शिक्षा, प्रशिक्षण और विवेक जागरण


सृष्टि में कोई भी वस्तु पूर्णतया पूर्ण और निर्दोष तो नहीं हो सकती, परंतु मानव हर वस्तु को निर्दोष बनाने का यत्न अवश्य करता है । चूंकि वह स्वयं पूर्ण नहीं है, इसलिए उसके समस्त कार्य अपूर्ण ही रहते हैं । हजारों वर्षों के मानव इतिहास में कभी भी शिक्षा की कोई पद्धति सर्वथा निर्दोष सर्वमान्य नहीं रही है । परंतु शिक्षा की वर्तमान पद्धति तो अत्यंत शोचनीय और चिंतनीय हो गई है । सारे संसार में कोई भी उससे संतुष्ट नहीं है । इसका मुख्य कारण यह है कि वर्तमान शिक्षा-पद्धति के माध्यम से मनुष्य को जानकारियां तो मिल जाती हैं, लेकिन सच्चे ज्ञान की उपलब्धि उसे नहीं होती । यह ज्ञान उपलब्ध न होने से स्वयं मानव का निर्माण यह शिक्षा नहीं कर पाती । तथ्यों की जानकारी से मनुष्य का मस्तिष्क तो भर जाता है, परंतु उसकी अंतरात्मा खाली की खाली बनी रहती है । न तो उसके अंत:करण का जागरण होता है, न ही उसके ह्रदय में शुभ भावना का अवतरण । इसे यों भी कह सकते हैं कि यह शिक्षा उस आहार की भांति है, जिससे भूख तो मिट जाती है, लेकिन तृप्ति नहीं होती और न ही नया रक्त और अन्य धातुओं की शरीर में अभिवृद्धि ही होती है। यही कारण है कि वर्तमान शिक्षा हमारे चरित्र को स्पर्श भी नहीं कर पाती और इससे मनुष्य के व्यक्तित्व को गढ़ने का कोई उपाय प्रतिपादित नहीं होता । यह कितना आश्चर्यजनक और अभाग्यपूर्ण है कि शिक्षा - प्रशिक्षण द्वारा पशु को मानव बनाने का उपक्रम तो किया जाता है, पर मानव को मानव बनाने का नहीं । या इसे यों कहें कि पशु की पशुता दूर करने के प्रयत्न तो किए जा रहे हैं, जबकि दूसरी ओर मनुष्य में अंतर्निहित पाशविकता को उलटा बढ़ाया ही जा रहा है । यही नहीं, उसे मानव से कुछ और बनाने के सभी प्रयत्न आधुनिक शिक्षा में किए जा रहें हैं ।

मानव को मानव बनाए रखना है अथवा कुछ और बना देना है, यही आधुनिक शिक्षा की समस्या है, जिस पर हर बुद्धिवादी, विवेकशील व्यक्ति और संसार का हर वर्ग चिंतित है ।


मनुष्य को छोड़कर अन्य किसी जीव को शिक्षित नहीं किया जा सकता, क्योंकि निसर्ग ने जो ज्ञान-शक्ति मनुष्य को दी है, वह अन्य किसी प्राणी को नहीं । अन्य जीवों को केवल प्रशिक्षण (ट्रेनिंग) दिया जा सकता है; जैसे कि सर्कस में हाथी, घोड़े, बंदर, बकरे और तोता-मैना आदि को । शिक्षण और प्रशिक्षण के इस बुनियादी भेद को समझना बहुत आवश्यक है ।

