आत्मा और परमात्मा : एक या अनेक

सारे मनुष्य का अनुभव शरीर का अनुभव है, सारे योगी का अनुभव सूक्ष्म शरीर का अनुभव है, परम योगी का अनुभव परमात्मा का अनुभव है । परमात्मा एक है, सूक्ष्म शरीर अनंत हैं, स्थूल शरीर अनंत हैं । वह जो सूक्ष्म है, वह नए स्थूल शरीर ग्रहण करता है । हम यहाँ देख रहें हैं कि बहुत से बल्ब जले हुए हैं । विद्युत तो एक है, विद्युत बहुत नहीं है । वह ऊर्जा, वह शक्ति, वह एनर्जी एक है ; लेकिन दो अलग बल्बों में प्रकट हो रही है । बल्ब का शरीर अलग अलग है, उसकी आत्मा एक है । हमारे भीतर से जो चेतना झाँक रही है, वह चेतना एक है, लेकिन उपकरण है सूक्ष्म देह, दूसरा उपकरण है स्थूल देह । हमारा अनुभव स्थूल देह तक ही रुक जाता है । यह जो स्थूल देह तक रुक गया अनुभव है, यही मनुष्य के जीवन का सारा अंधकार और दुख है । लेकिन कुछ लोग सूक्ष्म शरीर पर भी रुक सकते हैं । जो लोग सूक्ष्म शरीर पर रुक जाते हैं, वे ऐसा कहेंगे कि आत्माएँ अनंत हैं ।॥(योगी)॥ लेकिन जो सूक्ष्म शरीर से भी आगे चले जाते हैं, वे कहेंगे परमात्मा एक है, आत्मा एक है , ब्रह्म एक है ।।(परम योगी)॥

मेरी इन दोनों बातों में कोई विरोध नहीं है । मैंने जो आत्मा के प्रवेश के लिए कहा उसका अर्थ है वह आत्मा जिसका सूक्ष्म शरीर गिर नहीं गया है । इसलिए हम कहते हैं कि जो आत्मा परम मुक्ति को उपलब्ध हो जाती है, उसका जन्म-मरण बंद हो जाता है । आत्मा का तो कोई जन्म-मरण है ही नहीं, वह न तो कभी जन्मी है और न कभी मरेगी । वह जो सूक्ष्म शरीर है वह भी समाप्त हो जाने पर कोई जन्म-मरण नहीं रह जाता है क्योंकि सूक्ष्म शरीर ही कारण बनता है नए जन्मों का । सूक्ष्म शरीर का अर्थ है हमारे विचार, हमारी कामनाएँ, हमारी वासनाएँ, हमारी इच्छाएँ, हमारे अनुभव, हमारे ज्ञान इन सबका जो संग्रहीभूत बीज है वह हमारा सूक्ष्म शरीर है , वही हमें आगे की यात्रा पर ले जाता है । लेकिन जिस मनुष्य के सारे विचार नष्ट हो गए, जिस मनुष्य की सारी वासनाएँ क्षीण हो गई, जिस मनुष्य की सारी इच्छाएँ विलीन हो गई, जिसके भीतर अब कोई भी इच्छा शेष न रही, उस मनुष्य को जाने के लिए कोई जगह नहीं बचती है, जाने का कोई कारण नहीं बचता । जन्म की कोई वजह नहीं रह जाती । 

