ईर्ष्या

सामने की दीवाल पर पड़ने वाली तेज धूप के कारण आंखें मिचमिचाती थी और लोगों के चेहरे भी कुछ अस्पष्ट दीखते थे । एक छोटी लड़की स्वयं ही मेरे पास आकर बैठ गई । यह सब क्या चल रहा है, इस कौतूहल से उसकी आंखें विस्फारित हो रही थी । शायद उसने अभी-अभी स्नान किया था और वह स्वच्छ वस्त्र पहने थी । उसके बालों में फूल भी लगे थे । बाल-स्वभाव के अनुरूप बहुत कुछ ध्यान में न रखने की चिंता न करते हुए, वह आसपास की सारी बातों का निरीक्षण कर रही थी । उसकी आंखों में अनोखी चमक थी । अब क्या किया जाए- रोए,हँसे कि उछल-कूद करे - उसे सूझ नहीं रहा था । संभवत: इसी कारण उसने सहज रूप से मेरा हाथ अपने हाथ में लिया और उसका अत्यंत ध्यानपूर्वक निरीक्षण करने लगी ।जल्दी ही वह आसपास के लोगों को भूल गई और मेरी जांघ पर सिर रखकर सो गई । उसका माथा सुंदर,सुडौल था और वह अत्यंत स्वच्छ और निर्मल थी । लेकिन उसका भविष्य कमरे में बैठे अन्य लोगों की तरह भ्रम और दुखमय था । भविष्य में उसके मन में पैदा होनेवाला संघर्ष और दुख सामने की दीवाल पर पड़ने वाले सूर्य-प्रकाश की तरह स्पष्ट है । क्योंकि दुख और वेदना से मुक्त होने के लिए श्रेष्ठ प्रज्ञा आवश्यक है । लड़की को भविष्य में जो शिक्षण मिलनेवाला है और जिन-जिन बातों का प्रभाव उस पर पड़ने वाला है,उसके कारण श्रेष्ठ प्रज्ञा का उदय उसमें कभी नहीं होने दिया जाएगा । यह साफ था । प्रीति - वह धूम्ररहित ज्योति- इस विश्व में कितनी विरल है । यह धुआँ ही सबको व्याप लेता है , दम घोटता है और ह्रदय में तीव्र वेदना तथा आंखों में दुख-अश्रु लाता है । इस धुएँ में वह ज्योति शायद ही दिखाई पड़ती है । और जब धुएँ को ही सर्वकष माहात्म्य प्राप्त होता है, (जब धूएँ को ही सब कुछ समझ लिया जाता है), तब तो ज्योति बुझ ही जाती है । यह प्रीति- ज्योति न हो तो जीवन का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता । वह निर्बुद्ध और उबाने वाला बन जाता है । लेकिन घने काले धुएँ में यह ज्योति रह ही नहीं सकती । धुएँ और ज्योति का एक जगह रहना संभव नहीं । धुएँ के बिलकुल नष्ट होने पर ही ज्योति का दर्शन होता है ।यह ज्योति उस धुएँ की प्रतिस्पर्धी नहीं होती , क्योंकि उसका कोई प्रतिस्पर्धी नहीं होता । धुएँ का अर्थ ज्योति नहीं है । धुआँ ज्योति को अपने में कभी भी समाविष्ट नहीं कर सकता । इसी तरह धुआँ ज्योति के अस्तित्व का निदर्शक भी नहीं हो सकता । क्योंकि ज्योति पूरी तरह धुम्ररहित होती है ।


