सिद्धार्थ : हरमन हेसे का उपन्यास :: 2 ::

गतांक से आगे ...
लेकिन सिद्धार्थ स्वयं खुश नहीं था। अंजीर के बाग की गुलाबी पगडंडियों पर घुमते हुए,बनी की नीली छाया में बैठकर चिंतन-मनन करते हुए ,प्रायश्चित के दैनिक स्नान के दौरान अपने अंग धोते हुए, आचरण की पूरी गरिमा के साथ छायादार अमराई में हवन करते हुए,सबके प्रिय,सबकी प्रसन्नता के कारण होते हुए भी,उसके अपने हृदय में आनंद नहीं था। नदी की लहरों से,रात के आकाश में टिमटिमाते सितारों से,सूर्य की पिघलती किरणों से,सपने और बेचैन ख़याल बहते हुए उस तक आते। हवन के घुमड़ते हुए धुएं से,ऋग्वेद के मंत्रों और ऋचाओं से नि:सृत होकर,वयोवृद्ध ब्राह्मणों की शिक्षा से रिसते और टपकते हुए स्वप्न और आत्मा की उद्विग्नता उसे घेर लेती। 
सिद्धार्थ को अपने भीतर असंतोष के बीज महसूस होने लगे थे।  उसे एहसास होने लगा था कि उसके माता-पिता का स्नेह और उसके मित्र गोविंदा का प्रेम भी उसे हमेशा सुखी नहीं रख पाएगा,उसे शांति नहीं दे सकेगा, न उसे संतुष्ट और परिपूर्ण कर पाएगा। उसे इस बात का आभास होने लगा था कि उसके योग्य पिता और दूसरे शिक्षक,वे ज्ञानी ब्राह्मण अब तक अपनी शिक्षा का अधिकतर और सर्वोत्तम अंश उसे सौंप चुके थे,और उन्होंने पहले ही अपने ज्ञान का कुल जमा उसके प्रतीक्षारत पात्र में उंडेल दिया था; लेकिन उसका पात्र पूरा नहीं भर पाया था,उसकी मेधा संतुष्ट नहीं हुई थी,उसकी आत्मा संतुष्ट नहीं थी,उसका हृदय शांत थिर नहीं था। प्रक्षालन(स्नान)के कर्मकांड अच्छे थे,पर उनमें केवल जल था,वे पाप नहीं धोते थे,वे संतप्त हृदय को राहत नहीं पहुंचाते थे। बलियां व देवताओं से की गई प्रार्थनाएं सर्वोत्तम थी - मगर वही सब कुछ नहीं थी? क्या बलियां सुख का संचार करती थी? और देवताओं के संबंध में क्या? क्या सचमुच प्रजापति ने ही दुनिया बनाई थी? क्या केवल आत्मा ने ही उसकी सृष्टि नहीं की थी? क्या देवता मेरी और तुम्हारी तरह रचे गए रूप नहीं थे,मरणशील और क्षणभंगुर? तब क्या यह शुभ और उचित था , क्या देवताओं को बलि देना उपयुक्त व उचित था? तब सिवा उसके, आत्मा के, उस एकमात्र के, और किसको हम बलि अर्पित करें,किसके प्रति सम्मान जतलाएं? और फिर, यह आत्मा मिलेगा कहां, कहां था उसका निवास, कहां धड़कता था उसका शाश्वत हृदय - अगर वह नहीं था आत्मा के भीतर,अंतरतम में,उस शाश्वत में जो हर व्यक्ति लिए रहता था अपने अंदर? लेकिन यह स्व, यह अंतरतम कहां था आखिर? वह मांस और हड्डी नहीं था, वह विचार या चेतना नहीं था। यही सिखाया था ज्ञानी पुरुषों ने। तब कहां था वह? क्या कोई और रास्ता था जो खोजे जाने योग्य था, जिससे स्व की ओर,आत्मा की ओर बढ़ा जा सकता था? कोई वह रास्ता नहीं दिखाता था। किसी को उसकी जानकारी नहीं थी --न उसके पिता को, न गुरुओं को और न ही ज्ञानी पुरुषों को और न ही पवित्र भजनों में। ब्राह्मण और उनके पवित्र ग्रंथ सब कुछ जानते थे, सब : उन्होंने हर चीज को परखा था - संसार की सृष्टि,वाणी की उत्पत्ति,भोजन,श्वास-प्रश्वास,इंद्रियों की व्यवस्था,देवताओं के कृत्य। उन्हें असंख्य बातें ज्ञात थी --लेकिन इन सब चीजों को जानने का क्या मूल्य   था? अगर उन्हें वह एक महत्वपूर्ण चीज़ ज्ञात नहीं थी, वह एकमात्र महत्वपूर्ण चीज़?
