आध्यात्मिक विषयों पर केंद्रित यह ब्लॉग सत्य,अस्तित्व और वैश्विक सत्ता को समर्पित एक प्रयास है : जीवन को इसके विस्तार में समझना और इसके आनंद को बांटना ही इसका उद्देश्य है।
एक सनातन गूंज...जो गूंज रही है अनवरत...उसी गूंज की अनुगूंज यहां प्रतिध्वनित हो रही है...
संवेदना के इस दर्द को सृजन के इस मर्म को, क्या कभी समझेगा यह जमाना? ये हृदयहीन लोग पाषाण पुरुष कवि और चिन्तक की कराह पर, दिल की करुण आह पर वाह वाह करते है. फिर भी हौसला तो डेको अंडे पड़ें या टमाटर ये चिन्यक अपनी बात कहने से कब डरते हैं ?
संस्कृत के ‘भू’ धातु से बने शब्द ‘भव’ का अर्थ होता है ‘होना’ अर्थात ‘घटित होना’. यह एक निरंतर प्रक्रिया है. किंतु सिर्फ एक शब्द ‘अनु’, भले ही इसका अर्थ पीछे होता हो, एक उपसर्ग बनकर इस ‘भव’ को ‘अनुभव’ बना देता है. घटना जब तक बाहर हो रही है पराई है, किंतु एक ‘अनु’ के जुड़ जाने से ‘अनुभव’ किसी का निजी हो जाता है. और जब वह समाज से बाँटता है तो पूरे समाज का. मनोज जी! कितने सरल शब्दों में आपने एक अद्भुत अनुभव से दो चार किया.
बिहारी बाबू ...आप तो अनुभवों को सुंदर अभिव्यक्ति देते हैं अपने ब्लॉग पर, निश्चित रूप से यह आपकी लेखकीय संवेदना है; जिसकी बात मैंने इस विचार में की है । इस विचार का आप से बेहतर उदाहरण कौन हो सकता है ।
मनोज जी अब संसार तरक़्क़ी कर गया है , जैसे आत्मविश्वास के समानांतर कुटिल ढीठता चलती है , वैसे ही संवेदना के समानांतर छद्म ड्रामेबाज़ी भी ! बहरहाल , एक श्रेष्ठ विचार के लिए आप बधाई के पात्र हैं !
पूरी तरह सहमत हूँ आपसे ! शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंथोडा समय यहाँ भी दे :-
आपको कितने दिन लगेंगे, बताना जरुर ?....
ati sunder...
जवाब देंहटाएंसच संवेदना ही सृजन करती है. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंपूरी तरह सहमत हूँ
जवाब देंहटाएंसंवेदना के इस दर्द को
सृजन के इस मर्म को,
क्या कभी समझेगा यह जमाना?
ये हृदयहीन लोग पाषाण पुरुष
कवि और चिन्तक की कराह पर,
दिल की करुण आह पर
वाह वाह करते है.
फिर भी हौसला तो डेको
अंडे पड़ें या टमाटर
ये चिन्यक अपनी बात
कहने से कब डरते हैं ?
संस्कृत के ‘भू’ धातु से बने शब्द ‘भव’ का अर्थ होता है ‘होना’ अर्थात ‘घटित होना’. यह एक निरंतर प्रक्रिया है. किंतु सिर्फ एक शब्द ‘अनु’, भले ही इसका अर्थ पीछे होता हो, एक उपसर्ग बनकर इस ‘भव’ को ‘अनुभव’ बना देता है. घटना जब तक बाहर हो रही है पराई है, किंतु एक ‘अनु’ के जुड़ जाने से ‘अनुभव’ किसी का निजी हो जाता है. और जब वह समाज से बाँटता है तो पूरे समाज का.
जवाब देंहटाएंमनोज जी! कितने सरल शब्दों में आपने एक अद्भुत अनुभव से दो चार किया.
जी हाँ,
जवाब देंहटाएंसही कहा है आपने !
लेखक उसी अनुभव को शब्दों की माला में पिरोकर एक सुन्दर शब्दमाला बना देता है ।
नवरात्रों की ढेरों शुभकामनाएँ ।
सहमत हूँ आपसे...
जवाब देंहटाएंसंवेदनाएं हीं साहित्य का सृजन करती हैं...
सटीक बात ..
जवाब देंहटाएंबिहारी बाबू ...आप तो अनुभवों को सुंदर अभिव्यक्ति देते हैं अपने ब्लॉग पर, निश्चित रूप से यह आपकी लेखकीय संवेदना है; जिसकी बात मैंने इस विचार में की है । इस विचार का आप से बेहतर उदाहरण कौन हो सकता है ।
जवाब देंहटाएंमनोज जी
जवाब देंहटाएंअब संसार तरक़्क़ी कर गया है ,
जैसे आत्मविश्वास के समानांतर कुटिल ढीठता चलती है , वैसे ही संवेदना के समानांतर छद्म ड्रामेबाज़ी भी !
बहरहाल , एक श्रेष्ठ विचार के लिए आप बधाई के पात्र हैं !
शुभकामनाओं सहित
- राजेन्द्र स्वर्णकार