वह स्त्री कहने लगी : प्रेम और द्वेष का एक जगह रहना क्या सम्भव ही नहीं है ? क्या ईर्ष्या भी वस्तुत: प्रीति की ही निदर्शक (पीठ) नहीं है ? एक क्षण में हम प्रीतिपूर्वक एक-दूसरे का हाथ पकड़ते हैं, और दूसरे ही क्षण एक-दूसरे से चिढ़ने लगते हैं । कभी हम रोष में आकर एक-दूसरे को चुभने वाले कठोर शब्द बोलते हैं और थोड़ी ही देर बाद एक-दूसरे का आलिंगन करने लगते हैं । कभी हम एक-दूसरे से जोरदार लड़ाई करते हैं और फिर एक-दूसरे का चुम्बन लेकर झगड़ा मिटा डालते हैं । ये सारे रूप क्या प्रेम के ही निदर्शक ( छीपे रूप) नहीं हैं ? ईर्ष्या होने लगना ही तो हमारी दृष्टि में प्रीति का निदर्शक है । प्रकाश और अंधकार की तरह प्रीति और ईर्ष्या भी एक ही जगह विचरती हुई दीखती हैं । एक क्षण में नाराज होना और दूसरे क्षण में सहलाना, यह अभिव्यक्ति क्या प्रीति की ही पूर्णता नहीं प्रकट करती ? नदी का स्वरूप कभी शांत रहता है तो कभी अशांत । वह प्रकाश में भी बहती है और अंधकार में भी । क्या इसी में नदी का सौंदर्य निहित नहीं है ? 

जिसे हम प्रीति कहते हैं, वह क्या चीज है, इसे देखें । ईर्ष्या होना, कामवासना जाग्रत होना, कठोर शब्द बोलना,सहलाना और हाथ में हाथ लेना, झगड़ा करना और उसे तत्काल मिटा डालना, --ये सारी घटनाएँ प्रीति के क्षेत्र की मानी जाती हैं । पहले नाराज होना और फिर सहलाना तो इस क्षेत्र की रोज की घटनाएँ हैं, हैं कि नहीं ? इन विभिन्न घटनाओं के संबंध जोड़ने का हम सदैव प्रयत्न करते रहते हैं । या हम एक घटना की दूसरी घटना से तुलना करते रहते हैं । इसी क्षेत्र की एक घटना की सहायता से हम दूसरी घटना को दोष देने लगते हैं अथवा समर्थन करने लगते हैं । अथवा इस क्षेत्र की एक घटना का संबंध बाहर की किसी घटना से जोड़ना चाहते हैं । हम प्रत्येक घटना का स्वतंत्र रूप से विचार करते ही नहीं । बल्कि अनेक घटनाओं में परस्पर संबंध ढूँढते हैं । हम ऐसा क्यों करते हैं ? वस्तुत: किसी घटना का आकलन करने के लिए, उसी क्षेत्र की दूसरी घटना की सहायता से, उस घटना को समझने का प्रयत्न करना कभी उपयोगी नहीं होता । क्योंकि ऐसा करने से भ्रम और संघर्ष ही उत्पन्न होते हैं । एक ही क्षेत्र की विभिन्न घटनाओं की परस्पर तुलना हम क्यों करते हैं ? एक घटना अगर अर्थपूर्ण है, तो उसकी अर्थपूर्णता की सहायता से दूसरी घटना का अर्थ लगाने का अथवा दूसरी घटना के विरोध में ही उसे खड़ी करने का प्रयास हम क्यों करते हैं ? 

आप क्या कर रहे हैं, इसका अर्थ कुछ-कुछ मेरी समझ में आने लगा है । लेकिन हम ऐसा क्यों करते हैं ? 

देखिए, किसी भी घटना का आकलन क्या कल्पना अथवा स्मृति के चश्में से हो सकता है ? एक-दूसरे का हाथ पकड़ते हैं, तो क्या आप ईर्ष्या की भावना को समझ सकेंगे ? वस्तुस्थिति यह है कि जैसे हाथ में हाथ लेना एक घटना है, वैसे ही ईर्ष्या भी एक घटना है । लेकिन एक दूसरे का हाथ पकड़ने की स्मृति आपके मन में है, इसलिए इसकी सहायता से ईर्ष्या की प्रक्रिया भी आपके ध्यान में आ जाएगी ,ऐसा थोड़े ही है । स्मृति की सहायता से क्या किसी भी बात का आकलन संभव है ? दो घटनाओं की तुलना करना,उनमें परिवर्तन करना, उनको दोष लगाना, उनका समर्थन करना अथवा उनसे एकरूप होना - ये सारी बातें स्मृति ही करती है । लेकिन किसी का भी यथार्थ  आकलन करा देना स्मृति के लिए बिलकुल संभव नहीं है ।  तथाकथित प्रीति के क्षेत्र की घटनाओं की ओर हम कल्पना के अथवा पूर्वनिश्चित निर्णयों के चश्में से देखते हैं । ईर्ष्या की घटना वास्तव में जैसी होती है,उसी रूप में उसका हम शांतिपूर्वक निरीक्षण नहीं करते । इसके बदले घटना की तरफ देखने का स्मृति द्वारा निर्मित जो ढ़ग है तथा उसमें से निष्पन्न होने वाले जो निर्णय हैं, उसके अधीन होकर हम उस घटना की ओर देखते हैं । क्योंकि उसके वास्तविक स्वरूप की के आकलन की सचमुच हमारी इच्छा ही नहीं होती । वस्तुत: ईर्ष्या की संवेदना भी प्रेम से सहलाने से उत्पन्न संवेदना जैसी ही उद्दीपक होती है  । लेकिन हम तो संवेदना के साथ-साथ अपने -आप आने वाले दुख और व्यग्रता से रहित संवेदना का उद्दीपन चाहते हैं । इसी लिए हम उसे प्रीति कहते हैं, उसके क्षेत्र में संघर्ष, भ्रम और विरोध प्रकट होते हैं । लेकिन क्या यही यथार्थ प्रीति है ? प्रीति कल्पना,संवेदना अथवा उद्दीपन कैसे है ? प्रीति का मतलब ईर्ष्या कैसे है ? 