पवित्र ग्रंथों के अनेक श्लोक,सबसे अधिक सामवेद के उपनिषद इस अंतरंग चीज़ की चर्चा करते थे। लिखा है -- "तुम्हारी आत्मा ही संपूर्ण विश्व है।" यह कहता है कि जब आदमी सोता है, तब वह अपने अंतस्तल को भेद कर आत्मा में निवास करता है। इन श्लोकों में आश्चर्यजनक ज्ञान था; ऋषियों का सारा ज्ञान यहां मधुमक्खियों द्वारा इकट्ठाठा किए गए शुद्ध शहद की तरह चित्ताकर्षक भाषा में उल्लेखित था। नहीं,ज्ञानी ब्राहमणों द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी इक्ट्ठा किए गए और सुरक्षित किए गए इस ज्ञान को आसानी से ओझल नहीं किया जा सकता। किंतु कहां थे वे ब्राह्मण,वे पुरोहित,वे विज्ञ जन जो इस ज्ञान,इस गहन पांडित्य को प्राप्त करने और सुरक्षित रखने में ही नहीं,बल्कि उसे अनुभव करने में भी सफल हुए थे? कहां थे वे दीक्षित-अभिमंत्रित व्यक्ति जो नींद के दौरान आत्मा को उपलब्ध हुए और उसे चेतनावस्था में,जीवन में,हर जगह, वाणी और कर्म में संजोये रख सकते थे? सिद्धार्थ बहुत से योग्य ब्राह्मणों से परिचित था, सबसे पहले उसके पिता- धर्मपरायण,ज्ञानी,प्रतिष्ठित,सम्मानित। उसके पिता प्रशंसा योग्य थे, उनका आचरण शांत व गरिमायुक्त था। वे अच्छा जीवन जीते थे। उनकी वाणी में ज्ञान था,उनके मस्तिष्क में ऊंचे और प्रकांड विचार रहते थे--लेकिन क्या वे भी,जो इतना जानते थे,आनंदपूर्ण जीते थे? क्या उनके भीतर शांति थी? क्या वे सतत अन्वेषी नहीं थे,कभी तृप्त न होने वाले? क्या वे लगातार न बुझनेवाली प्यास लिए उन पवित्र स्रोतों के पास नहीं जाते थे,यज्ञों व बलियों में हिस्सा लेने,धर्मग्रंथों का परायण करने,ब्राह्मणों और पंडितों के वाद-विवाद और धर्म चर्चा सुनने? जो निर्मल और निर्दोष है, उसे रोज नित्य-प्रति अपने पापों को क्यों धोना पड़ता और खुद को शुद्ध करना पड़ता? तो क्या उनके भीतर वह आत्मा नहीं था। क्या स्रोत उनके अपने हृदय के भीतर नहीं था? हमें खुद अपने अस्तित्व के भीतर उस स्रोत को खोजना चाहिए,हमें उसे पाना चाहिए। बाकी सब कुछ मात्र एक खोज थी -एक भटकाव, भूल।
यही थे सिद्धार्थ के मन में उठने वाले विचार,यही उसकी प्यास थी, उसकी वेदना व पीड़ा।     

टिप्पणियाँ

  1. मैंने फ़िल्म देखी थी, लेकिन उपन्यास नहीं पढ़ा था! सचमुच एक स्वर्गिक अनुभूति प्रदान करता है यह उपन्यास!! आभार उपन्यास उपलब्ध कराने के लिए!!

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  2. यह फिल्म देखी थी. बहुत ही सुंदर तरीके से फिल्मांकन किया गया था. आभार.

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