शिक्षा का सूत्र और उसका स्रोत अंतस में है । वह एक संस्कार है, जो बीज रूप से अंकुरित हो वृक्ष बनता है और उसमें पुष्प और फल फलते हैं, जबकि प्रशिक्षण मात्र अभ्यास है। वह (प्रशिक्षण) उस पौधे की भांति है, जो पुष्प और फलों से रहित रिक्त स्थान की पूर्ति के लिए सजावट के किसी स्थल पर क्षणिक महत्व के लिए रोपा जाता है, जिसे आर्टिफिसियल कह सकते हैं । यानी शिक्षा एक प्राकृतिक संस्कार है और प्रशिक्षण एक कृत्रिम वस्तु मात्र । पहले का संबंध अंतस से है, दूसरे का बाहर से, पहला प्राकृतिक है, दूसरा कृत्रिम । एक विकासशील प्राण -तत्व है, तो दूसरा निर्जीव पदार्थवत । इस प्रकार प्रशिक्षण ऊपर से जबर्दस्ती थोपा हुआ ढ़ांचा है । शिक्षा ऊपर से नहीं थोपी जाती वरन अंतस को जगा कर दी जाती है । पानी के हौज में जिस प्रकार पानी ऊपर से भरा जाता है, उसी प्रकार प्रशिक्षण है, जो ऊपर से भरा जाता है । जबकि शिक्षा कूएं की तरह से है, जिसमें जल-स्रोत जमीन की गहराई से फूटते हैं । अंग्रेजी शब्द एजुकेशन का अर्थ बड़ा महत्वपूर्ण है । उसका अर्थ है : भीतर से बाहर निकालना । उसका अर्थ बाहर से भीतर डालना नहीं है। जो बाहर से डाला जाता है, उसे शिक्षा कैसे कहा जा सकता है ? यह मात्र प्रशिक्षण है और यही कारण है कि जिसे हम शिक्षित होना कहते हैं, और जिसे विश्वविद्यालय सम्मानित करते हैं, वह जीवन की व्यापक और बृहद परीक्षा में असफल हो जाता है । ऐसा शिक्षित जन केवल रटा हुआ तोता होता है । उसमें स्वयं के विचार की न तो कोई ऊर्जा होती है और न ही अपने जीवन को निर्देशित करने का कोई विवेक । वह पानी की लहरों पर बहते हुए उस लकड़ी के टुकड़े की तरह होता है, जिसे लहरें जहां ले जाती हैं, चला जाता है ।

प्रशिक्षण का शिक्षण के रूप में इस भांति प्रचलित होना तकनीकी शिक्षा के अति प्रभाव के कारण हुआ है, क्योंकि तकनीक का प्रशिक्षण ही हो सकता है, शिक्षण नहीं । सारा संसार चूंकि भौतिक समृद्धि के लिए लालायित है, और भारत जैसा अविकसित देश तो गरीबी के कारण और भी अधिक, इसलिए तकनीकी ज्ञान को ही प्रमुखता मिली है । तकनीकी ज्ञान से ही रोजी-रोटी और भौतिक-समृद्धि के सुख युवाओं को आकर्षित करते हैं । हम तकनीकी ज्ञान और उसके द्वारा होने वाली भौतिक समृद्धि के विरुद्ध नहीं हैं । संसार के लिए और हमारे लिए यह आवश्यक है । किंतु इस प्रशिक्षण से वास्तविक शिक्षा से जो हम छुटे जा रहें हैं, उस से बड़ा अहित हो रहा है । हमारा विवेक कहीं खोता जा रहा है। हमारे जीवन के बुनियादी आधार खोखले होते जा रहें हैं । इससे हम अधिक समय तक अपनी आंखे मूंद कर नहीं रह सकते । अपनी अयोग्यता को छिपाकर, केवल अभ्यास के बल पर, हम आखिर कहां तक आगे बढ़ सकेंगे ? वास्तविक शिक्षा के अभाव में यह प्रशिक्षण हमारे जीवन को खोखला और एकांगी बना रहा है । इसी के साथ इसके कुछ भयावह नतीजे भी निकल रहे हैं । तकनीकी ज्ञान भौतिक जगत के नियंत्रण के लिए आवश्यक है । परंतु जिस वास्तविक शिक्षा की हम बात कर रहें हैं, उसके द्वारा शिक्षित न होने के कारण मनुष्य स्वयं से नियंत्रण खोता जा रहा है । स्वयं पर इस अनियंत्रण के कारण ही उसका पदार्थ-ज्ञान व भौतिक वस्तुओं पर आधिपत्य वैसा ही जैसे अबोध बालक के हाथ में तलवार देना । पिछले दो महायुद्ध इसके प्रमाण हैं और दिन-प्रतिदिन होने वाले जानमाल के घातक विस्फोट निरंतर हमें इस बात की खबर दे रहे हैं । हमें इन घटनाओं से चेतावनी नहीं मिली । यदि हम सचेत नहीं होते हैं, तो अनियंत्रित मनुष्य के हाथ में प्रकृति की नियंत्रित शक्तियां आत्मघाती ही सिद्ध होंगी । इसकी चरम परिणति समस्त मानवता के अंत में हो सकती है । इसलिए भौतिक वस्तुओं पर नियंत्रण के पूर्व मनुष्य का उसका स्वयं पर नियंत्रण कहीं अधिक जरूरी है । क्योंकि शक्ति केवल संयमी के हाथों में ही सुरक्षित रहती है । असंयमी, अविवेकी के शक्तिशाली होने से भस्मासुर की पुनरावृत्ति अवश्यम्भावी है ।


