हिंदू विवाह के निषेध

हिंदुओं में विवाह के कुछ निषेध निश्चित हैं। हिंदू अपने ही गोत्र और प्रवर में विवाह नहीं करते। आइए इस पोस्ट में यह जाने कि गोत्र और प्रवर क्या हैं? और अपने ही गोत्र और प्रवर में विवाह वर्जित क्यों माना गया है।

गोत्र : गोत्र के संबंध में धर्मशास्त्रों,सूत्रों में विभिन्न विचार मिलते हैं।सत्यपाठ हिरण्यकेशी श्रौतसूत के अनुसार-विश्वामित्र,जमदग्नि,भारद्वाज,गौतम,अत्रि,वशिष्ठ,कश्यप और अगस्त नामक आठ ऋषियों की संतान गोत्र कहलाती है।वैदिक साहित्य में गोत्र शब्द का प्रयोग गौओं की रक्षा के लिए बनाए गए बाड़े के रूप में किया गया है। मैक्समूलर भी इस धारणा को मानते हैं कि जिन लोगों की गायें एक ही स्थान(बाड़े में)पर बंधती थी,वे उस स्थान पर रहने वाले एक ही पूर्वज ऋषि की संतान समझे जाते थे,बाद में यह लोग एक ही गोत्र के सदस्य समझे जाने लगे। 

पाणिनि ने अपने एक सूत्र में पोते तक की संतान को गोत्र कहा है।

पतंजलि के महाभाष्य में कहा गया है कि ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले 80 हजार ऋषि हुए,किंतु उनमें से केवल आठ ऋषियों की संतान का प्रसार हो पाया। इसलिए इन्हीं आठ ऋषियों की संतान ही गोत्र कहलाती है।

मनुस्मृति के सबसे बड़े टीकाकार मेघातिथि ने लिखा है कि गोत्र का अर्थ यह नहीं है कि वे किसी विशेष समय में उत्पन्न हुए ऋषि की संतान हैं,बल्कि जैसे परम्परा के अनुसार कुछ को ब्राह्मण माना जाता है,वैसे ही गोत्र भी परम्परागत वंश का नाम है। 

विज्ञानेश्वर के अनुसार - वंश परम्परा प्रसिद्ध गोत्रम् अर्थात परम्परा में जो नाम प्रसिद्ध होता है,वह उस वंश का गोत्र कहलाता है। 

बोधायन ने गोत्र की संख्या करोड़ों में बताई है। मिताक्षरान्याय के अनुसार,गोत्र का अर्थ रक्त की निकटता है।

उपर्युक्त विचारों से निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि गोत्र शब्द का प्रयोग एक घेरे में रहने वाले तथा एक विशेष समूह के व्यक्तियों के लिए किया जाता है,जिनके वंशज एक ही थे। इस धारणा के अनुसार एक ही गोत्र में विवाह अर्थात सगोत्र विवाह वर्जित है,क्योंकि वस्तुत: वे एक ही वंश की संतान है। जो बाद में बहिर्विवाह की प्रथा का हेतु बन गया। इसलिए हिंदुओं में सगोत्र कन्या से विवाह का निषेध है। 

प्रवर : प्रवर शब्द वृञ वरणो से अथवा वृ धातु से बना है। वर का अर्थ है चुन लेना, प्र का अर्थ है विशेष रूप से; इस प्रकार प्रवर शब्द का अर्थ हुआ : विशेष रूप से (यज्ञ) के लिए चुन लिया गया। डॉ. पांडुरंग वामन काणे का कथन है कि यज्ञ करते समय पुरोहित कुछ प्रसिद्ध एवं यशस्वी ऋषियों को चुनकर उनके नाम से यज्ञ में आहुति देता था और प्रार्थना करता था कि मैं अग्नि में वैसे ही आहुति देता हूं जैसे भृगु ने दी थी, जैसे अंगिरा ने दी थी, अत्रि ने दी थी। इस प्रकार चुने गए प्राचीन ऋषि प्रवर कहलाने लगे। इस प्रकार प्रवर ऋषियों की संख्या निश्चित कर दी गई और यह संख्या 49 है।

