प्रीत पराई
वो आए
दिल पर दस्तख दी
द्वार खुला था
अंदर तक नि:संकोच चले आए
ठहरे, पहचान बनाई, कहानी रची
पर बाहर हरदम झांकते रहे
किसी से बतियाते रहे
किसी को जलाते रहे
मासूम दिल पर जब उनके निशान बन गए
उलटे पाँव बाहर निकल गए
एक दर्द का रिश्ता देकर
वो बाहर किसी सुलझे से उलझते गए
हम भीतर जख्मों से उलझते रहे
जिन्हें शिद्दत से पलकों पर नवाजा था
वो आँसू बन कर पुतलियों से बह गए !
दिल पर दस्तख दी
द्वार खुला था
अंदर तक नि:संकोच चले आए
ठहरे, पहचान बनाई, कहानी रची
पर बाहर हरदम झांकते रहे
किसी से बतियाते रहे
किसी को जलाते रहे
मासूम दिल पर जब उनके निशान बन गए
उलटे पाँव बाहर निकल गए
एक दर्द का रिश्ता देकर
वो बाहर किसी सुलझे से उलझते गए
हम भीतर जख्मों से उलझते रहे
जिन्हें शिद्दत से पलकों पर नवाजा था
वो आँसू बन कर पुतलियों से बह गए !
पर बाहर हरदम झांकते रहे
जवाब देंहटाएंकिसी से बतियाते रहे
किसी को जलाते रहे
भारती जी,
ये..............क्या हुआ ?
कैसे हुआ ?
कब हुआ ?
क्यूँ हुआ ?
जब हुआ ?
तब हुआ ?
गज़ब हुआ ?
और अब क्या होगा ????
अदा जी !
जवाब देंहटाएंसादर प्रणाम,
कोई हमारे साथ कितना ही बुरा करे, कहीं न कहीं वह हमें माँझने सँवारने का हिस्सेदार बनता है । बस जरूरत है तो सजग होकर सारी प्रक्रिया को समझने की ।
एक दर्द का रिश्ता देकर
जवाब देंहटाएंवो बाहर किसी सुलझे से उलझते गए
हम भीतर जख्मों से उलझते रहे
जिन्हें शिद्दत से पलकों पर नवाजा था
वो आँसू बन कर पुतलियों से बह गए !
कोई बात नहीं, जिंदगी की ऐसी ठोकरें, स्वतः बहुत कुछ सिखा देती हैं.............
भावयुक्त आपकी यह कविता रोचक लगी.
बधाई
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com