति पत्नी पर निर्भर है।

इस प्रकार हिंदू विवाह के उद्देश्यों में तीन प्रमुख कारण लक्षित होते हैं :- 1. धर्म 2. प्रजा 3. रति । ये तीनों महत्ता के क्रम में रखे गए हैं। धर्म को सबसे प्रमुख माना गया है और रति को सबसे कम महत्त्वपूर्ण माना गया है। इनके बारे में विस्तार से हम अगली पोस्ट में चर्चा करेंगे। 


टिप्पणियाँ

  1. अच्छा आलेख. अगामी आलेख की प्रतीक्षा रहेगी.

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  2. विवाह की संस्था के विषय में शास्त्रीय और समाज्शात्रीय विचार पढकर अच्छा लगा. किन्तु आजकल जब ये सारी मान्यताएं भंग हो रही हैं, यह संस्था भी एक नए रूप में परिभाषित होने की कगार पर है. समाज में सम्मानित बिनब्याही माताएं और लिव-इन रिलेशनशिप जैसी मान्यताएं विवाह की संस्था के समक्ष चुनौती भले ही न खड़ी करें, परिभाषाओं को परिमार्जित करने को प्रेरित अवश्य करती हैं!!
    अच्छा आलेख!! चलते रहना चाहिए!!

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  3. Humaree sanskruti par prakash daalta ek accha aalekh Ha badlate parivesh me bahut kuch soch bhee badlee hai ise santhan ko ab vo maanyta nahee mil rahee hai par isase dushparinaam bhee saamne aae .
    sabhee bhoutik sukh ko hee maksad bana jindgee kee doud me dhavak ban gaye hai...:( aage bad rahe hai rishte ya to peeche rah gaye ya choot hee gaye hai.....ye hai aaj kee vidambana......

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  4. अच्छा समाजशास्त्री विवेचन मनोज भाई!

    विवाह एक सामाजिक व्यवस्था भर है।
    शुद्ध प्रेम को किसी संस्कार या बन्धन की दरकार नहीं।

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