वैदिक इंडेक्स के अनुसार प्रवर का अर्थ है: आह्वाह्न करना। 

डॉ. प्रभु के अनुसार, इंडो आर्यन लोगों में अग्नि-पूजा और हवन करने का प्रचलन था। हवन करते समय पुरोहित अपने प्रमुख और श्रेष्ठ,ऋषि पूर्वज का नाम लेते थे। इस प्रकार प्रवर के अंतर्गत एक व्यक्ति के उन पूर्वजों का समावेश है जो अग्नि का आह्वाह्न करते हैं। बाद में इसके साथ सामाजिक धारणा भी जुड़ गई और इन पूर्वज ऋषियों का महत्त्व अनेक अन्य घरेलू और सामाजिक संस्कारों में भी हो गया,जिनमें विवाह संस्कार प्रमुख है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि वे सभी व्यक्ति जो स्वयं को एक ही सामान्य ऋषि की संतान मानते हैं सप्रवर हैं; जिनके परस्पर विवाह वर्जित हैं। 

वस्तुत: प्रवर भी प्राचीन ऋषियों के नाम हैं। विज्ञानेश्वर के अनुसार केवल ब्राह्मणों के ही वास्तविक गोत्र व प्रवर होते हैं। क्षत्रिय और वैश्यों के गोत्र और प्रवर उनके पुरोहितों पर आश्रित होते हैं। शूद्रों के कोई प्रवर या गोत्र नहीं होते। पांडुरंग वामन काणे ने गोत्र और प्रवर का अंतर बतलाते हुए कहा है कि गोत्र उन ऋषियों के नाम हैं जो परम्परा द्वारा अनेक पीढ़ियों से किसी वंश या व्यक्ति के पूर्वज माने जाते हैं; परंतु प्रवर वे अत्यंत प्राचीन ऋषि हैं जो गोत्र चलाने वाले ऋषियों के पूर्वज थे। 

सगोत्र और सप्रवर विवाह हिंदु विचारधारा के अनुसार असामाजिक माना जाता है। हिंदू शास्त्रों, स्मृतियों और पुराणों से सगोत्र और सप्रवर विवाह वर्जित माने गए हैं। गौतम,वशिष्ठ और शंख धर्मसूत्रों का कथन है कि एक ही प्रवर के वर-कन्या का विवाह उचित नहीं। विष्णु,मनु तथा याज्ञवल्क्य स्मृतियों के अनुसार समान प्रवर के अतिरिक्त समान गोत्र रखने वाली कन्या से विवाह निषेध है। बोधायन के अनुसार, सगोत्र कन्या से विवाह करने पर चन्द्रायण नामक प्रायश्चित करना चाहिए। अपरार्क के अनुसार जानबूझ कर सगोत्र विवाह करने से व्यक्ति जातिच्युत हो जाता है और उसकी संतान चांडाल होती है। 

करन्दीकर के अनुसार, आर्यों ने इस प्रथा को अनार्य जातियों से ग्रहण किया; जो अपने टोटम से बाहर विवाह नहीं करते थे। अधिकांश लोगों का यह विचार है कि एक गोत्र और प्रवर में रक्त की निकटता होती है; इसलिए इसके दुष्परिणामों से बचने के लिए सगोत्र और सप्रवर विवाह वर्जित हैं।

अल्तेकर ने यह मत प्रकट किया है कि सगोत्र विवाह 600 ई.पू. नहीं मिलते हैं। वैदिक काल में गोत्र शब्द का प्रयोग दूसरे अर्थ में होता था। श्रीपाद डांगे ने तो यह सिद्ध किया है कि आर्य अपने गोत्र अथवा अग्नि से बाहर विवाह करने की बात ही नहीं सोच सकते थे। 