लेकिन क्या सत्य भी माया से आवरित नहीं होता ? क्या अंधकार प्रकाश को आवरित नहीं करता, ढँक नहीं देता ? क्या ईश्वर भी बंधन में अटका हुआ नहीं है ? 

ये सब केवल कल्पनाएँ हैं, केवल मत हैं । इसलिए उनमें कोई यथार्थता नहीं है । ये कल्पनाएँ केवल वैर-भाव ही पैदा करती हैं । ये सत्य को आवरित भी नहीं कर सकती और उसे बाँधकर भी नहीं रख सकती । जहाँ प्रकाश होता है, वहाँ अंधकार नहीं रहता । अंधकार प्रकाश को ढँक नहीं सकता । अगर वह ढँक दे तो मानना होगा कि वहाँ प्रकाश था ही नहीं । जहाँ ईर्ष्या होती है, वहाँ प्रीति नहीं होती । कल्पना प्रीति को कभी आवरित नहीं कर सकती । किन्हीं भी दो बातों के पारस्परिक सुसंवाद के लिए आपसी रिश्ता आवश्यक है । प्रीति का कल्पना से कोई नाता नहीं । इसलिए कल्पना का प्रीति से सुसंवाद हो ही नहीं सकता । प्रीति धूम्ररहित ज्योति है । 


(जे.कृष्णमूर्ति की पुस्तक जीवन भाष्य ( Commentaries on living )से लिया गया एक अध्याय )

टिप्पणियाँ

  1. निहायत तात्विक दर्शन!
    परंतु अंत तक समझ नहीं पाया कि प्रीति माने क्या? प्रत्येक घटना को अकेले कैसे देखा जाये जब कि जीवन एक सतत घटना-क्रम है? जिन सम्बधों को हम देख रहें हैं, जी रहें हैं वह एक प्रक्रिया हैं उनमें एक मांग है।

    ज्योति और धुयें की तुलना करके यह समझना कि तुलना गलत है बिल्कुल भी पल्ले नहीं पड़ा।

    ANALOGIES, COMPARISON, PERSEPTION AND TESTIMONY, THESE ARE THE 4 TOOLS WE TAKE HELP TO UNDERSTAND THINGS.

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  2. मनोज जी! सीमों द बुवाँ ने एक जगह कहा है कि नारी चुँकि अपने पुरुष को सम्पूर्णता से प्यार करती है इसलिए उसकी हर नज़र उस एक नज़र में समाई रहती है जो वह किसी और की तरफ उठाता है. .. प्रेम और ईर्ष्या का सहअस्तित्व!
    एक फिल्मी गीत
    वो जिधर देख रहे हैं, सब उधर देख रहे हैं
    हम तो बस देखने वालों की नज़र देख रहे हैं.
    प्रेम की पराकाष्ठा और उस चोटी से च्यूत होने का भय!

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  3. ऐसा प्रतीत होता है कि ज्योति आत्मिक अवस्था है और धुँआ मन और विचार हैं. बहुत अच्छी पोस्ट.

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