जीवन-वीणा का संगीत

बुद्ध का एक शिष्य था-श्रोण। वह बड़ा राजकुमार था। वह संन्यासी हो गया। उसने बहुत भोग भोगा था। उसके पास बड़े महल थे। फिर जब वह संन्यासी हो गया,तब बुद्ध के भिक्षु पूछने लगे कि जिसके पास सब था,उसने सब क्यों छोड़ दिया? बुद्ध ने कहा-"तुमको पता नहीं है जिंदगी उलटी है। जिसके पास सब होता है,वे छोड़ने को उत्सुक हो जाते हैं। गरीब,अमीर होना चाहता है और अमीर,अमीर होने के बाद समझ पाता है कि गरीब होने का मजा कुछ और ही है। धनवान,धन से भागने लगते हैं और निर्धन,धन पाने की यात्रा करते हैं। अज्ञानी सोचते हैं कि ज्ञान मिल जाएगा तो न मालूम क्या मिल जाएगा और जो ज्ञानी हैं,वे ज्ञान छोड़कर अज्ञानी हो जाते हैं और कहते हैं-हम कुछ भी नहीं जानते! इस आदमी के पास बहुत था,इसलिए सब छोड़कर वह भाग रहा है।"
बुद्ध के भिक्षु कहने लगे- "लेकिन हमने सुना है कि यह तो फूलों के रास्तों पर चलता था और अब नंगे पैर कांटों के रास्ते पर चलना बहुत दुखद होगा।"
बुद्ध ने कहा- "तुमको कुछ भी पता नहीं। तुम तो कांटों से बचते हो,वह तो कांटों की तलाश करेगा।" और यही हुआ। वह जो बहुत सुंदर राजकुमार था,वस्त्र भी छोड़ दिए उसने। वह नंगा ही रहने लगा। दूसरे भिक्षु राजपथों पर चलते थे,वह पगडंडियों पर चलता,जिन पर कांटे और पत्थर होते। तीन महीने के भीतर उसके पैर पर घाव बन गए। दूसरे भिक्षु छाया में बैठते,श्रोण धूप में खड़ा रहता। दूसरे भिक्षु रोज भोजन करते,श्रोण दो-दो,तीन-तीन दिन बाद भोजन करता। दूसरे भिक्षु रात भर सोते,श्रोण ने सोना भी छोड़ दिया। उसकी सुंदर देह कुंभला गई। उसकी फूल-सी आंखें मुर्झा गई। उसके शरीर को पहचानना मुश्किल हो गया।
छह महीने बाद बुद्ध,श्रोण के पास आए। उन्होंने श्रोण को कहा- "जब तुम राजकुमार थे,तब वीणा बजाने में बहुत कुशल थे। तेरी वीणा की बड़ी कीर्ती थी। दूर-दूर के लोग तेरी वीणा सुनने के लिए बाहर खड़े रहते थे। दीवाल के पास भीड़ खड़ी रहती थी। एक बार मैं भी तेरी वीणा के स्वर सुनकर दो क्षण रुक गया था।" 
श्रोण ने कहा, "हां,याद आता है। पर किसलिए मेरी स्मृति को छेड़ते हैं?"
बुद्ध ने कहा-"मैं यह पूछने आया हूं कि वीणा के तार अगर बहुत ढ़ीले हों,तो क्या संगीत पैदा होता है?"
श्रोण हंसने लगा- "कैसी बात करते हैं आप! तार ढ़ीले होंगे तो संगीत कैसे पैदा होगा? ढ़ीले तार से कहीं संगीत पैदा हुआ है? संगीत पैदा कर लेना तो बहुत आसान है। लेकिन तार को उस जगह ले आना चाहिए,जहां से संगीत पैदा होता है। उस्ताद और कला-गुरु ही उसे जानते हैं। वीणा को उस हालत में ला देना,जहां से वीणा बजती है,बड़ी कला की बात है। तार ढ़ीले नहीं होने चाहिए।"
बुद्ध ने कहा- "अगर तार बहुत कसे हों तब?"
श्रोण कहने लगा- "तब तार टूट जाते हैं। तब संगीत पैदा नहीं होता।"
तो बुद्ध ने कहा- "तो तार कैसे होने चाहिए?"
श्रोण ने कहा- "उलझन में डाल दिया आपने। बड़ी कठिन बात है,उसे कहना मुश्किल है। तार ऐसे होने चाहिए- जो न कसे हों,न ढ़ीले हों। तारों की एक व्यवस्था है-न जब वे कसे होते हैं और न ढ़ीले होते हैं,बीच में होते हैं। उस बीच को साध लेना ही कला है।"
बुद्ध ने कहा- "मैं चला। मैं कहने आया था कि जिस तरह वीणा के मध्य में संगीत पैदा होता है,उसी तरह जीवन की वीणा के तार वैसे होने चाहिए, जो न बहुत कसे हों,न ढ़ीले। बहुत ढ़ीले तार थे तेरी जीवन वीणा के। अब तूने अपनी जीवन-वीणा के तार बहुत कस लिए। त्याग ही तेरा लक्ष्य हो गया है। जीवन-वीणा के तार ऐसे होने चाहिए कि न ढ़ीले हों,न कसे। बीच में तारों की एक अवस्था है। वहीं से जीवन का संगीत पैदा होता है। जीवन की कला का एक ही सूत्र है। दो विरोधों के बीच में अविरोध। दो तनावों के बीच में तनाव मुक्ति। दो अतियों के बीच में संतुलन।"
-ओशो

टिप्पणियाँ

  1. वीणा के तार हों या घड़ी की कुंजी.. अत्यधिक उमेठने पर कमानी टूट जाती है.. वीणा के सुर हों या घड़ी का नियमित चालन, न ढीला और न कसाव ही उचित है!!
    बहुत ही सुन्दर बोधि कथा!!

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  2. सबसे पहले हमारे पास जो है, उसके लिए संतोष का भाव होना चाहिए, और जो नहीं उसके लिए कोशिश होनी चाहिए। सिर्फ असंतुष्‍ट रहने का कोई मतलब नहीं है।

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  3. खरगोश का संगीत राग रागेश्री पर आधारित है
    जो कि खमाज थाट का सांध्यकालीन राग
    है, स्वरों में कोमल निशाद और बाकी स्वर शुद्ध लगते हैं, पंचम
    इसमें वर्जित है, पर
    हमने इसमें अंत में पंचम का प्रयोग भी किया है, जिससे इसमें राग बागेश्री भी झलकता है.
    ..

    हमारी फिल्म का संगीत वेद नायेर ने
    दिया है... वेद जी को अपने संगीत कि प्रेरणा जंगल
    में चिड़ियों कि चहचाहट से मिलती है.
    ..
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