कुछ भी हो, आज विवाह में इन वर्जनाओं का उतना चलन नहीं रह गया है।

टिप्पणियाँ

  1. शास्त्र द्वारा निर्धारित वर्जनाओं का वर्णन जानकारी पूर्ण लगा. इन वर्जनाओं का उल्लंघन कर जिन्होंने विवाह किये हैं उनम्की संतानों में विकृति भी देखी गयी है और कुछ ऐसे उदाहरण मैंने स्वयं अपने आस-पास देखे हैं.
    बहुत अच्छी श्रृंखला है यह मनोज जी!

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  2. बहुत विस्तृत जानकारी से भरा आलेख. संग्रहणीय है.

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  3. मनोज जी

    जितना मुझे समझ में आया उसके हिसाब से एक ही सरनेम के लोग एक गोत्र के कहलायेंगे | किन्तु मै यु पी के वैश्य परिवार से हूँ और हमारे यहाँ तो एक ही सरनेम में शादिया की जाती है सरनेम के बाहर की गई शादियों को लोग पसंद नहीं करते है | यहाँ तक की हमरे यहाँ तो लगभग ७० से ८० % शादिया स्थानीय लोगो से ही होती है मतलब की उसी शहर में रह रहे समान सरनेम वाले से | जब मै ये गोत्रवाले विवाद सुनती हूँ तो मुझे जरा भी समझ नहीं आते है की इस विवाद को किस रूप में लू |

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  4. @अंशुमाला जी:
    सरनेम और गोत्र में अंतर है.. सरनेम जाती सूचक होते हैं... कई बार लोग अपने गोत्र के नाम को भी सरनेम की तरह प्रयोग करते हैं.. इसलिए समान सरनेम में विवाह का उद्देश्य मात्र सजातीय विवाह ही है. एक बार मेरे घर किसी औपचारिक मित्र ने अपने मित्र को विवाह के प्रस्ताव के साथ भेज दिया, मेरे छोटे भाई के लिए.. क्योंकि हम दोनों का सरनेम एक ही था "वर्मा". किन्तु बातचीत के क्रम में तुरत पता चल गया कि वे स्वर्णकार थे जबकि हम कायस्थ और इन दोनों जातियों में यह सरनेम प्रयुक्त होते हैं.
    इसपर विशेष टिप्पणी का अधिकार तो मनोज जी का ही है!!

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  5. सलिल जी

    नहीं हम सरनेम के साथ ही एक ही गोत्र के है | हम सभी बनिया वैश्य और कश्यप गोत्र से है ये तो मै जानती हूँ हम सभी जायसवाल ही है और जायसवाल में ही विवाह होता है वैश्य की दूसरी उपजातियो में भी विवाह का प्रावधान नहीं है, हा अब भले कुछ लोग वैश्य की दूसरी जातियों में विवाह कर रहे है | एक पिछड़ी जाती के लोग भी जयसवार सरनेम लिखते है किन्तु उसकी स्पेलिग़ थोड़ी अलग होती है | सर्फ़ हम ही क्या हमारे यहाँ तो ज्यादातर लोगो को ऐसे ही समान सरनेम में शादिया होती है | आप जिस समान सरनेम की बात कर रहे है वैसा हम लोगो में नहीं है मै जानती हूँ की राय , वर्मा , गुप्ता जैसे सरनेम कई वर्ण के लोग अपनाते है | उत्तर कोई भी देगा तो चलेगा मतलब तो इस बात को जानने से है |