राम कृष्ण के जीवन में एक अद्-भुत घटना है । रामकृष्ण को जो लोग बहुत निकट से परमहंस जानते थे उनको यह बात जानकर अत्यंत कठिनाई होती थी कि रामकृष्ण जैसा परमहंस, रामकृष्ण जैसा समाधिस्थ व्यक्ति भोजन के संबंध में बहुत लोलुप था । रामकृष्ण भोजन के लिए बहुत आतुर होते थे और भोजन के लिए इतनी प्रतीक्षा करते थे कि कई बार उठकर चौका में पहुँच जाते और पूछते शारदा को, बहुत देर हो गई, क्या बन रहा है आज ? ब्रह्म की चर्चा चलती और बीच में ब्रह्म चर्चा छोड़कर पहुँच जाते चौके में और पूछने लगते, क्या बना है आज और खोजने लगते । शारदा ने उन्हें कहा, आप क्या करते हैं ? लोग क्या सोचते होंगे कि ब्रह्म चर्चा छोड़कर एकदम अन्न की चर्चा पर आप उतर आते हैं  । रामकृष्ण हँसते और चुप रह जाते । उनके शिष्यों ने भी बहुत बार कहा कि इससे बहुत बदनामी होती है । लोग कहते हैं कि ऐसा व्यक्ति क्या  ज्ञान को उपलब्ध हुआ होगा, जिसकी अभी रसना, जिसकी अभी जीभ इतनी लालायित होती है  भोजन के लिए । एक दिन बहुत कुछ भला-बुरा कहा रामकृष्ण की पत्नी शारदा ने, तो रामकृष्ण ने कहा कि तुझे पता नहीं, जिस दिन मैं भोजन के प्रति अरुचि प्रकट करुँ, तू समझ लेना कि अब मेरे जीवन की यात्रा केवल तीन दिन और शेष बच गई । बस तीन दिन से ज्यादा फिर मैं बचूँगा नहीं । जिस दिन भोजन के प्रति मेरी उपेक्षा हो, तू समझ लेना कि तीन दिन बाद मेरी मौत आ जाएगी ।  शारदा कहने लगी इसका अर्थ ? रामकृष्ण कहने लगे, मेरी सारी वासनाएँ क्षीण हो गई , मेरी सारी इच्छाएँ विलीन हो गई, मेरे सारे विचार नष्ट हो गए, लेकिन जगत के हित के लिए मैं रुका रहना चाहता हूँ । मैं एक वासना को जबरदस्ती पकड़े हुए हूँ ; जैसे किसी नाव की सारी जंजीरे खुल गई हों और एक जंजीर से नाव अटकी रह गई हो और वह जंजीर भी टूट जाए तो नाव अपनी अनंत यात्रा पर निकल जाएगी । मैं चेष्टा करके रुका हुआ हूँ । किसी की समझ में शायद यह बात नहीं आई । लेकिन रामकृष्ण की मृत्यु के तीन दिन पहले शारदा थाली लगाकर उनके कमरे में गयी । वे बैठे हुए देख रहे थे । उन्होंने थाली देखकर आँखें बंद कर ली, और पीठ कर ली शारदा की तरफ । उसे एकदम से ख्याल आया कि उन्होंने कहा था कि तीन दिन बाद मौत हो जाएगी, जिस दिन भोजन के प्रति अरुचि करुँ । उसके हाथ से थाली गिर गई और पीट-पीट कर रोने लगी । रामकृष्ण ने कहा, रोओ मत । तुम जो कहती थी वह बात अब पूरी हो गई । ठीक तीन दिन बाद रामकृष्ण की मृत्यु हो गई । एक छोटी सी वासना को प्रयास करके वे रोके हुए थे। उतनी छोटी सी वासना जीवन यात्रा का आधार बनी थी । वह वासना भी चली गई तो जीवन यात्रा का सारा आधार समाप्त हो गया । जिसे तिर्थंकर कहते हैं, जिसे हम  ईश्वर पुत्र कहते हैं, जिसे हम अवतार कहते हैं, उनकी भी एक वासना शेष रह गई होती है और उस वासना को वे शेष रखना चाहते हैं करुणा के हित, मंगल के हित, सर्वमंगल के हित, सर्वलोक के हित । जिस दिन वह वासना भी क्षीण हो जाती है उसी दिन जीवन की यह यात्रा समाप्त और अनंत की अंतहीन यात्रा शुरु होती है । उसके बाद जन्म नहीं, उसके बाद मरण नहीं है , उसके बाद न एक है, न अनेक है । उसके बाद तो जो शेष रह जाता है उसे संख्या में गिनने का कोई उपाय नहीं । इसलिए जो जानते हैं वे यह भी नहीं कहते  कि ब्रह्म एक है, परमात्मा एक है । क्योंकि एक कहना व्यर्थ है जबकि दो की गिनती न बनती हो । एक कहने का कोई अर्थ नहीं जब कि दो और तीन नहीं कहे जा सकते हों । एक कहना तभी सार्थक है जब तक कि दो, तीन,चार भी सार्थक होते हैं । संख्याओं के बीच में ही एक की सार्थकता है । इसलिए जो जानते हैं वे यह भी नहीं कहते कि ब्रह्म एक है, वे कहते हैं ब्रह्म अद्वैत है, दो नहीं है, बहुत अद्-भुत बात कहते हैं । वे कहते हैं परमात्मा दो नहीं है । एक कहकर भी हम संख्या में गिनने की कोशिश करते हैं, वह गलत है । लेकिन उस तक पहुँचना दूर है, अभी तो हम स्थूल में खड़ें हैं, उस शरीर पर जो अनंत है, अनेक है । उस शरीर के भीतर हम प्रवेश करेंगे तो एक और शरीर उपलब्ध होगा, सूक्ष्म शरीर । उस शरीर को भी पार करेंगे तो वह उपलब्ध होगा जो शरीर नहीं है, अशरीर है, जो आत्मा है । 

 (शो की पुस्तक "घाट भुलाना बाट बिनु"  के जीवन और मृत्यु प्रवचन से उद्धृत एक प्रवचनांश )

टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुंदर उदाहरण दिया है इस पोस्ट में। महापुरुष जो भी करते हैं, उसके पीछे कुछ वजह होती है जिसे हम लोग अपनी अज्ञानता या अविश्वास के कारण नहीं समझ पाते।

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  2. आज कुछ नया सीखने को मिला ! आभार आपका !

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  3. एक जटिल विषय और उसपर ज्ञान का अभाव... यदि टिप्पणी में कोई ऊँच नीच हो गया तो अर्थ का अनर्थ हो सकता है... अतः मनीषियों के विषय पर मनीषियों के विचार पड्जने को मिलें तो धन्य समझूँगा स्वयम् को!!

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  4. उम्दा पोस्ट.........
    स्थूल देह तक रुक जाने का अनुभव ही..... मनुष्य के जीवन का सारा अंधकार और दुख है ....
    सही कहा ......

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  5. स्वमं को समाज के आइने में देखने के आदी हम, अभी तो अपने स्थूल शरीर को भी ठीक से नहीं जानते, फिर सूक्ष्म शरीर का प्रत्यक्ष ज्ञान... आत्मा स्वरूप का अनुभव .....परमात्मा में विलय ...

    ओशों का प्रवचन बहुत मधुर है!

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  6. आपका अध्यात्मिक आलेख अच्छा लगा ।

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