इस जगत में मनुष्य के लिए मनुष्य से अधिक महत्वपूर्ण और कुछ भी नहीं है । वह प्रथम है और जो शिक्षा मनुष्य के सृजन की शिक्षा न होकर उसके संहार का कारण बनती है, उसे शिक्षा कैसे कहा जा सकता है ? शिक्षा का अर्थ है : सदिच्छा, सद्भाव का प्रसार करना । एक ऐसे ज्ञान का विस्तार शिक्षा-तत्व में निहित है, जो व्यष्टि के माध्यम से समष्टि के कल्याण का केंद्र बने । तकनीकी ज्ञान शिक्षा का मुख्य अंग कभी नहीं होना चाहिए वह गौण ही रहना चाहिए । मानवीय मूल्यों की स्थापना ही शिक्षा का केंद्रीय तत्व है । तकनीकी ज्ञान से उपार्जित वस्तुएं जीवन यापन का साधन हो सकती हैं, लेकिन साध्य नहीं । साध्य तो मनुष्य स्वयं है । इस साध्य की प्राप्ति के लिए ही शिक्षा उसका एक शस्त्र है, एक साधन है । वर्तमान शिक्षा पद्धति में हुआ यह है कि जो साध्य है, वह साधन बन गया है और जो साधन है वह साध्य । इस प्रकार साधन को साध्य के ऊपर रखना घातक सिद्ध हुआ है । भौतिक शिक्षा में साधन साध्य बन जाते हैं और आध्यात्मिक शिक्षा में साधन साधन रहते हैं और साध्य साध्य । यदि आवश्यकता पड़े और कोई अन्य विकल्प शेष न रहे तो वास्तविक शिक्षा साधनों का परित्याग कर सकती है , लेकिन साध्य का नहीं । उसकी दृष्टि में वे हर साधन सम्यक हैं, जो जीवन के चरम साध्य की उपलब्धि में सहयोगी है । उसके विपरीत पड़ते ही वे व्यर्थ और त्याज्य हो जाते हैं ।


मानव की सम्यक शिक्षा मूलत: उसके विवेक और उसकी भावनाओं की शिक्षा होगी । विवेक जागृत और शक्तिशाली हो तथा भावनाएं संयमित और शुभ । विवेक के जागृत होते ही वासनाएं अनिवार्यत: उसकी अनुगामी हो जाती हैं । फिर श्रेय ही प्रेम हो जाता है । ऐसा जीवन ही यज्ञपूर्ण है । शिक्षा का लक्ष्य ऐसा ही जीवन है ।

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