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  6. अंशुमाला जी !!!
    यह जरुरी नहीं कि सरनेम व्यक्ति का आवश्यक रूप से गोत्र ही हो। बहुत बार व्यक्ति, जैसा सलिल जी ने कहा जाति सूचक या समुदाय सूचक शब्द को भी सरनेम की तरह इस्तेमाल करते हैं और आपने भी कहा कि आप वैश्य हैं और जायसवाल समुदाय से है और कश्यप गोत्र से हैं। यहां तीन चीजें हैं : 1)वैश्य या बनिया 2) जायसवाल 3) कश्यप । वैश्य एक बहुत बड़ा जाति सूचक वर्ग है। इस बनिया जाति में कई उप जातियां हैं जैसे अग्रवाल, गुप्ता, जायसवाल आदि । इन उपजातियों के नीचे और उप जातियां भी हो सकती हैं। जो सामाजिक स्तरीकरण के अंतर्गत हैं। समान या उच्च उप जातियों में अंतर्विवाह होते हैं और ये विवाह अच्छे समझे जाते हैं लेकिन निम्न उपजातियों में विवाह अच्छे नहीं समझे जाते। कश्यप, जैसा आपने कहा आपका गोत्र है, अब जायसवाल लोगों के अंदर यदि कश्यप गोत्र के साथ ही आपका विवाह हुआ है, तो यह सगोत्र विवाह हुआ। लेकिन सामान्यत: ऐसा नहीं होता।

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  7. विज्ञानेश्वर की बात माने तो केवल ब्राह्मणों के ही वास्तविक गोत्र व प्रवर होते हैं। क्षत्रिय और वैश्यों के गोत्र और प्रवर उनके पुरोहितों पर आश्रित होते हैं। शूद्रों के कोई प्रवर या गोत्र नहीं होते। इस प्रकार वैश्यों और क्षत्रियों के गोत्र उनके कुल पुरोहितों द्वारा निर्धारित किए गए हैं।
    अग्रवाल समाज के गोत्रों पर नजर डाले तो हम पाते हैं कि कश्यप ऋषि से कुप्छल, गोमिल ऋषि से गोयल, गार्गया ऋषि से गर्ग, गतुन ऋषि से गोयन या गोयनका, मितारय ऋषि से मित्तल, जेमिनो ऋषि से जिंदल, शांडलय ऋषि से सिंघल, वातसया ऋषि से बंसल, अरुवा ऋषि से ऐरण, कौशिक ऋषि से कंसल, धोम्या ऋषि से भंदल, तांडव ऋषि तिंगल, मानदेव ऋषि से मंगल, वशिष्ठ ऋषि से बिंदल, धनयास ऋषि से धारण, मुदगल ऋषि से मधुकुल , तितराया ऋषि से तायल, नागेन्द ऋषि नांगल आदि गौत्र बने हैं।

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  8. बहुत ही स्वस्थ विमर्श... अंशुमाला जी का आभारी हूँ कि उन्होंने (अपने स्वभावानुसार) अच्छी प्रस्तुति, जानकारीपूर्ण लेख आदि लिखाकर दायित्वा निर्वाह नहीं किया अपितु अपनी शंका भी लेखक के समक्ष रखी.. एक सुधि पाठक होने के नाते मैंने भी अपनी जानकारी या सामाय ज्ञान के आधार पर अपनी बात रखी, जिसे अंशुमाला जी ने सम्मान दिया. आभारी हूँ उनका. पुनः मनोज जी ने जिस तरह व्याख्या की वास सचमुच जानकारी पूर्ण ही नहीं तथ्यपरक भी है.. धन्यवाद मनोज जी!
    इस प्रकार के लेखों पर ऐसी चर्चाएं पोस्ट के औचित्य को प्रमाणित करती हैं!!
    मैं व्यक्तिगत रूप से आप दोनों, मनोज एवं अंशुमाला जी का आभारी हूँ!!

