प्रेम
प्रेम से बड़ी इस जगत में दूसरी कोई अनुभूति नहीं है । प्रेम की परिपूर्णता में ही व्यक्ति विश्वसत्ता से संबंधित होता है। प्रेम की अग्नि में ही स्व और पर के भेद भस्म हो जाते हैं और उसकी अनुभूति होती है, जो कि स्व और पर केअतीत है । धर्म की भाषा में इस सत्य की अनुभूति का नाम ही परमात्मा है । विचारपूर्वक देखने पर विश्व कीसमस्त सत्ता एक ही प्रतीत होती है । उसमें कोई खंड दिखाई नहीं पड़ते । भेद और भिन्नता के होते हुए भी सत्ताअखंड है । जितनी वस्तुएं हमें दिखाई पड़ती हैं और जितने व्यक्ति वे कोई भी स्वतंत्र नहीं हैं । सबकी सत्ता परस्परआश्रित है । एक के अभाव में दूसरे का भी अभाव हो जाता है । स्वतंत्र सत्ता तो मात्र विश्व की है । यह सत्यविस्मरण हो जाए, तो मनुष्य में अहम् का उदय होता है । वह स्वयं को शेष सबसे पृथक और स्वतंत्र होने की भूलकर बैठता है । जबकि उसका होना किसी भी दृष्टि और विचार से स्वतंत्र नहीं है । मनुष्य की देह प्रति-क्षण पंच भूतोंसे निर्मित होती रहती है । उनमें से किसी का सहयोग एक पल को भी छूट जाए तो जीवन का अंत हो जाता है । यहप्रत्येक को दृश्य है । जो अदृश्य है वह इसी भांति सत्य है । चेतना के अदृश्य द्वारों से परमात्मा का सहयोग एकक्षण को भी विलीन हो जाए तो भी मनुष्य विसर्जित हो जाता है । मनुष्य की यह स्वतंत्र सी भासती सत्ता विश्व कीसमग्र सत्ता से अखंड और एक है । इसीलिए अहंकार मूल पाप है । यह समझना कि मैं हूँ, इससे बड़ी और कोईनासमझी नहीं है। इस मैं को जो जितना प्रगाढ़ कर लेता है, वह उतना ही परमात्मा से दूर हो जाता है । यह दूरी भीवास्तविक नहीं होती । इसलिए इसे किसी भी क्षण नष्ट किया जा सकता है । यह दूरी वैसी ही काल्पनिक औरमानसिक होती है, जैसे कि स्वप्न में हम जहां वस्तुत: होते हैं , वहां से बहुत दूर निकल जाते हैं । और फिर स्वप्नके टूटते ही दूरी ऐसे विलीन हो जाती है, जैसे रही ही न हो । वस्तुत: परमात्मा से दूर होना असंभव है , क्योंकि वहहमारी आधारभूत सत्ता है । लेकिन विचार में हम उससे दूर हो सकते हैं । विचार स्वप्न का ही एक प्रकार है । जोजितने ज्यादा विचारों में है, वह उतने ज्यादा स्वप्न में है । और जो जितने अधिक स्वप्न में होता है, वह उतना हीअहम् केंद्रित हो जाता है । प्रगाढ़ स्वप्न शून्य निद्रा में चूँकि कोई विचार नहीं रह जाते । इसलिए अहम-बोध भीनहीं रह जाता । सत्ता तो तब भी होती है, लेकिन विश्वसत्ता से एक होती है । मैं का भाव उसे तोड़ता और खंडित नहींकरता । लेकिन गहन निद्रा में यह मिलन प्राकृतिक है । और इससे विश्राम तो मिलता है, परंतु परम विश्राम नहीं ।परमात्मा के सान्निध्य में पहुँच जाना ही विश्राम है । और मैं के सान्निध्य में आ जाना ही विकलता व तनाव है ।मैं यदि पूर्ण शून्य हो जाए, तो परम विश्राम उपलब्ध हो जाता है । परम विश्राम का ही नाम मोक्ष है । सुषुप्ति में एकप्राकृतिक आवश्यकता के निमित्त अहंकार भाव से अल्पकाल के लिए मुक्ति मिलती है । जीवन के लिए यहअपरिहार्य आवश्यकता है , क्योंकि किसी भी दशा की अशांत, उत्तेजनापूर्ण स्थिति को बहुत देर तक नहीं रखा जासकता । यही इस बात का प्रमाण है कि जो दशा सदा न रह सके वह स्वाभाविक नहीं है । वह आती है और जाती है। जो स्वभाव है,वह सदा बना रहता है । वह आता और जाता नहीं है । अधिक से अधिक वह आवृत हो सकता है ।अर्थात् जब हम अहम् से भरे होते हैं, तब हमारा ब्रह्म भाव नष्ट नहीं हो जाता है, अपितु मात्र ढक जाता है । जैसे ही मैंका तनाव और अशांति सीमा को लांघ जाता है, वैसे ही उस ब्रह्म भाव में पुन: अनिवार्य रूपेण हमें विश्रांति लेनी होतीहै । यह विश्रांति बलात् और अनिवार्य है । इसे हम स्वेच्छा से नहीं लेते हैं । यदि हम स्वेच्छा से मैं भाव से विश्रांतिले सकें तो अभुतपूर्व क्रांति घटित हो जाती है । मैं भाव से स्वेच्छा से विश्रांति लेने का सूत्र प्रेम है । क्योंकि प्रेम कीदशा अकेली दशा है, जब हमारी सत्ता तो होती है, किंतु उस सत्ता पर मैं भाव आरोपित नहीं होता । सुषुप्ति बलात्विश्राम है, प्रेम स्वेच्छित । इसीलिए प्रेम समाधि बन जाता है ।
( ओशो के विचारों पर केंद्रित)
( ओशो के विचारों पर केंद्रित)
bahut sunder lekh......
जवाब देंहटाएंaabhar.....
प्रेम कोई वस्तु नही पर स्वभाव है. अपने स्वभाव मे स्थित होकर ही प्रेम को जाना जा सकता है.
जवाब देंहटाएंमनुष्य के लिये आवश्यक है कि पहले अपने आस-पास प्रेम विकसित किया जाये, फिर धीरे धीरे उसे चारो ओर फैलने दिया जाये, इस विकास मे सहभागी बनकर हमारा प्रेम भी विकसित होता है. प्रेम हमारे भीतर की हार्मोनी है प्रेम कोई भीख नही है कि कोई दूसरा हमें देगा!
सम्वेदना के स्वर