ज्ञान-गंगा : 9 / ज्ञान, ज्ञाता , ज्ञेय और अहंकार


साधारणत: जिसे ज्ञान कहते हैं, वह ज्ञान द्वैत के ऊपर नहीं ले जाता । वहां द्वैत हमेशा बना रहता है । जहां दो का भाव हो, वहीं यह संभव होता है कि ज्ञेय और ज्ञाता अलग-अलग बने रहते हैं । इसी लिए यह ज्ञान एक बाह्य संबंध है । यह अंदर प्रवेश नहीं कर पाता । ज्ञाता ज्ञेय के कितने ही निकट पहुँच जाए, फिर भी दूर ही बना रहता है । इस तथाकथित ज्ञान के लिए दूरी अनिवार्य और अपरिहार्य है । इसलिए ऐसा ज्ञान मात्र किसी विषय का परिचय ही दे पाता है, वस्तुत: ज्ञान नहीं बन पाता । मनुष्य के लिए बड़ी से बड़ी पहेलियों में से एक यही है कि ज्ञान बिना दूरी के संभव नहीं । लेकिन जहां दूरी है,वहां सच्चा ज्ञान असम्भव है ।

क्या यह संभव है कि दूरी न हो और ज्ञान संभव हो जाए ? यदि यह संभव नहीं है, तो सत्य कभी भी नहीं जाना जा सकता । और साधारणत: यह संभव नहीं दिखता, क्योंकि जो भी हम जानते हैं, वह जानने के कारण ही हमसे पृथक और अन्य हो जाता है । ज्ञान ज्ञाता और ज्ञेय को तोड़ देता है । वह जोड़ने वाला सेतु नहीं, वरन् पृथक करने वाली खाई है । और यही कारण है कि जिन्हें हम ज्ञानी कहते हैं, वे अति अहंकार युक्त हो जाते हैं । जैसे-जैसे उनका ज्ञान बढ़ता है, वैसे-वैसे वे विश्वसत्ता से टूटते जाते हैं । इस भांति यदि कोई सर्वज्ञ हो जाए तो वह अपने अहम बिंदु पर समग्र रूपेण केंद्रित हो जाएगा । और जहां जितना अहंकार है, उतना ही अंधकार है । ज्ञानी होने का बोध अहंकार की सूचना है । और सर्वज्ञ होने की धारणा परम अज्ञान की स्थिति है । सुकरात को परम ज्ञानी कहा गया है । क्योंकि उसने कहा है कि मैं इतना ही जानता हूँ कि मैं कुछ भी नहीं जानता । उपनिषद् भी घोषणा करते हैं, कि अज्ञान तो अंधकार में ले ही जाता है, लेकिन ज्ञान महा अंधकार में ले जाता है । ईशोपनिषद् का इस संबंध में स्पष्ट कथन है : जो जन अविद्या में निरंतर मग्न हैं, वे डूब जाते हैं तमस में । जो मनुज विद्या में सदा रमें हैं, वे और भी अधिक तमस में धंस जाते हैं और जो मनुष्य निरोध उपासना करते हैं, वे डूब जाते हैं घने तमस-अंध में तथा जो जन सदैव विकास में लगे हैं वे और अधिकाधिक तमस-अंध में धंस जाते हैं ।

अहंकार ही अज्ञान है । इसलिए जिस ज्ञान से अहंकार पोषित होता हो, वह प्रच्छन रूप में अज्ञान ही है । फिर क्या ऐसा भी कोई ज्ञान संभव है, जो अज्ञान न हो अर्थात् क्या ऐसा ज्ञान संभव है, जिसमें अहंकार न हो ? दूसरे शब्दों में क्या ज्ञान ज्ञाता और ज्ञेय को जोड़ने वाला सेतु भी हो सकता है ? निश्चय ही ऐसा ज्ञान संभव है और उस ज्ञान का नाम ही प्रेम है । प्रेम ज्ञान का ऐसा मार्ग है, जहां अहंकार को मिटा कर प्रवेश मिलता है । प्रेम का अर्थ है स्वयं के और सर्व के बीच दूरी को मिटाना । यह दूरी उसी मात्रा में विलीन होने लगती है, जिस मात्रा में मैं का भाव नष्ट हो जाता है । रूमी की एक कविता है - जिसमें प्रेमी ने प्रेयसी के द्वार पर दस्तक दी है । भीतर से आवाज आई - कौन है? प्रेमी ने कहा मैं तेरा प्रेमी । लेकिन फिर भीतर से कोई आवाज न आई और न ही दरवाजा खुलता मालूम पड़ा । प्रेमी ने चिल्लाकर पूछा कि क्या कारण है कि द्वार नहीं खुलता । उत्तर आया - प्रेम के द्वार उसके लिए ही खुलते हैं, जिसने उसकी पात्रता अर्जित कर ली हो । यह सुन कर प्रेमी चला गया और वर्षों की तपश्चर्या के बाद पुन: उस द्वार पर आया । फिर पूछा गया कि द्वार पर कौन है ? इस बार उत्तर अलग था । प्रेमी ने कहा - मैं नहीं हूँ, अब तो तू ही तू है । और जो द्वार बंद थे वे खुल गए । प्रेम का द्वार तभी खुलता है, जब अहंकार का आभास गिर जाता है । सत्य पर पर्दा नही है । पर्दा हमारी दृष्टि पर है । और गहरे में देखने पर प्रेम के द्वार बंद नहीं थे, बल्कि अहंकार से आंखें बंद थी । अहंकार गया तो द्वार सदा से ही खुले हैं ।

प्रेम की साधना स्वयं को मिटाने की साधना है । और आश्चर्यों का आश्चर्य तो यही है कि जो स्वयं को मिटाता है, वही स्वयं को पाने में समर्थ होता है ।

टिप्पणियाँ

  1. जो स्वयं को मिटाता है, वही स्वयं को पाने में समर्थ होता है ..
    बहुत सुन्दर..
    आपने बहुत ही सुन्दरता से प्रेम की महत्ता बता दी...
    अहंकारी मनुष्य न प्रतिष्ठा का अधिकारी होता है न ही प्रेम का....
    प्रेम के पथ पर ही चल कर ज्ञान की प्राप्ति होती है...........अतिसुन्दर .
    अगर ऐसे ही आपको पढ़ती रही तो वैराग की मेरी इच्छा पूर्ण हो जायेगी .....या फिर ईश्वर मेरी वर्षों की इच्छा पूर्ण करने के मार्ग पर लिए जा रहा है कौन जाने ?
    पढ़ कर असीम संतुष्टि की प्राप्ति हुई है...

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  2. जो हो रहा है
    शुभ है
    इस भाव को
    गहराने दें ।
    आप शुभ हैं आप शुभ है आप शुभ हैं ।

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