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  9. मनोज जी

    जानकारी के लिए धन्यवाद | हम वैश्य की उपजाति बनिया और उसकी उपजाति जायसवाल से है और इससे निचे कोई उपजाति नहीं होती है | जैसा आप ने बताया की अग्रवाल भी कश्यप गोत्र के ही होते है वो भी हमारी तरह ही बनिया है किन्तु उनमे भी हम लोगो में विवाह नहीं होता है गुप्ता सरनेम वालो से विवाह होता है किन्तु उन्ही से जो जायसवाल हो कर भी गुप्ता सरनेम लिखते है | जब से ये सगोत्र विवाह की बात सुनी थी तब से ही इस बारे में जानने की काफी इच्छा थी | मुझे खुद इस बात पर आश्चर्य होता था जब हिन्दू विवाह में ये निषेध है तो ये हमारे यहाँ कैसे होता है | पता नहीं ये कितनी पुरानी परम्परा है | संभवतः ये वैसा ही है जैसे दक्षिण में मामा और उसकी संतानों से विवाह की परम्परा है | जानकारी देने के लिए धन्यवाद |

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  10. सलिल जी

    डाइटिंग पर हूँ और दिवाली से पहले मीठे से परहेज कर रही हूँ :))

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  11. माना कि गोत्र समान है और सरनेम भी समान है पर कितनी पीढ़ी तक सगोत्र विवाह वर्जित है इसकी थोड़ी समालोचना की जाये तो बड़ी कृपा होगी। ऐसा माना जाता है कि 6 पीढ़ी के उपरान्त कुछ हद तक रक्त का कोई संपर्क न होने से सगोत्र विवाह को भी कतिपय विद्वानों ने स्वीकारा है। इसका क्या आशय है? क्योंकि मातृपक्ष से पांचवी पीढ़ी तक और पितृपक्ष से सातवीं पीढ़ी तक यदि कन्या का कोई सम्बंध न हो तो वह विवाह योग्य मानी जाती है। ऐसा स्मृतियों में कथन है।

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  12. माना कि गोत्र समान है और सरनेम भी समान है पर कितनी पीढ़ी तक सगोत्र विवाह वर्जित है इसकी थोड़ी समालोचना की जाये तो बड़ी कृपा होगी। ऐसा माना जाता है कि 6 पीढ़ी के उपरान्त कुछ हद तक रक्त का कोई संपर्क न होने से सगोत्र विवाह को भी कतिपय विद्वानों ने स्वीकारा है। इसका क्या आशय है? क्योंकि मातृपक्ष से पांचवी पीढ़ी तक और पितृपक्ष से सातवीं पीढ़ी तक यदि कन्या का कोई सम्बंध न हो तो वह विवाह योग्य मानी जाती है। ऐसा स्मृतियों में कथन है।

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  13. माना कि गोत्र समान है और सरनेम भी समान है पर कितनी पीढ़ी तक सगोत्र विवाह वर्जित है इसकी थोड़ी समालोचना की जाये तो बड़ी कृपा होगी। ऐसा माना जाता है कि 6 पीढ़ी के उपरान्त कुछ हद तक रक्त का कोई संपर्क न होने से सगोत्र विवाह को भी कतिपय विद्वानों ने स्वीकारा है। इसका क्या आशय है? क्योंकि मातृपक्ष से पांचवी पीढ़ी तक और पितृपक्ष से सातवीं पीढ़ी तक यदि कन्या का कोई सम्बंध न हो तो वह विवाह योग्य मानी जाती है। ऐसा स्मृतियों में कथन है।

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  14. माना कि गोत्र समान है और सरनेम भी समान है पर कितनी पीढ़ी तक सगोत्र विवाह वर्जित है इसकी थोड़ी समालोचना की जाये तो बड़ी कृपा होगी। ऐसा माना जाता है कि 6 पीढ़ी के उपरान्त कुछ हद तक रक्त का कोई संपर्क न होने से सगोत्र विवाह को भी कतिपय विद्वानों ने स्वीकारा है। इसका क्या आशय है? क्योंकि मातृपक्ष से पांचवी पीढ़ी तक और पितृपक्ष से सातवीं पीढ़ी तक यदि कन्या का कोई सम्बंध न हो तो वह विवाह योग्य मानी जाती है। ऐसा स्मृतियों में कथन है।

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